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सबसे बड़ा रिश्ता

SECOND : कहानी प्रतियोगिता 2021

मनीष शर्मा

वो शायद 15 दिसम्बर की रात का समय था। ठंड बहुत थी, घरों के सामने घना कोहरा था और उनके सामने जलती हुई बत्तियां मोमबत्ती की लौ की तरह लगती थीं। मैं छत पर था। पूरी बाजू का स्वेटर पहने और हाथों को जेबों में डाले, सिकुड़ा सा जाता था। वैसे तो कानपुर में काफी ठंड पड़ती है, लेकिन पनकी, जोकि नया बसा हुआ रिहाइशी इलाका है, अपनी विरल बसावट के कारण बहुत ठंडा रहता है। इतनी ठंड के बावजूद मैं छत पर था, कुछ सोचता हुआ सा। कभी-कभी ऐसा होता है कि आप अकेले रहना चाहते हैं, शान्त माहौल में, सबसे दूर, जहां किसी भी तरह का कोई शोर ना पहुंच पाता हो। और फिर हमारा घर तो वैसे भी काफी शान्त था। मां सोने जा चुकी थीं और पिताजी हमेशा की तरह अपनी किताबों में उलझे थे।
मेरे पिताजी ने बैंक से अपने रिटायरमेंट के बाद मिली जमापूंजी से 250 गज में एक बड़ा मकान बनवाया था, जिसमें बस हम 3 लोग रहते थे, मेरे पिताजी, माताजी और मैं। पिताजी अपना अधिकतर समय किताबों के साथ बिताते थे। उनके पुस्तकालय में एक अच्छा खासा संकलन था। मां ने अपना सारा जीवन घर को बनाने, पिताजी का साथ निभाने और मुझे पालने में लगा दिया था। मैं भी मां को अपने सबसे करीब महसूस करता था, अपना सबसे अच्छा दोस्त मानता था। वो भी मेरी हर जायज-नाजायज मांग पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। मैं भी हर संभव कोशिश करता था कि उनसे कुछ भी ना छुपाऊं।
रात के एक बजे थे और मेरी आंखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी। ठंड बढ़ चली थी। कभी-कभी शीत लहर से पूरे शरीर में सिहरन दौड़ जाती थी। आकाश निःशब्द था और सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। मैं ऊपर क्यों था ? जब सारी दुनिया नींद के आगोश में थी। सब लोग दिनभर की थकान दूर करने के लिए जल्द ही बिस्तरों में चले गये थे। क्या सब लोग ? शायद कोई मेरी तरह जाग रहा हो। हां, शायद।
वो मेरी ही क्लास में थी। स्कूल के दिन थे। वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। निशा नाम था उसका। हम हमेशा साथ रहते, साथ घूमते, हंसी-मजाक करते, दोस्तों के साथ मिलकर एक दूसरे को चिढ़ाते। छोटी सी दुनियां हुआ करती थी। इसी को हम जीना समझते थे।
मुझे याद है कि एकबार स्कूल में खेलते समय मैं गिर गया था और मेरे सर पर चोट लगी थी, काफी खून बहने लगा था। निशा ऐसे घबरा गयी थी जैसे चोट उसी को लगी हो। मेडिकल रूम से निकलने से लेकर घर पहुंचने तक वो मेरे साथ रही थी। मैं घर पर था और पूरे दिन में 4-5 बार उसका फोन आया था। एक ही सवाल – ‘निशीथ, कैसे हो ?’ एकबार क्लास में होमवर्क ना करके आने की वजह से क्लास टीचर ने मुझे काफी देर तक कान पकड़ के खड़ा रखा, मुझे बहुत बुरा लगा था। मैं लगभग रुहांसा हो गया था। उस दिन मैंने निशा से कोई बात नहीं की थी, मानो उसी की गलती हो। वो भी शायद मेरी हालत समझ रही थी और शायद यह सोच कर कि मुझे बुरा लगेगा, चुप-सी थी। अपनी उम्र के हिसाब से बहुत समझदार थी।
