भोजपुरी फिल्मों के महानायक कुणाल से एक मुलाकात
आमने-सामने

अमिताभ भोजपुरी फिल्म में काम करके सिर्फ रिश्तेदारी निभा रहे हैं – कुणाल
भोजपुरी फिल्मों की बात करें तो इसका एक अपना बाजार रहा है। ठेठ गंवई बाजार। इस फिल्म को देखने वाले ज्यादातर वे लोग होते हैं, जो आज भी या तो अपनी माटी से जुड़े हैं या फिर पाश्चात्य संस्कृति की हवा में कहीं न कहीं अपने गांव की सोंधी महक तलाश रहे होते हैं। ऐसे में अन्य क्षेत्रीय फिल्मों में सबसे ज्यादा भोजपुरी फिल्में पसंद की जाती हैं। भोजपुरी बेल्ट और गैर भोजपुरी क्षेत्रों में भी। ‘नदिया के पार’, ‘धरती मईया’, ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ की अपार लोकप्रियता यही कुछ कहती है। हां, बीच का दौर कुछ कारणों से मंदा रहा। लेकिन आज भोजपुरी फिल्मों की जो आंधी चल पड़ी है, उसमें न सिर्फ बॉलीवुड के दर्जनों दिग्गज इसमें बह निकले, बल्कि अन्य दिग्गज भी इसमें बह जाने को लालायित हैं।
आज भोजपुरी फिल्मों में कई दिग्गज काम कर चुके या कर रहे हैं। लेकिन भोजपुरी फिल्मों के महानायक चंद ही हैं। भोजपुरी फिल्म के महानायकों में एक नाम कुणाल का है जिन्होंने भोजपुरी फिल्म के क्षेत्र में एक लंबी पारी खेली है। और लंबी पारी खेलने का मतलब परिपक्व अनुभव। करीब दो साल पहले कुणाल एक भोजपुरी फिल्म के सिलसिले में पटना में थे। उस वक्त उनसे राजीव मणि की लंबी बातचीत हुई। पेश है मुख्य अंश :
पिछले कुछ ही सालों में भोजपुरी फिल्मों का बाजार अचानक चल पड़ा। आखिर कारण क्या है।
भोजपुरी फिल्मों का बाजार पहले भी ठीक था, लेकिन पहले मीडिया भोजपुरी फिल्मों के बारे में लिखने या दिखाने में षर्म महसूस करती थी। मेरी कई सफल फिल्में मेरे नाम से भी नहीं जानी गईं। इनमें धरती मईया, गंगा किनारे मोरा गांव आदि का नाम लिया जा सकता है। यह एक वजह थी कि कलाकार को ऊंचाई नहीं मिल पाती थी। आज स्थिति बदली है। मीडिया का भरपूर सहयोग मिल रहा है।
जब स्थिति बदली तो फिल्म का स्तर गिरा। आज जो आदमी गीत लिख रहा है, वही संगीत भी दे रहा है। कभी-कभी खुद गायक भी बन जा रहा है।
हां, गिरावट तो आई है। दरअसल विषेषज्ञों की कमी है। हर काम हर आदमी नहीं कर सकता। अब बिना मेहनत किए लोग समझते हैं कि हम काबिल हैं। ज्यादा दोष उन निर्माताओं का है जो यह नहीं देख पाते कि कौन सा काम किससे करवाना है।
इन सब के बीच अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी जैसे दिग्गजों का भोजपुरी फिल्म क्षेत्र में आना क्या सुखद भविष्य का संकेत नहीं है।
