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हे माली !

राजीव मणि

हे माली !
तुम कैसे हो जो
तुम्हें नहीं कोई चाह
दिनभर बगीया में जुतते हो
पर भरते नहीं आह
युग बदला, लोग बदले
पर तुम रह जाते प्यासा
तुम्हारे बगीया के पुष्पों की
अब बड़ी-बड़ी अभिलाषा
हर डाली से कांटे तुम चुनो
दूसरों के गहने तुम बुनो
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में
तुम्हारे पुष्प इठलाते
हाय ! तुम रह जाते प्यासे
हे माली !
तुम खुद को पहचानो
सिर्फ कर्तव्य नहीं
अधिकार भी जानो
आखिर कबतक यूं सहोगे
अपने मन की नहीं कहोगे
तुम्हारे चमन के पुष्प अब
सुरबाला ले जाती
तुम जीते या मरते हो
क्या कभी पूछने आती ?
फिर भी बोलो क्यों डरते हो
खुद ही खुद से क्यों लड़ते हो
ऐसा कर तो मर जाओगे
भला किसका कर जाओगे
अब मत रखो किसी से झूठी आशा
उठो, पूर्ण करो अभिलाषा।

एकल काव्य संग्रह ‘तुम्हारी प्रतीक्षा में’ से

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