ऐसे ही ना जाने कितने मौकों पर उसने मेरा साथ दिया था। मैं भी उसको लेकर काफी रक्षात्मक था और कई अवसरों पर अधिकारपूर्वक खुद को सबके सामने प्रस्तुत कर चुका था। जिस दिन निशा स्कूल नहीं आती थी, मुझे ना जाने क्यों अकेलापन-सा लगता था। वैसे तो क्लास में मेरे और भी दोस्त थे, लेकिन शायद निशा की उपस्थिति ने बाकी सबको प्रभावहीन बना दिया था। मेरे हृदय का एक बड़ा हिस्सा निशा ने कब अपना बना लिया था, पता ही नहीं चला। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ रही थी, मैं खुद को निशा के और करीब पा रहा था। शायद यह रिश्ते के परिवर्तन का समय था। समझ परिपक्व होने में समय लगता है और इस परिपक्वता की परिभाषा सबके लिए अलग-अलग होती है।
मैं भी खुद को नासमझी में समझदार मानने लगा था। हो भी क्यों ना, आखिर हर बच्चे को ऐसी अनुभूति होती है कि वो बड़ा हो गया है, बावजूद इसके कि उसके परिवार वाले समय-समय पर उसकी क्षुद्रता का एहसास करा देते हैं।
काफी साल ऐसे ही लड़ते-झगड़ते, घूमते-फिरते, हंसते-रोते साथ-साथ निकलते रहे। मेरा परिवार काफी प्रगतिशील विचारों का प्रतिनिधित्व करता था, नतीजतन मुझे अपने फैसले लेने की काफी आजादी प्राप्त थी। मुझे अपनी किसी भी मांग के लिए कभी भी बहुत पूछना या संघर्ष करना नहीं पड़ा। बहुत बार तो मुझे सिर्फ उनको बताना पड़ता था। जिसमें मुझे उनका मेरी समझदारी के ऊपर विश्वास कम, उनका प्यार ज्यादा लगता था।
उधर मेरे विपरीत निशा उतनी स्वच्छंद नहीं थी। उसके माता-पिता लड़कियों के ज्यादा खुलेपन के खिलाफ थे। उनका मानना था कि हर परिवार की एक मर्यादा होती है और हर रिश्ते की एक सीमा, जिसको जब-जब लांघा जायेगा, परिवारों और रिश्तों में विघटन पैदा होगा ही होगा। शायद वो सही भी होंगे, पर उस समय हमें उनकी बातें और कुछ चीजों को लेकर उनकी व्याख्या समझ नहीं आती थी। मेरे पास भी शायद इससे अच्छा पर सबसे प्रचलित शब्द या शायद सबसे घिसा-पिटा शब्द नहीं है – जेनरेशन गैप।
खैर, इन सब के बीच पता नहीं कब मेरे दिल में ऐसी भावना ने घर बना लिया कि अब जब भी मैं उसके सामने जाता था, मेरी आंखें झुक जाती थीं, मेरे भीतर परीक्षा के पहले की सी घबराहट होने लगती थी, मुंह से बोल नहीं निकलते थे। हमारा मिलना अब रोज नहीं हो पाता था, ये अलग बात है, फिर भी मैं अकसर इस परिवर्तन के बारे में सोचा करता था। निशा के बारे में सोचकर मुझे अच्छा लगता था, पर ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा था कि जिस लड़की के साथ मैं बचपन से अबतक रहा हूं, बड़ा हुआ हूं, उसके सामने जाने पर ऐसी घबराहट ? शायद मैं उसे मन ही मन चाहने लगा था। अच्छी तो वो मुझे हमेशा ही लगती थी, मगर ये चाहत कुछ और ही थी, ये पक्का था। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ था।
