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सपना

रतिकान्त पाठक ‘बाबा’
रेलगाड़ी की घर्र-घर्र की आवाज एवं उसकी सीटी से नींद खुल गई। पता किया तो किसी ने कहा – पटना आने ही वाला है। मुझे भी पटना ही गाड़ी छोड़कर दूसरी गाड़ी पकड़नी थी। अतः उठकर बैठ गया और पटना जंक्शन आने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही क्षण बाद पटना जंक्शन पर घरघराती हुई गाड़ी लग गई। कुली… कुली ! हल्ला करते हुए मैं भी अपना सामान बांधने लगा और कुली के आने के बाद सारा सामान उसके माथे पर रखकर बरौनी जाने वाली गाड़ी में चढ़ने को कहा, तो उसने प्लेटफॉर्म पर आकर सामान रख दिया और दो घंटे इन्तजार करने को कह किसी दूसरे पैसेन्जर (यात्री) की खोज में आगे बढ़ गया।
मैं वहीं अपने सामान को रखकर उसके ऊपर ही बैठ गया। बैठे-बैठे सोचने लगा कि यही पटना है, जहां कभी तीन दिन तक न खाने की व्यवस्था हो सकी थी और न रहने की। बाद में एक परचून दुकान वाले के कहने पर बम्बई चला गया। पुरानी स्मृति मानस पटल पर चलचित्र की तरह एक-एक कर आती गई कि कैसे दिनभर भटकते, भूखे पेट एक फुटपाथ के चाय-नाश्ता के दुकानदार से बहुत आरजू की कि यहां कोई काम मिल जाए।
बम्बई जैसे शहर में भी विरजू जैसा आदमी मिल सकता है, सपने में भी नहीं सोचा था मैंने। उसने अपनी दुकान में खाना खिलाया। रात में उसी खाने वाले बेंच को साफ कर सोने के लिए जगह दी और मेरी सारी जानकारी लेकर एक-दो दिन यहीं रूकने को कहकर मेरी नौकरी का इन्तजाम करने लग गया।
भगवान की कृपा से एक फैक्टरी में मेरा इन्तजाम हो गया, दरबान की जगह पर। अब दिनभर सोता, रात को दरबानी करता। खाना, नाश्ता, चाय, विरजू के यहां ही होता। विरजू मेरे लिए भगवान हो गया। डूबते को तिनके का सहारा … मैं विरजू को विरजू चाचा कहने लगा। हफ्ता मिलता, विरजू चाचा का हिसाब करता और जो बचता, उन्हीं के पास जमा कर देता। समय किसी तरह से कटने लगा।
एकदिन मैं अपनी ड्यूटी पर था। रात लगभग दस बजे मालिक (अजय बाबू) की गाड़ी गेट पर रूकी। मैंने प्रणाम करते हुए फाटक खोल दिया। गाड़ी के ड्राइवर ने इशारे से मुझे नजदीक बुलाया और साहब के चेम्बर में आने को कहा और गाड़ी आगे निकल गयी। मेरा माथा चकराने लगा कि क्या गलती हो गई मुझसे ? शायद कहीं भूल हो गई या किसी ने शिकायत की है। रोजी-रोटी छिन जाने की चिन्ता से मन खिन्न हो गया। मैं अपने विगत पन्द्रह दिनों की दिनचर्या पर गौर करने लगा कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो गयी है। फिर भगवान का नाम लेकर सारी शक्ति को बटोरते हुए कार्यालय के गेट पर पहुंचा।
अजय बाबू अपने दो-तीन कर्मचारियों के साथ बातचीत करने में मशगूल थे। विचार-विमर्श हो ही रहा था कि चपरासी ने मुझे बुलाया। मैं थर-थर कांपते हुए, अपने इष्ट देवता को स्मरण करते हुए भीतर गया।
