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मैथिलीशरण गुप्त की ‘किसान’ कविता में चित्रित किसान जीवन

किरण माधनुरे

भारतीय किसानों की जीवन गाथा का यथार्थ चित्रण हिंदी साहित्य में किया गया है। वर्तमान समय के किसान जीवन की वास्तविकता को हिंदी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। हिंदी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से किसनों की समस्याओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। वर्तमान समय में किसान अपने जीवन से परेशान होकर मृत्यु को गले लगा रहा है। बढ़ती किसानों की आत्महत्या हमारे लिए बड़ी समस्या भले ही न हो, लेकिन किसानों के परिवारों के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है।
बढ़ती महंगाई से परेशान होकर किसान कर्ज का सहारा ले रहा है और अधिक फसल न होने के कारण वह अपना कर्ज भी अदा नहीं कर पा रहा है। वर्तमान समय में नकली बीज, दवाई और खाद की वजह से किसान की फसलों की पैदावार बहुत कम हो रही है। इस वजह से किसान और अधिक कर्ज में धसता जा रहा है और कर्ज न चूका पाने की वजह से वह मौत को गले लगा रहा है। परिवार का कर्ता-दाता ही खत्म हो जाए तो उन पर क्या बितती है, यह उनके परिवार के लोग ही जानते हैं। यहाँ तक कि अपने परिवार को साथ लेकर भी किसान मर रहा है।
वर्तमान में किसान जीवन की स्थिति काफी दयनीय है, क्योंकि सबका पेट भरने वाला अन्नदाता आज के दौर में परेशान है और अपने परिवार को भर पेट खाना भी नहीं दे पा रहा है। दिन-रात अपने खेत में मेहनत करने के उपरांत भी कर्ज की भरपाई करने के लिए सारी फसल पकने के बाद उसके घर की बजाए महाजन की कोठी में जाती है। इस वजह से किसान की माली हालत दिन-पर-दिन गिरती जा रही है। इसी यथार्थ को हमारे हिंदी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
हिंदी के महान साहित्यकार एवं राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘किसान’ कविता में किसान जीवन के यथार्थ स्थिति को रेखांकित किया है। प्रस्तुत कविता में मैथिलीशरण गुप्त ने ये दर्शाया है कि किसान दिन-रात काम करके फसल उगता है, उसकी हिफाजत करके कटाने योग्य बनाता है, अपने परिवार की खुशहाली की कमाना करता है, अच्छी फसल होने पर अपने परिवार और बच्चों के नए कपड़े लेने के बारे सोचता है, लेकिन फसल काटने के बाद उस फसल पर उसका हक नहीं बल्कि किसी और का होता है। जैसे कि –

“हो जाये अच्छी भी फसल,
पर लाभ कृषकों को कहाँ,
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ।
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में,
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में।”

प्रस्तुत पंक्तियों में यह स्पष्ट किया गया है कि कितनी भी अच्छी फसल क्यों न हो, परन्तु उस पर अधिकार है महाजन का। अन्नदाता होकर स्वयं खाता है आधा पेट ! और जीता इस उम्मीद में है कि अगली फसल कर देगी सब ठीक। इस उम्मीद में किसान फिर से कड़कती धूप में पसीना बहाते हुए हल चलाता है। अपने परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए मेहनत करता रहता है। फिर भी उसका परिवार आधा पेट खाकर सोता है। धूप, बरसात भूलकर मेहनत करता है। यह वर्तमान समय के अधिकांश गरीब किसानों की वास्तविकता है।

“बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा,
है चल रहा सन-सन पवन, तन पसीना बह रहा।
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे,
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे।”

प्रस्तुत पंक्तियों में किसान के बारे में यह दर्शाया है कि बिना लोभ के वह अपना शरीर जलाकर, सूरज की तपती धूप में अपना पसीना बहाकर मेहनत करता है। इसी प्रकार बारिश में बिना किसी चाहत के खेतों में बिना किसी के सहारे भीगते हुए गरजते बादलों के बीच खुले असमान में रहता है। अपने खेत की फसलों की रखवाली करता है। उसे आराम की नहीं, अपने खेत की फसलों की चिंता सताती है। किसान को किसी प्रकार का लोभी नहीं, वह कर्तव्य का पालन करने वाला है।

“घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा,
घर से निकलने को गरज कर, वज्र कर रहा।
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम है,
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम है।

इस प्रकार बसरते असमान के बीच, गरजते बादलों के बीच, बिना विश्राम किए वह अपना कर्तव्य निभाता है और अपना जीवन जीता है। बरसात हो, सर्दी हो या गर्मी हो, कभी किसान को आराम नहीं मिलता। वह अपने फसलों की रातों को जागकर रखवाली करता है और खेतों में जगाकर रातें बिताता है।

“तो भी कृषक ईंधन जलाकर खेत पर है जागते,
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते।”

आज भी किसान अपना मोह त्यागकर खेतों में जाकर फसलों की रखवाली करता है। उसको लाभ का मोह नहीं, वह अपने सपने और मोह को त्यागकर सिर्फ अपने कर्तव्य को याद रखता है।
अंततः यह कह सकते हैं कि किसान का जीवन कई समस्याओं से घिरा हुआ है। उसके जीवन में कई परेशानियाँ हैं, फिर भी सभी परेशानियों का सामना करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है। वर्तमान समय की बड़ी समस्या यह है कि नकली बीज की वजह से अच्छी फसल नहीं हो रही है। बढ़ती महंगाई और बढ़ते कर्ज की वजह से किसान बेहाल है। इसी वजह से वह आत्महत्या कर रहा है।
सबके लिए अनाज पैदा करने वाला किसान भूखा सो रहा है। वह अपने बारे में नहीं, बल्कि औरों के बारे सोचता है। उसका कर्तव्य है कि अधिक से अधिक अनाज पैदा करे। वह कभी यह नहीं सोचता है कि उसको किसानी से फायदा हो रहा है या नहीं, इसका उसको कुछ ज्ञात नहीं, फिर भी किसानी करता रहता है। किसान के लिए कोई भी मौसम हो, कुछ मायने नहीं रखता। गर्मी की गरमाहट और सर्दी की थरथराहट हो या बरसात, किसी भी मौसम की परवाह किए बिना अपना कर्तव्य निभा रहा है। यह वही किसान है, जो अपने कर्तव्य निभाते-निभाते इस दुनिया से चला जाता है। उसके जीवन की रौशनी ही गायब हो जाती है। वर्तमान समय में भी किसान अँधेरे में जी रहा है। आज भी उसके जीवन में किसी बात का अलोक नहीं है।

संदर्भ सूचि :

  1. कृषिपराशर – श्री द्वारका प्रसाद – चैखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी
  2. प्रेमचन्द – गोदान – लोकमय प्रेस
  3. कृषि अभियंत्रण के सिद्धांत – प्रो. वीरेन्द्र सैमुएल – दया पब्लिकेशन हाउस
  4. प्राचीन भारत में कृषि एवं भूमि प्रणाली – राजेशचन्द्र – दया पब्लिकेशन हाउस।

हिंदी विभाग, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद – 500007, तेलंगाना

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