लेकिन निशा के मन में क्या था, मैं नहीं जानता था और जानने की कोशिश करने से डरता था। वो जब भी मुझसे मिलती थी, बस किसी न किसी बात को लेकर हंसती रहती, कुछ नहीं तो मुझे देख कर ही, जैसे मैं कोई जोकर था। अब मैं सोचता हूं कि शायद मैं ही अजीब-सा बर्ताव कर रहा था, शायद मैं अपनी मौलिकता खो रहा था, पर उसके ऊपर मेरा नियंत्रण ही नहीं था। मगर जो भी हो रहा था, मैं उसके साथ बस बहता जा रहा था, अपनी खुशी से।
जब भी वो मुझे मिलती, मैं बातें करने के साथ-साथ उसकी सुन्दरता का आंकलन करता रहता था, बादाम जैसी उसकी तेज आंखें, तीर-सी तनी हुई उसकी भौंहें, थोड़ी सी ऊपर की ओर उठी हुई उसकी नोकीली नाक, नाक और उसकी ठोड़ी के बीच उसके सधे हुए सुन्दर, पतले, निर्दोष, त्रुटिहीन होंठ जैसे किसी चित्रकार ने अपने सर्वश्रेष्ठ स्केच में कैनवास पर उतारे हों, उसके प्यारे कोमल से हाथ और उनमें पतली-पतली लंबी उंगलियां, उसका हमेशा मुस्कुराता चेहरा, उसकी मौलिक, निश्छल हंसी… क्या-क्या बताऊं ? मैं कितना भी लिखूं लेकिन सुन्दरता की व्याख्या नहीं की जा सकती, सुन्दरता सिर्फ और सिर्फ महसूस की जा सकती है। कई बार सोचा कि सुन्दरता की व्याख्या करने के बजाय उसकी आलोचना करके देखा जाये, लेकिन आपको विश्वास करना पड़ेगा कि मैं बुरी तरह असफल रहा।
काफी दिनों तक मेरे दिल में निशा के प्रति प्यार पलता रहा, पर अनजाने कारणों की वजह से कभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका। हम मिलते, बहुत सी बातें मैं जो सोच के जाता कि आज कहूंगा कि ‘निशा, पता नहीं कब, लेकिन मुझे तुमसे प्यार हो गया है। तुम्हीं मेरी सोच हो और तुम्हीं मेरा निश्चय हो, तुम्हीं मेरा रास्ता हो और तुम्हीं मेरी मंजिल हो। निशा, तुमने मेरे अंतर के तारों को झंकृत कर ऐसा संगीत उत्पन्न किया है, जिसे मैं जीवनभर गुनगुनाना चाहता हूं।’ लेकिन शायद मौन रहना ही मेरी नियति थी, मौन ही मेरी भाषा थी और मौन ही मेरा अंजाम था। वो अपने घर की एक-एक बात मुझसे कहती, कुछ भी नहीं छुपाती।
बहुत बार अपने साहस की परीक्षा लेने और असफल होने के बाद मैंने अपने मन की सारी भावनाएं उसे एक पत्र में लिखने का निश्चय किया और पूरे 4 पन्नों में मन की हर भावना को मोतियों की भांति प्रेम के पवित्र धागे में पिरो कर एक रहस्यमयी बंद लिफाफे में रखकर निशा से मिला। वो अकसर अपने घर के पास वाले पार्क में अपने कुत्ते को टहलाने आती थी। कुछ समय पहले तक, जब मैं बोल सकता था, वहीं बैठकर हम दोनों अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों की याद किया करते थे। उस दिन मैं ज्यादा कुछ बात नहीं कर पाया, शायद मुझे अपनी कमीज में छुपाये हुए उस पत्र को निशा को देने की जल्दी थी और मैं बिल्कुल बेसब्र हुआ जा