मालिक ने सहज मुद्रा में ही मुझसे पूछा – ‘‘क्या नाम है ?’’ मैंने अपना नाम ‘मदन’ बताया। घर – बिहार।
‘‘अरे ! तुम तो बहुत बदनाम जगह के हो, वहां के लोग तो चोर होते हैं।’’
मदन – ‘‘चोर तो लोग कई तरह के होते हैं साहब ! काम-चोर, पैसा-चोर, परिश्रम चोर, परन्तु किसी स्थान विशेष से इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। संसार में कोई ऐसी जगह नहीं, जहां चोर न हों और साधु न हों। व्यक्ति की मंशा देखी जाती है, व्यवहार देखा जाता है, जो कार्य किसी को सौंपा जाता है, उसकी क्षमता देखी जाती है, विवेक और बुद्धि देखी जाती है। सहसा किसी को देखकर, जगह के नाम पर ऐसा उपनाम एक सभ्य नागरिक को देना उचित नहीं। परिस्थिति के थपेड़ों पर भला से भला आदमी टूट जाता है और गलत-सही का निर्णय अवांछित हो जाता है। वैसी स्थिति में अपने पेट के लिए, परिवार के लिए और समाज के लिए अगर गलत कार्य हो जाए, तो वैसे व्यक्ति को चोर नहीं कहा जा सकता। चोर तो वे लोग हैं, जो खाने, पहनने और रहने की सुविधा के बावजूद अपने कर्मचारियों को न समुचित वेतन देते, सरकार से टैक्स की चोरी करते, ऊल-जलूल दामों पर अपने सामानों को बाजार में उतारते, दो नंबर से पैसा बटोर तिजोरी को भरने की चिन्ता में दिन-रात लगे रहते हैं। लेकिन मालिक, मेरी समझ में तो यह चोरी है। यह कहां की चाल है कि हर सुख-सुविधा वाला आदमी लाखों-करोड़ों रुपए बटोरने में लगा रहे और पेट की ज्वाला को शान्त करने वाला, चौबीसों घंटे धूप, बरसात और कड़ाके की ठंड में काम कर, उचित मेहनताना न पाकर अगर कोई कुछ कर बैठे तो लोग उसे चोर की उपाधि दे बैठते हैं। मेरे ख्याल से तो यह उचित नहीं।’’
अजय बाबू – ‘‘अरे, तुम तो अच्छा खासा भाषण देने लगे। अच्छा, सुना है कि तुम घर से भागकर आये हो ?’’
मदन – ‘‘गरीबी के थपेड़ों से अकुला कर भागना पड़ा। अगर समय दें, तो मैं अपनी जिन्दगी के कुछ लम्हों का जिक्र करूं ?’’
अजय बाबू – ‘‘हां… हां, सुनाओ।’’
मदन ने कहना आरंभ किया, ‘‘मैं भाई में अकेला, गरीब मां-बाप का दुलारा बेटा हूं। मां-बाप की इच्छा के अनुरूप मैंने भरसक अपने प्रयास से पढ़ने में रुचि लगाया और अच्छे नंबरों से सभी परीक्षाओं में पास करता रहा। शिक्षक हमसे प्रसन्न रहते एवं अच्छे नागरिक होने की आशा रखते। मां-बाप भूखे रहकर भी मेरा ख्याल रखते कि एक दिन मेरा बेटा पढ़-लिख कर घर का चिराग बनेगा, नाम रौशन करेगा।
आशा के विपरीत मैंने पढ़ाई की। पैसे का इन्तजाम जमीन बेचकर किया। कर्ज पर कर्ज होता रहा, फिर भी मैंने एम.