Naye Pallav

Publisher

मैं जीवन को समझ न पाया

राजेश कुमार द्विवेदी

मैं जीवन को समझ न पाया
जीवन मुझे छोड़ मुस्काया
मैं था केवल कपड़ा लठ्ठा
हुए चितेरे रंग इकट्ठा
लहर चेतना की ज्यों आई
मुझे बनाकर ध्वज फहराया
मैं जीवन को समझ न पाया
मैं जड़ का जड़ बना रह गया
मेरे सब उद्गार बह गए
कल कल शीतल नदियां बनकर
जिसने आगे वन उपजाया
मैं जीवन को समझ न पाया
सूने नभ में कभी पवन था
मेघ मेरा धुंधलाया मन था
तड़पा चमका गरजा बरसा
तब भी सबका मन हरषाया
मैं जीवन को समझ न पाया
राहों जैसे पड़े रह गए
या पेड़ों से खड़े रह गए
ऐसे में डगरोहों ने कब
दिशा ढूंढ ली, पाई छाया
मैं जीवन को समझ न पाया।

युक्तियुक्त

सच्ची मानवता घिर-घिर जाए
संकट की बरसात से
कंपकंपी लगे तो कैसे तापें
सब लकड़ी चमड़ी भीग गई
गीली लकड़ी तो जले नहीं
ऐसे में कुछ शुष्क पत्तियां
और खपच्चियां काम की हैं
उनके दहने से भीगी लकड़ी
और बाद में गीली लकड़ी
भी दहती हैं, पक्का जानो
गुणवत्ता के साथ-साथ
संख्याबल जब साथ रहेगा
धू-धू कर लौ लपटें सारी
जूड़ी-तूड़ी शांत करेगी
मानव का जब चित्त मंजेगा
मानव को तब सत्य छजेगा
राष्ट्रभाव भी तभी बचेगा
मानवता की धूम मचेगी
तब निसर्ग भी नाच उठेगी।

घर घर है…

घर घर है, इसमें जुड़ता है
इसमें घट सकता नहीं कभी
जो चले गए, वे जुड़े रहे
अवमुक्ति विदा लेने पर भी
घर पाना, कहते भाग्य लेख
घर पाकर रचो, भूमिका गुनो
घर से तेरी पहचान बनी
अब उठ, घर की पहचान बनो
घर संधि नहीं है, युद्ध नहीं
घर परम शांति, परम सुखिन
घर जीवन है, जीवन है घर
घर जीवन कड़ियां अंतहीन
घर विरचित समाज को जन्मे
घरहीन समाज है भीड़ धुंध
घर कुटुंब बनाते हैं जन को
फिर समाज, फिर जग समुंद
घर की महिमा, प्रभु की महिमा
नव निधि इसकी सेवा पर
छल खल शामक, शांति रचक
घर घर की गरिमा देखा कर
घर की परिमित है मूल तेरा
इससे जुड़ करो परिक्रमा तुम
पा अनंत पराक्रम पौरुष का
ओजस विकरित उषा कुंकुम।

सारे शंख बजाने होंगे

झूठ के दर्प मिटाने होंगे
सच के अर्थ बताने होंगे
सब मानुष अपनाने होंगे
सारे शंख बजाने होंगे
झूठ कहीं न ढुकने देंगे
सच न किंचित छुपने देंगे
दृढ़ता से परिभाषा देंगे
मानवता की आशा देंगे
झूठ के धर्म हटाने होंगे
धर्म के मर्म बताने होंगे
सच के बीज बुआने होंगे
सारे शंख बजाने होंगे
निसर्ग रीतियां अपनाएंगे
ऋषि प्रवृतियां सजवाएंगे
मानवता को आगे लायेंगे
छलछद्म क्रूरता लजवाएंगे
बुद्धि विवेक जताने होंगे
सागर बिंदु समाने होंगे
सच के दीप जलाने होंगे
सारे शंख बजाने होंगे
वेद मंत्र घर घर गूंजेंगे
‘सभ्य बनो’ मन मन गूथेंगे
संस्कार के फल झोरेंगे
ज्ञान वीथिका को जोड़ेंगे
मौलिक तत्व उठाने होंगे
श्रुति संस्कार उगाने होंगे
संस्कृति लोक बचाने होंगे
सारे शंख बजाने होंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published.


Get
Your
Book
Published
C
O
N
T
A
C
T