रहा था। रिश्ते का परिवर्तन जो मैं लंबे समय से महसूस कर रहा था, निशा के भीतर उसी परिवर्तन को मैं देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था कि निशा कैसे खुद को दर्शायेगी, कैसे शर्मायेगी, क्या वो सारे बंधन तोड़कर, बिना कुछ आगे की सोचे मेरे गले से लिपट जायेगी। मैं खुद को निशा की जगह रखकर एक अनवरत और गहरी सोच में डूब गया था। मैं अगर उसकी जगह होता तो कुछ सोचता ही नहीं, बस उसे गले लगाता और चूम लेता, मेरे लिए तो ये मनचाही मुराद पूरी होने जैसा था। हम लड़के शायद ऐसे ही होते हैं, हमारी बनावट ऐसी ही होती है, आज जो चाहिए बस वो मिल जाये, बाकी जो होगा, देखा जायेगा।
यही सब सोचते हुए चलते समय मैंने उसे वो बंद लिफाफा दिया तो वो कुछ संशय, कुछ अचंभे से मेरी तरफ देखते हुए थोड़ी शैतानी भरी आवाज मैं बोली – “क्या है इसमें निशीथ, हां, बोलो बोलो।”
मैं आज तक पूरी तरह नहीं समझ पाया कि क्या वो मेरी मंशा या इरादा वो लिफाफा देखकर समझ गयी थी और उस गंभीर माहौल को हल्का करने के लिए और मेरी हृदय गति, जो कि संभवतः 130-140 के बीच रही होगी, को सामान्य करने के लिए उस तरह से बच्चों की तरह मुझे छेड़ रही थी या वो ऐसे ही था। निशा की समझ को देखते हुए पहली वाली संभावना सत्य प्रतीत हो रही थी।
जो भी हो, मैं इससे ज्यादा और कुछ कह ही नहीं पाया कि ‘‘घर जाकर खोलना ना, प्लीज।’’ उसने मुझ पर रहम खाते हुए हंसकर बोला – ‘‘ओके बाबा, चलो बाॅय, कल मिलती हूं।’’
मैं उसे ओझल होने तक अपलक देखता रहा, तीर कमान से निकल चुका था और अब मैं एकदम विचारशून्य या दिग्भ्रमित-सा खड़ा था। अब मैं कुछ नहीं कर सकता था। आखिर ये भी मेरे लिए उतना आसान नहीं था। उस दिन मैं एक बात और समझा कि जब हम कोई काम अनजाने में करते हैं, तो हम सामान्य होते हैं, पर जब हम जानबूझ कर कुछ करते हैं, तो उसके परिणाम को लेकर हम बहुत अधीर होते हैं। उसी तरह जब मैं पहले निशा से मिलता था, मैं सामान्य था, मगर अब सब बदल चुका था।
उस दिन उसने भी मुझे ओझल होने तक दो बार पलट कर देखा, शायद मेरे बदले हाव-भाव को समझने की कोशिश कर रही होगी। मैं धीरे-धीरे अपने घर की ओर चल पड़ा। अजीबोगरीब ख्याल मेरे दिमाग में बार-बार दस्तक दे रहे थे। एकबारगी विचार आया कि वो बड़े गुस्से में आयी और मेरे गाल पर एक जोरदार तमाचा मारा और मेरी चिट्ठी को फाड़कर उसके टुकड़े मेरे मुंह पर मारकर चली गयी। ‘ऐसा नहीं हो सकता’ मैं सोचता। फिर सोचता कि वो हंसते हुए आयी और मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर, उन्हें चूमकर बोली ‘तुम तो बड़े छुपे रुस्तम निकले, निशीथ। मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतने रोमान्टिक भी हो सकते हो। पर इतना सा कहने में इतनी देर, पागल हो तुम एकदम।’ …और फिर मैं खुशी से पागल हो जाता।