ए. प्रथम श्रेणी में पास कर लिया। परिवार के लोग काफी उत्साहित थे कि अब किनारा लग गया, खुशी के दिन आने ही वाले हैं। इसी बीच मेरी शादी हो गई और एक बच्चे का बाप भी हो गया। नौकरी के लिए दर-दर भटकता रहा। वर्षां बीत गए, लेकिन रिश्वत, पैरवी के जमाने में नौकरी नहीं मिल सकी। बची-खुची जमीन, पत्नी का जेवर, सब नौकरी के इंटरव्यू में समाप्त हो गया और अंत में दाने-दाने को मोहताज होने लगा। मां-बाप का दुलारा बेटा अभागा हो गया। उसपर पत्नी का ताना सुनते-सुनते यही मन करता कि आत्महत्या कर लूं। …और एक दिन पत्नी भी रूठकर मायके चली गयी, तो मां-बाप ने बोलना बंद कर दिया। इतना ही नहीं, समाज के ताने भी मिलने लगे। जिधर जाता, लोग देखकर हंसते, मजाक उड़ाते, तो विवश होकर एक दिन घर छोड़कर बिना पैसे ही यहां तक चला आया।
यहां पर भगवान के रूप में विरजू चाचा मिल गए। डूबते को तिनके का सहारा मिला और उन्हीं के कारण मैं यहां आ पहुंचा। मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि मुझे जो भी कार्य सौंपा जाएगा, वह दरवानी हो या बाबू की कुर्सी, भली भांति पूरा करूंगा, कहीं से कोई आंच नहीं आने दूंगा। आज आपने जो मेरी जिन्दगी का सफरनामा सुना या सुनाने का सुनहरा मौका दिया, उससे आशान्वित भी हूं और साथ ही हृदय में कंपन भी है कि किसी ने कोई गलत जानकारी तो मेरे बारे में नहीं दे दी है।’’
अजय बाबू – ‘‘अरे नहीं, यह बात नहीं है, मैं तो तुम्हें देखकर तुम्हारी प्रतिभा ही बात-व्यवहार व कार्य शैली से आंका कि तुम एक पढ़े-लिखे और सभ्य आदमी हो। बदहाली ने तुम्हें तोड़ रखा है, इसलिए और जानने की इच्छा से तुम्हें यहां बुलाया। … ठीक है ! अपना काम करो, फिर किसी दिन तुमसे और बात करूंगा।’’
मैं वहां से अपनी ड्यूटी पर आ गया। समय बीतता रहा। सभी अपने पराये से लगते, ऐसा लगता कि कहीं कोई अपना है ही नहीं।
एक दिन विरजू चाचा की दुकान पर चाय पी रहा था कि फैक्टरी का चपरासी बुलाने आया। ‘‘मालिक खोज रहे हैं ?’’ मैं दौड़ा-दौड़ा मालिक के चेम्बर तक गया। घंटी बजी, चपरासी भीतर जाने को कहा। मैं भीतर जाकर अजय बाबू को प्रणाम कर खड़ा रहा।
अजय बाबू – ‘‘आज एक काम से तुम्हें बुलाया है। तुम पढ़े-लिखे हो, इसलिए जिम्मेदारी का एक कार्य देने की सोच रहा हूं। वर्मा जी आज ‘रिटायर’ कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि तुम इनका कार्य संभालो। जिम्मेदारी का काम है, अगर लगन से करोगे, तो आगे भी बढ़ सकते हो।’’
मदन – ‘‘मालिक ! मैं धन्य हो गया। मेरे जैसे आदमी को इतना बड़ा कार्य सौंपकर मुझे िंकंकर्त्तव्यविमुढ़ की स्थिति में डाल दिया। परन्तु मैं इस परीक्षा में भी सफल होऊंगा, ऐसा मेरा विश्वास है। आपका आशीर्वाद फलवती होगा।’’
मुझे वर्कर मैनेजर का पोस्ट दिया गया। मुझे क्वार्टर मिल गया। डेरा से आने-जाने के लिए गाड़ी भी मिल गई। नौकरी मिली, माली मिला, सारी सुख-सुविधा मेरे लिए मुहैया करा दी गई। मैं अपने कार्य में दिन-पर-दिन सफल होता रहा, और मालिक का खास आदमी बन गया। सभी मजदूर अपना दोस्त समझने लगें और मालिक अपना छोटा भाई। जिंदगी आराम से कटती रही। छः वर्ष बीत गए। न तो कभी छुट्टी मिलती, न ही मन करता कि घर जाऊं।
