होईहैं वही जे राम रची राखा
होने लगी राजतिलक तैयारी।
देवों में है संशय भारी।।
प्रभु जन्म हुआ किस हेतु।
बनाना था सागर में सेतु।।
बनने जा रहे प्रभु राजकुमार।
क्यों ले रहे प्रभु राज का भार।।
बढ़ रहा नित निशिचर खलकामी।
जान रहे सब तुम अंतर्यामी।।
त्यागो प्रभु अब राज दरबार
विप्र, धेनु, सुर, संत का करो तुम सपना साकार।
देख अवध का असीम प्यार।
बंध गया मैं तो इस संसार।।
मुझे भा गया यह अवध प्रांतर।
बोले रघुवर कुछ मुस्का कर।।
तेरी दुविधा उपाय आप करो।
वन जाने की राह साफ करो।।
मिथिला कुमारी ब्याह कर आयी।
संग अपने कुछ सपने लायी।।
कैसे कह दूँ चलने को कानन
होगी न बात यह मनभावन।
संत भरत हृदय है अति सरल।
राम चरण में भक्ति अविरल।।
सुर समाज ने चली कुटिल चाल।
भरत-शत्रुघ्न को भेजा ननिहाल।।
हुई साफ वन जाने की अब राह।
थी प्रभु की ऐसी ही कुछ चाह।।
भरत में बसती है राम की जान
भरत के बिना है राम निष्प्राण।।
भरत के आगे राम पड़ जाते कमजोर ।
फिर चल नहीं पाता राम पर देवों का कोई जोर।
फिर देव सभा में हुआ विचार।
गए देवगण सरस्वती द्वार।।
करने लगे स्तुति शारदा की।
तेरे हाथ अब डोर विपदा की।।
जिसके वश में ब्रह्मांड यह सारा।
वह मोहपाश में बंध बना बेचारा।।
है बड़ी अचरज की बात।
दो भवानी हम देवों का साथ।।
बनने जा रहे राजा राम
जाकर बिगाड़ो यह शुभ काम।
सुन अति क्रोधित हुई भवानी।
देव न चलेगी तेरी मनमानी।।
खुशियाँ छीनकर भर दूँ मातम।
होगा न मुझसे यह कुकृत्य महातम।।
देवों ने जब करी बहु विनती।
हुई द्रवित करुणामयी सरस्वती।।
पहुँची अवधपुरी तब पाँव गडाय।
सुमिरी रघुनन्दन होऊ सहाय।।
बसे घर को उजाड़ने का करने जा रही दुष्कर्म
है भाव भले पुण्य का पर पथ है यह अधर्म।
कौसलपुरी की देख अनुपम छटा।
हुआ हृदय में बहुत व्यथा।।
मिल न रहा कोई सम्मूढ़ अज्ञानी।
हुई किंकर्तव्यविमूढ़ बहुत भवानी।।
सम्मुख दिखी मंथरा एक कुबड़ी।
हुई प्रविष्ट मंथरा में कर हिय कड़ी।।
पूर्ण हुआ देवों का काम।
मचा अयोध्या में कोहराम।।
फूँकी जब मंथरा ने कैकेई के कान
माँग ली कैकेई ने संचित दो वरदान।
राम करे चैदह साल वन में वास।
कर दो पूरी मेरी यह आस।।
दे दो भरत को अयोध्या का राज।
मिटे न रघुकुल की मर्याद आज।।
वरदान को सुन दशरथ चकराया।
अवध पर कैसा यह संकट गहराया।।
हो रहा कैकेई की बातों पर अचरज।
फिर कुछ संभलकर बोले दशरथ।।
बसती है राम में मेरी जान
राम के संग ही चले जाएंगे मेरे प्राण।
पर कैकेई ने तो जिद ली ठान।
छोड़ रही थी दशरथ पर शब्दों के बाण।।
जबतक नहीं होगा राम का वन गमन।
ग्रहण न करेगी वह पानी और अन्न।।
पहुंची बात राम के कानों तक।
आया होकर विनीत माँ कैकेई के समक्ष।।
क्यों हैं दुखी पिता किस हेतु हैं मौन।
मुझे बताओ इस दुख का कारण आखिर कौन।।
सुनो राम पिता का तुझसे है अद्भुत प्रीत
इस प्रीत के कारण टूटेगी रघुकुल की अब रीत।
राजा ने किए वादे देने को दो वरदान।
मांग लिए मैंने तो हो गया मुख म्लान।।
है प्रथम वर मेरा भरत हो नृप अवध का।
जाना होगा तुझे वन है मेरा वर दूजा।।
सुन कैकेई के वचन राम की भर आई आँखें।
भरत हो राजा जानकर खुशियों से खिल गई बाँछें।।
भरत बनेगा राजा है बड़ी खुशी की बात।
मेरे वन जाने से दुखी आप न हो तात।।
वन भेजकर माता ने किया मुझपर उपकार
विधाता हुआ सहाय कानन में छाएगा अब बहार।
इतनी कठोर न बनो कैकेई।
हाथ जोड़ राजा ने करी विनती।।
पुष्प बिन बाग नहीं भायेगा।
राम बिन क्या भरत रह पाएगा।।
पर हुआ न कैकेई पर कोई असर।
टूट रही थी बनकर कहर।।
माँ तुम नाराज न हो पिता पर।
बोले राम अति विनीत बन कर।।
करूँगा निश्चय ही चैदह साल वन में वास
हो यदि आज्ञा तो जाऊँ मातु कौशल्या पास।
माँ दे दो आशीष दिल से आज।
जा रहा हूँ वन करने को राज।।
माता कैकेई ने किया बड़ा उपकार।
हल्का कर आऊँ निशाचरों से मही का थोड़ा भार।।
है अवध की खुशी अब तेरे ही हाथ।
देना हर पल भरत की सुख-दुख में तुम साथ।।
सुनी सिया ने जब वन जाने की बात।
करने लगी हठ वह भी चलने को साथ।।
त्याग रहे क्यों मुझे प्रभु क्या मेरा अपराध
मेरी तो एक-एक साँस है आपसे आबाद।
रह नहीं पाऊँगी यहाँ अवध में तुम्हारे बिन।
जी नहीं पाऊँगी वियोग में मैं एक भी दिन।।
वन में है कष्ट बहुत नहीं कोई आराम।
देख भूमिसुता की हालत बोले मृदु वचन राम।।
है घने जंगल जिसमें रहते भयानक वनचर।
ऋषि-मुनियों को देते त्रास खलकामी निशाचर।।
रहना यहाँ या मिथिला में मन जहाँ भाए।
देना ढाढ़स सभी परिजन को जब याद मेरी उन्हें आए।।
पर मानी नहीं सिया ने राम की कोई बात
हार कर दे दी स्वीकृति वन जाने को साथ।
इतने में आ पहुंचे अनुज लखन लाल।
सुन कर हो रहा था उसका बुरा हाल।।
चलूँगा मैं भी संग कहूँ मैं बात सीधी-सादी।
रहना नहीं मुझे वहाँ जहाँ नहीं भैया-भाभी।।
मातु सुमित्रा से आज्ञा ले आओ असमंजस में पड़ गए राम।
माता बोली सियाराम जहाँ बिराजे वहीं अयोध्या धाम।।
सारी दुविधा हो गई अपने आप ही दूर।
आ गया समय अवध त्यागने का राम हुए मजबूर।।
चले वन राम लखन सीता सहित करके अवध अनाथा
सच है होईहैं वही जे राम रची राखा।