Naye Pallav

Publisher

पत्रकार साहब

पूनम टांक

सुधा अपने कमरे में बिस्तर पर औंधी पड़ी एक पत्रिका के पन्ने पलट रही थी। उसके बालों की एक लट लगातार उसके सुर्ख गालों से खेल रही थी। रेडियो पर पुराना गाना बज रहा था। सुधा पत्रिका देखने के साथ ही गीत भी गुनगुना रही थी … ‘कहीं किसी रोज यूं भी होता हमारी हालत तुम्हारी होती, जो रात हमने गुजारी मरके वो रात तुमने गुजारी होती।
अचानक ही सुधा बोल उठी, वाह! आज भी विविध भारती पर कितने अच्छे गाने आते हंै, जो सीधे मन पर असर करते हैं। वास्तव में किसी की भी मनःस्थिति को समझना कितना मुश्किल है। या यों कह लें कि वर्तमान में मनुष्य सिर्फ अपने दुःख में दुखी और सुख में सुखी रहना चाहता है, उसे किसी और की दुःख परेशानियों से कोई सरोकार ही कहां है।
सुधा मन ही मन यही सब सोचते हुये पत्रिका देख रही थी, तभी उसकी नज़र शेखर की तस्वीर पर पड़ी। शेखर को देखते ही सुधा के चेहरे पर एक ही पल में अनगिनत भाव मंडराने लगें। शेखर जो सुधा के बहुत अच्छे मित्र हैं, अब शेखर के मन की तो वही जाने, किन्तु सुधा तो हमेशा से ही उन्हें अपना मित्र हो मानती आयी है।
सुधा और शेखर की जान पहचान भी बडे़ अजीब ढंग से हुई थी। उस दिन भी जब सुधा ने अपना लैपटाॅप आॅन किया, तो उसमें कुछ नोटिफिकेशन और फे्रंडरिक्वेस्ट पड़ी थीं। सुधा ने जब चेक किया, तो उसमें एक नाम ऐसा था, जिससे वह खुद तो परिचित ना थी, लेकिन उसके कुछ घनिष्ठ लोग थें, जो उस नाम से जुड़े थे। उसने उत्सुकतावश उस व्यक्ति की प्रोफाइल चेक की। उसका नाम शेखर कपूर था, जो एक जाने-माने अखबार में सब एडिटर थे। सुधा ने रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली। कुछ दिनों के बाद सुधा के मैसेंजर पर पत्रकार साहब का एक संदेश आया, जो कि परिचय जानने के उद्देश्य से किया गया था। सुधा ने बिना कुछ सोच-विचार के अपना पूर्ण परिचय उन्हें दे दिया। बस यहीं से उनकी वार्तालाप शुरू हो गयी।
शुरू में तो शेखर रोज सिर्फ गुडमार्निंग और गुड़ नाइट का मैसेज करते थे और सुधा मुस्करा कर उसका जवाब दे देती थी, परन्तु धीरे-धीरे कब शेखर उसके अन्तर्मन में प्रवेश कर गये, उसे पता ही ना चला। अब तो उसकी पूरी दुनिया ही शेखर बन गये। शेखर की व्यस्तता के बारे में सुधा बखूबी जानती थी, परन्तु फिर भी उनके मैसेज का इन्तजार करती रहती। शेखर सुधा से न तो कभी मिले थे और ना ही फोन से बात हुयी थी, बस आॅनलाइन चैटिंग ही हो जाती थी।
एकबार तो इन्तजार इतना लम्बा हो गया कि सुधा का दिन-रात काटना मुश्किल हो गया। करीब एक महीने के बाद शेखर ने मैसेज किया … ‘‘सुधा कैसी हो?’’
सुधा का तो सब्र का बांध टूट पड़ा, वह फूट-फूट कर रोने लगी। न जाने शेखर से यह कैसा जुड़ाव था, जिसे सुधा ना तो खुद समझ पा रही थी और न ही उन्हें समझा पा रही थी। उस दिन तो शेखर भी बहुत घबरा गये थे। सुधा ने बहुत देर बाद खुद को सम्भालते हुये कहा – ‘‘देखिये पत्रकार साहब, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए, बस आप सही सलामत हैं, ये मैसेज मुझे रोज करते रहिये।’’
‘‘जैसा आप कहें मैम।’’
फिर उन्होंने माहौल को थोड़ा हल्का बनाने के लिए हंसते हुये कहा … ‘‘अरे भाई हम पत्रकार लोगों के विषय में जानकर क्या करियेगा, हमारी अपनी तो कोई जिन्दगी होती ही नहीं, बस समाज सेवा ही हमारा मूल कर्तव्य है, आज यहां तो कल वहां, हमसे दिल लगाकर कुछ हासिल न होगा।’’
सुधा खामोश हो गयी। शेखर थोड़ी देर बार फिर बोले … ‘‘सुधी कहीं सच में तो हमसे दिल नहीं लगा बैठी ना?’’
सुधा हंसते हुये बोली … ‘‘पत्रकार साहब, अभी हमारे इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं।’’ … और दोनों हंसने लगंे। लेकिन सच्चाई तो यही थी कि अब शेखर सुधा की आदत बन चुके थे।
एकबार अचानक ही शेखर को किसी बडे़ प्रोजेक्ट के सिलसिलें मे बाहर जाना था। उन्होनंे उस दिन पहली बार सुधा को फोन किया। फोन बहुत जल्दबाजी में किया गया था। वे हड़बड़ाते से बोले – ‘‘हेलो सुधा, मुझे कुछ दिनों के लिए बाहर जाना है, इसलिए अब बात ना हो पायेगी, और बिना सुधा की बात सुने उन्होंने फोन काट दिया।’’
बस उस दिन से सुधा इंतजार करने लगी, कब दिन महीनों में और महीने सालों में बदल गये, पता ही ना चला। सुधा की शादी अमृत से हो गयी। शेखर अब बस उसकी यादों में ही थे, जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई लेना देना ना था।
सुधा अपने वैवाहिक जीवन में बहुत खुश थी, लेकिन उसके अन्तर्मन में कुछ दबा था, जिसे वह किसी के भी साथ सांझा न कर सकी। अचानक मिनी दौड़ती हुयी आयी और सुधा को झंझोड़ते हुये बोली – ‘‘मम्मा, आज आप मुझे स्कूल से लेने क्यूं नहीं आयीं?’’
तब सुधा की नींद टूटी व मिनी को बहलाते हुये हकलाकर बोली, ‘‘ओ ओ साॅरी बेटा, आज काम करते-करते देर हो गयी’’।
मिनी ने पत्रिका के खुले पन्ने पर छपी तस्वीर को देखते हुये पूछा – ‘‘मम्मा, ये अंकल कौन हैं? जिन्हें गिफ्ट मिल रहा है’’।
‘‘बेटा ये कपूर अंकल हैं और उन्हें गिफ्ट नहीं पुरस्कार मिल रहा है’’।
पत्रकारों को बस अपने काम के अलावा कुछ याद ही कहां होता है, वे तो वहीं रूक गये, लेकिन वक्त कहां रूका, वह तो आगे बहुत आगे निकल गया। शेखर का प्रोजेक्ट तो पूरा हो गया, किन्तु सुधा के अन्दर अभी भी कुछ अधूरा-सा रह गया जो कभी पूरा नहीं हो सकता।
सुधा अपने में ही बोले जा रही थी और मिनी कब की खेलने चली गयी थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.


Get
Your
Book
Published
C
O
N
T
A
C
T