एक दिन अजय बाबू रात को मेरे क्वार्टर पर आए, कार्य संबंधी कुछ बातें हुईं। मालिक को चाय के लिए आग्रह किया, तो उन्होंने चाय पीने से इन्कार किया। मेरे काफी आग्रह के बाद उन्होंने कहा कि घर पर जिस दिन सबों को ले आओगे, तब खाना भी खाऊंगा और चाय भी पियूंगा… उनके हाथों… तुम्हारे हाथ का नहीं। इसपर मैंने असमर्थता जताई कि जबतक गांव का कर्ज चुकाने लायक पैसा नहीं हो जाता, मैं नहीं जाऊंगा। इसमें एकाध साल और लग जायेंगे। मैं प्रण करके ही घर छोड़ा था।
अजय बाबू – ‘‘ठीक है ! कितने रुपयों से तुम्हारा सभी कार्य हो जाएगा।’’
मदन – ‘‘लगभग पचास हजार। कर्ज चुकता करना है एवं जो जमीन बिक गई है, उसे वापस भी लेना है। लगभग तीस हजार रुपए मैंने इन छह वर्षों में जमा कर रखा है, बाकी का इन्तजाम करना पड़ेगा, जिसमें साल-दो साल और लग सकते हैं।’’
‘‘ठीक है।’’ कहते हुए अजय बाबू चले गए।
दूसरे ही दिन अजय बाबू ने मुझे चेम्बर में मिलने को कहा। जब मिलने गया, तो उन्होंने एक अवकाश हेतु आवेदन लिखने को कहा, पन्द्रह दिनों के लिए। मैंने पूछा भी – ‘‘मैंने तो सारी बातें आपसे बता ही दी हैं।’’
अजय बाबू – ‘‘मैंने कहा न आवेदन लिखो और यह लिफाफा रखो। इसमें पूरे पचास हजार रुपये का ड्राफ्ट है और खर्च के लिए ऊपर से दस हजार नकद रखो। हां, गाड़ी जो तुम चढ़ते हो, उसे भी ले जाओ। पर याद रहे, पन्द्रह दिन से सोलह दिन न होने पाये। …और हां, अकेले मत लौटना। माता-पिता, पत्नी और बच्चे, सभी के साथ आना। पैसे की कमी महसूस हो तो तुरंत टेलिग्राम करना, पैसे पहुंच जायेंगे।’’
मदन – ‘‘मालिक, इतना बड़ा बोझ ना दें कि मैं खुद को संभाल ही ना सकूं। इतना पैसा मैं कैसे लौटा पाऊंगा। …फिर घर से भागा हुआ आदमी कार से घर लौटेगा तो लोग यही अनुमान लगायेंगे कि कहीं डकैती किया होगा।’’
अजय बाबू – ‘‘मैं तुम्हारे विचारों को दाद देता हूं, परन्तु मालिक समझते हो तो यह मेरा आदेश है। जैसा कह रहा हूं, वैसा करो।’’
मदन – ‘‘ठीक है मालिक, लेकिन गाड़ी नहीं ले जाऊंगा। मैं ट्रेन से ही जा रहा हूं और सोलहवें दिन हाजिर रहूंगा। मैं ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा कि फिर आपको कहने का मौका मिले कि बिहारी चोर होता है।’’
चलचित्र की तरह सारी बातें मानस पटल पर एक-पर-एक आती और मिटती रहीं। इसी बीच घर्र-घर्र करती हुई गाड़ी स्टेशन पर आई। कुली मुझे जोर से हिलाते हुए बोला, ‘‘बरौनी वाली गाड़ी नहीं पकड़नी है ? कहां खोये हुए हैं ?’’
उसके हिलाने पर मैं सामान्य स्थिति में आया और अन्यमनस्क भाव से उठा। सामान कुली को देकर अपने दिए गए वचन का मान रखने के लिए गाड़ी पकड़ने को तैयार था।

2 thoughts on “सपना

  1. बढ़िया दिलचस्प कहानी। भले लोगों की कथा। मेहनत और ईमानदारी की उन्नति बताई। बस संघर्ष, तनाव,द्वंद्व और बुरे लोगों का वातावरणभी आना चाहिए जिससे भले लोगों के काम का महत्व दिखे।

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