अमिताभ जी और हेमा जी सिर्फ इसलिए भोजपुरी फिल्म में काम कर रहे हैं कि उनका मेकअप मैन फिल्म बना रहा है। यह सब सिर्फ एक रिष्तेदारी निभाने जैसा है। अगर दूसरा निर्माता अमिताभ जी के पास जाकर कहे कि मैं भोजपुरी फिल्म बना रहा हूं और चाहता हूं कि आप उसमें काम करें, तो मुझे नहीं लगता कि वे काम करने को तैयार होंगे। इसलिए यह कहना गलत होगा कि वे भोजपुरी फिल्म में काम करना पसंद करते हैं या उन्हें इसमें रुचि है। सच्चाई यह है कि भोजपुरी फिल्में बनाना या उसमें काम करना ये छोटे लोगों का काम समझते हैं। वहीं मेरी लड़ाई षुरू से ही भोजपुरी फिल्मों की प्रतिष्ठा को लेकर रही है।
गैर भोजपुरी क्षेत्र के लोगों का इस क्षेत्र में उतरना या इसमें काम करना भी गिरावट की वजह रही है। समस्या क्या है।
हिन्दी फिल्मों के कलाकार भोजपुरी फिल्मों में काम कर सोचते हैं कि उन्होंने निर्माता-निर्देषक पर एहसान किया है। जो ठीक से भाषा ही नहीं समझ सकते, उनकी भाव-भंगिमा क्या होगी! ज्यादातर निर्माता-निर्देषक यह नहीं समझते। वे यह नहीं समझते कि लंदन में षूटिंग करने या हिन्दी कलाकारों को भोजपुरी फिल्म में लेने से व्यवसाय नहीं होने वाला। भोजपुरी फिल्म के दर्षक अपनी माटी से बंधे-जुड़े होते है। वे कहीं भी रहें, उन्हें बिरहा, चैता, ठुमरी, कजरी जैसी चीज आकर्षित करती है।
क्या इसी गिरावट की एक कड़ी है भोजपुरी फिल्मों में पाश्चात्य संस्कृति का समावेश।
नहीं, समय के साथ कुछ बदलाव जरूरी है। अब गांवों की तस्वीर भी बदली है। पहले गांव में बैलगाड़ी थी, आज अच्छी और महंगी गाड़ियां हैं। ग्रामीणों का पहनावा बदला है। हां, रीति-रिवाज, संस्कृति जैसी मूल बातें नहीं बदलनी चाहिए।
द्विअर्थी गीतों का चलन जो शुरू हुआ।
हमारी संस्कृति में कुछ तो रहा है। हम षादी के मौके पर गाली गाते हैं। बाईजी की नाच देखते हैं। वही गाली देने वाले लोग बेटी की विदाई के वक्त काफी भावुक हो जाते हैं। होली के दिन हम भाभी की गाल पर गुलाल मलते हैं, लेकिन पैर छूना भी नहीं भूलते। यह हमारी संस्कृति है। यहां तक तो ठीक है। लेकिन बाजार की दौर में सिर्फ कैसेट बेचने या व्यवसाय करने के लिए जो कुछ हो रहा है, नहीं होना चाहिए। फिल्म बनाते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी फिल्म पूरा परिवार एक साथ बैठकर देखता है।
भोजपुरी फिल्मों का सबसे बड़ा बाजार भोजपुरी बेल्ट है, लेकिन यहां के कलाकारों को ही नजरअंदाज किया जा रहा है।
ऐसा नहीं है। कोई भी निर्माता वैसे कलाकारों को लेकर काम करना चाहेगा जहां पैसा डूबे नहीं। यह डिमांड पर निर्भर एक षुद्ध व्यवसाय है। और इस व्यवसाय में प्रतिभावान लड़कों को प्रवेष पाने से कोई नहीं रोक सकता।
बिहार में फिल्म बनाने की कोई योजना।
अगर सरकार सहयोग दे तो अवष्य यहां काम किया जाएगा। एक तो यहां कोई फिल्म उद्योग नाम की चीज है नहीं। दूसरी बात कि सरकार का सहयोग भी नहीं मिलता। यहां टैक्स काफी ज्यादा है। अगर सरकार अनुदान दे और टैक्स माफ करे तो बिहार में भी फिल्में बनने लगेंगी।
अपनी नई फिल्मों के बारे में बताएं।
माई-बाप, पंडितजी, तू ही बनवऽ दूल्हा हमार, पूरब और पष्चिम, बांके बिहारी एम.एल.ए., कन्हैया सहित कई फिल्में हैं।