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आईना


रतिकान्त पाठक ‘बाबा’

‘‘आइये, आइये, मैं रिक्शे वाले को पैसा दे देता हूं।’’ मैंने अपनी डिस्पेंसरी से ही बेदा भाई को ऊंची आवाज में कहा।
उन्होंने अपना बटुआ निकालते हुए रिक्शे वाले से पूछा – ‘‘कितना पैसा दे दूं ?’’
‘‘दस रुपये।’’
‘‘वाह भाई ! रिक्शा चलाते हो या हवाई जहाज।’’
‘‘नहीं पंडित जी, मैं तो अपना शरीर चलाता हूं, खून सुखाता हूं और पसीना बहाता हूं, उसके बाद ही कुछ मिलता है।’’
‘‘नहीं, मैं तो मात्र पांच रुपये ही दूंगा।’’
‘‘बिल्कुल संभव नहीं है। आपको दस रुपये ही देना होगा, यकीन न हो तो किसी को बुलाकर पूछ लें।’’
‘‘देखो जी, बेसी टीम-टाम मत दिखाओ, नहीं तो बात आगे बढ़ जाएगी।’’
‘‘जाइये… जाइये… रात-दिन आपके जैसे कितने चंदन टीका वाले को यहां-वहां दिखलाते हैं, गरीब का पेट काटने की कोशिश न करें। …और हां, पैंट में चिल्लर न हो तो दूसरी बात है।’’
‘‘अरे गदहा, मुझे क्यों चिल्लर होने लगा … चिल्लर तो तेरे कपार में होगा, तेरे पूरे शरीर में होगा, तुम्हारे खानदान में होगा। मुझे क्यों… मैं तो रोज स्नान कर पूजा-पाठ करता हूं। मुझे क्यों चिल्लर होगा।’’
‘‘देखिए, अब आप मुझे गाली दे रहे हैं। मैं गरीब जरूर हूं, परन्तु नमकहराम नहीं हूं। लोगों का मुफ्त का नहीं खाता। पसीना बहाता हूं, उसके बाद ही दो जून रोटी मिलती है। ना जाने किसका मुंह देखकर उठा था ? जो ऐसे खुसठ आदमी से पाला पड़ा।’’
मैं बात बढ़ते देखकर दोनों आदमी को अंदर आने को कहा।
‘‘नहीं… नहीं, मैं इसे देख लूंगा। दो पैसे का आदमी इसे भले व्यक्तियों से भेंट नहीं है। इसे आज मैं जगह दिखा दूंगा।’’
मैं आगे बढ़कर और दोनों को पकड़कर अपने दवाखाना में ले आया। इस रिक्शेवाले को मैं बहुत नजदीक से जानता था। उसके डेरा पर उसकी पत्नी और बच्चे के इलाज के लिए कई बार गया भी था। नन्हकू (रिक्शेवाले का नाम) सहरसा जिले के दूर-देहात का रहने वाला था। वह गरीब जरूर था, परन्तु पढ़ा-लिखा आदमी था। परिश्रमी और स्वाभिमान का धनी था। एकबार उसने अपनी छोटी-सी जिन्दगी के संबंध में मुझसे कहा था।
बचपन में ही वह पितृहीन हो गया था। मां की इच्छा एवं कठीन परिश्रम की बदौलत उसने बी.ए. पास किया था। छठे वर्ग से ही उसे छात्रवृत्ति मिलती थी। परीक्षा में उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। कागज का ठोंगा बनाकर, चिनियाबादाम बेचकर, जूठा बरतन और ग्लास धोकर उसने अपनी पढ़ाई यहां तक की एवं उसी में से कुछ पैसा बचाकर मां की भी मदद करता आया था।
बी.ए. में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया, परन्तु आगे की पढ़ाई नहीं कर सका। इसी बीच उसकी शादी और दो बच्चे भी हो गए। नौकरी की तलाश में लगभग दो वर्षों तक क्या-क्या नहीं किया उसने। मंत्री के यहां खाना बनाया, नेताओं के जूते-चप्पल तक साफ किया, अफसरों के डेरा पर रहकर तीमारदारी भी की, परन्तु नौकरी न पा सका। अभावग्रस्त होता गया और पारिवारिक बोझ उठाने में बिल्कुल असमर्थ हो गया। पत्नी से बराबर उलाहना मिलते रहने के कारण एकदिन ऐसा भी आया कि सबों को छोड़कर यहां आ गया और रोज पर एक रिक्शा लेकर चलाने लगा। कुछ दिनों बाद परिवार को यहीं ले आया। इतना पढ़-लिख लेने के बाद भी उसे नौकरी नहीं मिली। इसे उसके भाग्य की विडम्बना कहें या अपने देश के समाजवादी सरकार का ढपोरशंखी नारा, ‘हर हाथ को काम और खेत को पानी।’
