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अमावस के अंधेरे में

मोती प्रसाद साहू

उसने मेरे घर की साॅकल खटखटायी, वह भी गहन निशीथ में। खट्… खट्…। मैं अचानक नींद से उठा। समय देखा, रात के एक बज रहे थे। बाहर घुप्प अंधेरा। याद आया, आज तो अमावस है। साॅकल खटकती रही, खट्… खट्…।
‘अब चारपाई से उठना ही पड़ेगा। कौन हो सकता है, इतनी रात गये ? संचार के इतने विकसित और उपलब्ध संसाधनों के बावजूद साॅकल खटखटाना ? कोई परिचित है, तो उसके पास मेरा दूरभाष नम्बर होना चाहिए।’ मेरे उठने के साथ एक अनचीन्हा भय भी उठ गया, मेरे मन में।
हिम्मत कर पहले खिड़की खोली। देखा एक स्त्री-आकृति दरवाजे पर खड़ी है। आंखों को छोड़कर नीचे से ऊपर तक वस्त्रों से पूरी तरह स्वयं को ढंकी हुई। पहचानना मुश्किल।
मैंने डरते-डरते पूछा – “आप कौन ?“
“भयभीत न हों कविराज ! भयभीत तो मैं हूं। मुझे अन्दर तो आने दें। मुझे शरण चाहिए। आपको इतना तो मालूम होगा ही कि जब कोई स्त्री रात में शरण मांगें तो निश्चित रुप से वह खतरे में है।“
“किंतु…“
“मैं समझ गयी, आप का भय भी निरर्थक नहीं है। मैं पूरी दुनिया में अपने लिए शरण तलाश रही हूं, किंतु नहीं मिल रही।“
“आपका उत्तर तो दार्शनिक की भांति है, फिर मुझसे उम्मीद ?“
“हां, आप कविराज हैं। सोची आप के पास शरण मिल जाय ?“
“परन्तु इतनी रात गये, दिन के उजाले में क्यों नहीं ? कोई देख लेगा तो ?“
“आपको लोक लाज की पड़ी है और मुझे सुरक्षा की फिकर है। सब मेरे नाम की माला जपते हैं, परन्तु सम्मान कोई नहीं देता। क्या मैं चली जाऊं आप के दर से ? आप भी औरों की तरह…?“
“नहीं… नहीं… ऐसा नहीं हो सकता।“
मेरी अन्तरात्मा ने कहा, डरो नहीं कवि, ‘यह वही है, जिसे आप वर्षों से सर्वत्र देखना चाहते हो, पाना चाहते हो। आज वह स्वयं चलकर आयी है, तुम्हारे यहां, स्वागत करो।’
मैंने अपने मन के दरवाजे खोल दिए।
अब वह मेरी कलम की नीली रोशनाई से कागज पर फैल रही है निरन्तर।
और…! उधर शहर में, गांव में, चैपालों में मुनादी हो रही है, अखबारों में तहरीरें छपवाई जा रही हैं – ’समता’ कहां गुम हो गयी ?’

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