Naye Pallav

Publisher

ख्वाब जो मुकम्मल है !

अमन चाँदपुरी

चिलचिलाती दोपहर का समय था। मेरे बाबा के एक पुराने परिचित उनसे मिलने आये थे। मुझे उनका नाम तो नहीं मालूम है, लेकिन उनकी कद-काठी अभी-भी मेरी स्मृति में बनी हुई है। ऐसा लगता था, जवानी की दहलीज पार करके उन्होंने अभी-अभी बुढ़ापे में कदम रखा है। गठीला बदन था, चेहरे से दाढ़ी और मूँछों की फसल गायब थी। खद्दर का छींटदार कुर्ता और काॅटन की सफेद धोती पहने हुए थे। गमछा काँधे को सुसज्जित कर रहा था और खादी की बेहद कीमती-सी टोपी सर की शोभा बढ़ा रही थी।
उनके साथ एक और आदमी था। दुबला-पतला और मरियल-सा। साफ तौर से तो मैं नहीं जानता कि वह कौन था, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि कोई पिछलग्गू ही रहा होगा। मोटर साइकिल वही चला रहा था। गाड़ी दुआरे पर लगे आँवले के पेड़ के नीचे खड़ी करके जब वे दोनों लोग बाबा से मुखातिब हुए, तो उस अधेड़ आदमी ने बाबा से हाथ मिलाया और दूसरा आदमी फौरन बाबा के पैरों की तरफ लपका।
औपचारिक स्वागत-सत्कार के बाद तीनों लोग बरामदे में आकर बैठ गए और मुझे चाय-पानी लाने का इशारा मिला। मैंने फौरन लपककर पास वाले कमरे से मेज लाकर रखी। उसके बाद बिस्किट और पानी रखकर मैं घर और तालाब के बीच में लगे आम के पेड़ नीचे बैठे हुए अपने दोस्तों के पास पहुँच गया। फिर करीब पाँच मिनट के बाद दीदी ने बाहर चाय ले जाने के लिए मुझे आवाज लगाई। मैंने चुपचाप चाय ले जाकर मेज पर रख दी और फिर अपनी टोली में जा पहुँचा। बातचीत का सिलसिला चल निकला, तो पता चला कि ये महाशय कवि हैं। उन्होंने अपनी लम्बी-लम्बी ओज की कविताएँ जब चिंघाड़-चिंघाड़ के सुनाना शुरू किया, तो उनकी कर्कश आवाज हमें आम के पेड़ तक सुनाई दे रही थी।
कई कविताएँ सुनाने के बाद जब वो थोड़ा-सा साँस लेने के लिए थमे, तो बाबा ने कहा, ‘‘मेरा पोता भी कविताएँ लिखता है।’’ यह वाक्य उन महाशय के लिए कोई साधारण वाक्य नहीं था। इसमें कई रहस्य छिपे थे। इस वाक्य से उनको ईष्र्या हुई। वो चैंककर बोले – ‘‘कैसी कविताएँ लिखता है ? जिसे देखो मुँह उठाकर कहता है, मैं कविता लिखता हूँ, मैं कवि हूँ, मैं फलां रस लिखता हूँ, मैं फलां-फलां कार्यक्रम कर चुका हूँ, मुझे फलां-फलां जगह बुलाया जा चुका है, सम्मानित किया जा चुका हूँ, हुँह… कविता लिखना तो जैसे मजाक बन गया है।’’
उनकी ये चंद पंक्तियाँ उनकी कविताओं से कई गुना तेज आवाज में आग की लपटों की तरह से बाहर निकलीं। ये पंक्तियां मुझे भी सुनाई दे रही थीं। ऐसा लगा, जैसे जून की कड़क धूप में मैं आम के नीचे नहीं, सूर्य देव के सामने बैठा हूँ या न चाहते हुए भी गर्मी में अलाव के सामने बैठना पड़ रहा है। इन पंक्तियों की आँच को सम्भवतः जितना मैंने महसूस किया, उतना ही बाबा ने भी महसूस किया।
पलटकर बोले – ‘‘अरे, वो भी बहुत अच्छा लिखता है। हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई पत्रिका डाकिया ले आता है, जिसमें उसकी कविताएँ छपी होती हैं। उसका कमरा हजारों किताबों से भरा पड़ा है। सैकड़ों किताबें और पत्र-पत्रिकाएँ हैं, जिसमें उसकी कविताएँ प्रकाशित हैं।’’ इतना कहकर बाबा थोड़ा-सा थमे कि फौरन उन महाशय ने बोला – ‘‘मैं नहीं मानता, लाइए वो सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएँ दिखाइए।’’ …फिर किताबों और पत्र-पत्रिकाओं का बंडल उनके सामने रखा गया। उन्होंने कुछेक कविताएँ पढ़ीं और फिर वही पुराना राग अलापने लगे, ‘‘मैं नहीं मानता। ये कविताएँ जरूर किसी दूसरे कवि की चुराकर अपने नाम से प्रकाशित करा ली गई हैं। आप जैसे लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए। मैं ऐसे झाँसों में नहीं आने वाला। आजकल के सम्पादकों को भी इतनी फुर्सत कहाँ कि इसपर चिंतन करें कि ये रचनाएँ जिसने भेजी हैं, उसकी हैं भी या नहीं। उनको तो बस अपनी पत्रिका के लिए मैटर चाहिए होता है। ऐसे ही सम्पादकों को उल्लू बनाकर इस लौंडे ने बजाड़ी मार ली है और सबको बेवकूफ बना रहा है।’’
इतना सब सुनने के बाद अब बाबा ने कोई दलील न देकर मुझे ही बुलाना उचित समझा। अब मुझे साबित करना था कि मैं कवि हूँ या नहीं।
सामने पेश होते ही उनका पहला सवाल फट पड़ा – ‘‘क्यों भाई ? कविताएँ लिखते हो ?’’
‘‘हाँ, कविताएँ लिखता हूँ।’’
‘‘मैं कैसे मान लूँ ?’’
‘‘बस मान लीजिए। ये क्या आपके सामने सब किताबें-पत्रिकाएँ पड़ी हैं। लगभग सब में मेरी कविताएँ छपी हैं। कई डायरियों में बारह सौ से ऊपर दोहे, पचासों गजलें, गीत, मुक्तक और भी बहुत-सी रचनाएँ नोट हैं।’’
‘‘मैं नहीं मानता।’’
‘‘फिर आपको कैसे यकीन दिलाऊँ ?’’
‘‘ये सामने खटिया पड़ी है, इसपर कोई कविता लिख कर दिखाओ, तो मानूँ।’’
‘‘अरे, कविता ऐसे थोड़ी न लिखी जाती है। अपने कह दिया और मैंने तुरंत लिख दिया। कविता तो जब माँ सरस्वती की कृपा होती है, तब अपने आप कागज पर उतरती है, नहीं तो घंटों कलम लेकर बैठे रहो, एक भी पंक्ति ठीक से नहीं सूझती।’’
‘‘बेटा, हमें न सिखाओ, हम भी कवि हैं, हमें भी पता है कविता कैसे उपजती है। माँ की कृपा से भी होती है और सप्रयास भी लिखी जाती है। तुम तो फिलहाल अभी इस खटिया पर कोई कविता लिखकर दिखाओ, तो मान लेंगे तुम कवि हो और अगर नहीं लिख सकते, तो कविताओं का केंचुल छोड़ दो और कान पकड़कर माफी माँगो, आगे से कविताओं के नाम पर लोगों को बेवकूफ नहीं बनाओगे। नहीं तो इतनी चोरी की कविताओं की बिना पर तुम्हें जेल की चक्की पीसनी पड़ सकती है। साथ ही साथ इन दो कौड़ी की पत्रिकाओं के महामूर्ख सम्पादकों को भी।’’
इन आग उगलते शब्दों ने मेरे तन-बदन में आग लगा दी। दिल अपनी दुगुनी रफ्तार से धड़क रहा था। मेरे कान खड़े और सूरज की लपटों की तरह लाल हो गए थे। चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था। मेरे अन्दर की ठकुराई मुझपर हावी हो रही थी। खुद को किसी तरह से शांत करके बरामदे से बाहर निकलकर आम के पेड़ के पास जाने के बजाय मैं सीधे उन्हीं की मोटरसाइकिल पर जाकर बैठ गया और खुद को साबित करने के लिए तुकबंदी करने की कोशिश करने लगा।
वैसे तो मैं जबरन कविता नहीं लिखता हूँ। ऐसा करना मुझे कविता के साथ दुष्कर्म के समकक्ष लगता है। लेकिन खुद को साबित करने के लिए मैं ऐसा करने को भी पूरी तरह से तैयार था। खटिया शब्द उसी कर्कश आवाज के साथ कानों में गूँज रहा था। मेयार का कोई मसअला था नहीं और तुकबंदी करना मेरे लिए कोई कठिन बात नहीं थी। दो-तीन मिनट की जेहनी मशक्कत के बाद एक दोहा मुँह से निकल पड़ा। एक-दो बार गुनगुनाकर देखा, तो अच्छा लगा। मैं फौरन मोटरसाइकिल से कूद पड़ा और जबतक बरामदे की चैखट तक पहुँचा, मेरा ख्वाब टूट गया और पूरा का पूरा दोहा याद रह गया। वो दोहा यूँ है –
‘बूढ़ी आँखें जोहती, रहीं लाल की बाट।
प्राण पखेरू उड़ गए, हुई अकेली खाट।।’’

Leave a Reply

Your email address will not be published.


Get
Your
Book
Published
C
O
N
T
A
C
T