मैं उन दोनों को जबरदस्ती अपने दवाखाना में ले आया, तो बेदा भाई को कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए नन्हकू से पूछा, ‘‘तुम तो सहनशील, सुशिक्षित और परिश्रमी हो, फिर इनसे क्यों उलझ पड़ें ?’’
‘‘डॉ. साहब !’’ उसने कहा, ‘‘मैं स्टेशन पर रिक्शा लगाकर बैठा था, इसी बीच रोसड़ा वाली गाड़ी आयी। आशा थी कि कोई सवारी जरूर मिलेगी। ये आए और रिक्शा खाली देखकर बैठ गए और बोले कि मुझे मथुरापुर ले चलो। मैं वहां से निकला तो थोड़ी दूरी के बाद रोकने के लिए कहा गया। ये एक परचून की दुकान में गए और एक पैकेट बिस्कुट लिए, वहां भी दस पैसे को लेकर दुकानदार से चक-चूक हुआ। वो तो मैंने आवाज दी कि देरी हो रही है, तब ये आये। …फिर थोड़ा आगे आकर मौलवी साहब के खैनी की दुकान पर रिक्शा रूकवाया और एक प्लास्टिक का डिब्बा एवं एक रुपया देकर खैनी भरने को कहा, परन्तु मौलवी साहब दो रुपये में डिब्बा भरने को बोले, तो वहां भी उलझ पड़े और मेरी बड़ी मिन्नत के बाद लौटे। लौटने पर चलती रिक्शा में ही ये जो अपने व्यक्तित्व को उजागर कर रहे थे, मैं अपने मुंह से ऐसे शब्दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकता। …और फिर आपके सामने के घाट पर आने के बाद फिर रोकने के लिए बोले, तो मैंने सोचा कि उस पार चलकर ही रोकूंगा, कारण उस पार से अगर झंडी मिल गई तो पुल पार करने में काफी समय लग जाएगा। इसपर इन्होंने तैश में आकर कहा – ‘झंडी आए या रंडी, इससे मेरा क्या ? मुझे जरूरी है, रोको।’ मुझे विवश होकर रिक्शा रोकना पड़ा। लगभग पैंतीस मिनट में पेशाब … फुरसत में होकर फिर चलने को कहा। … मैं उसी समय समझ गया था कि आज मेरा जतरा सुबह-सुबह खराब हो गया है। भगवान जाने भर दिन क्या होगा ? फिर यहां जो हुआ, वह तो आपके सामने ही है।’’
मैं उसे आश्वस्त करते हुए दस रुपये निकाल कर देने लगा।
‘‘नहीं डॉ. साहब, आपसे पैसा नहीं लूंगा। मैं आपका ऋणी हूं। आपने जो मेरी मदद की है, मैं जिन्दगी भर उसका ऋण नहीं चुका सकता। भगवान ने आज फाकाकशी ही करने को लिखा है, तो मैं कुछ भी करूं वही होगा, जो मंजूरे-खुदा होगा। … लेकिन एक बात आपसे पूछना चाहता हूं कि पंडित जी आपके परिवार के हैं या अगल-बगल के ?’’
मैंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘हम दोनों आदमी का घर पास ही है, यानि अगल-बगल।’’
‘‘डॉ. साहब, मैंने कभी पढ़ा था किसी मनोविशेषज्ञ की किताब, जिसमें उन्होंने लिखा था कि हर व्यक्ति अपने समाज का आईना होता है, लेकिन यह मुहावरा आज झूठा महसूस हो रहा है। मेरी नजर में तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का आईना होता है, न कि समाज या परिवार का … समय नहीं है … बोहनी भी खराब हो गई। चलूं… खोजूं दूसरी सवारी ताकि दिन न सही, रात में तो चुल्हा जले। … प्रणाम डॉ. साहब ! प्रणाम पंडित जी…।’’
ऐसा कहकर वह चला गया। पैसा मेरे हाथ में ही रह गया। तब मुझे विवश होकर सोचना पड़ा कि आज अपना समाज किस ओर जा रहा है ? …और किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो निढाल होकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया।

पता : ग्राम ़ पोस्ट – करिअन, भाया – इलमासनगर, समस्तीपुर, बिहार

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