ऐसे न जाने कितने ही ख्याल मेरे दिमाग में आते रहे और ख्यालों के इस अंतर्प्रवाह के साथ मैं घर पहुंच गया। मां सोफे पर बैठी चाय पी रही थी। एक और प्याला चाय वहां मेज पर रखी हुई थी। उसके ऊपर पड़ी हुई चॉकलेट रंग की मलाई उस पर बीते इंतजार की कहानी खुद ही बयां कर रही थी। शायद उसे मेरा ही इंतजार था। मां ने मुझे अपने पास बैठने का इशारा किया। मैं अनमना-सा, गुमसुम-सा उनके पास बैठ गया और चाय हाथ में ले ली। चाय मुझसे पी ही नहीं जा रही थी। मैं तो उस वक्त कहीं और ही था।
…तभी मां बोली – ‘‘कहां हो, पीते क्यूं नहीं’’ फिर थोड़ा छेड़ते हुए बोली – ‘‘प्लीज, डोंट टैल अस योर इन लव।’’ मैं चैंक गया, “आपको कैसे पता ?” अचानक मुंह से निकल गया। ये घबराहट में की हुई एक गलती थी। मां ने मुस्कुराकर मेरी तरफ देखके कहा, “भई, हमें पहले से बता देना, ऐसा न हो कि हम कहीं पक्का कर दें, बी वैरी फ्रैंक, वी आर प्रोग्रेसिव एण्ड विल गो विद योर च्वाइस।”
मैं चुप था। और फिर चाय का प्याला हाथ में लेकर सीढ़ी चढ़ता हुआ बोला, “मां, कल बताऊंगा।” मैं छत पर निकल गया और तब से मैं छत पर ही था। मां सो चुकी थी, पर मेरी आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था, एक अजीब-सी बेचैनी थी, आज का सारा दिन बहुत ऊहापोह भरा था, बहुत अन्तद्र्वन्द्व से गुजरा था। बाहर तो कोहरा था ही, मेरे मन में भी आज घना कोहरा था। कुछ भी स्पष्ट ना दीखता था, फालतू की अटकलें लगाता रहा, सोचता रहा कि इस समय वो मेरे बारे में क्या सोच रही होगी। थोड़ी बढ़ी हुई हृदय गति के साथ बार-बार मेरा पत्र पढ़ रही होगी, जैसे पिछली बार में कुछ रह तो नहीं गया।
अगले दिन ट्रीट नाम के रेस्टोरेंट में शाम 5.30 बजे का मिलने को मैंने उसे लिखा। एक तो इसलिए कि इस समय यहां भीड़भाड़ नहीं होती, दूसरा ये कि सेल्फ सर्विस है तो बार-बार कोई आपको ऑर्डर के लिए तंग नहीं करता है और कम से कम आप आराम से बैठ कर बात कर सकते हैं।
मेरी घबराहट इसी बात से समझी जा सकती थी कि बहुत नियंत्रण करने के बावजूद मैं 4.00 बजे से ही रेस्टोरेंट के बाहर बेचैनी से टहल रहा था। आज भी पिछले 2 दिनों की तरह धूप के दर्शन नहीं हुए थे, सो बहुत ठंड थी, ये और बात है कि जब आप अंदर से घबराये हुए होते हैं तो गर्मी में भी आपको कंपकंपी महसूस होती है और सभी ने बिना किसी अपवाद के इस कंपकंपी को कभी ना कभी महसूस किया होगा। उसका जवाब क्या होगा, मुझे इस बात की चिंता थोड़ी कम थी, पर स्वीकार्य कैसा होगा, ये जानने की उत्सुकता बहुत थी। उसका जवाब क्या होगा, शायद हमारी 18-20 साल पुरानी करीबी दोस्ती को देखते हुए, इसका अंदाजा लगाना थोड़ा आसान था। कुछ देर बाहर घूमने के बाद मैं रेस्टोरेंट के अंदर एक कॉफी लेकर अपने चिर-परिचित टेबल पर जाकर जम गया। धीरे-धीरे कॉफी के सिप लेते हुए सोच रहा था कि आज निशा क्या पहन के आयेगी, उदास आयेगी या खुश होगी, आयेगी भी या नहीं। आशानुरूप वहां इक्के-दुक्के लोग ही थे।
आखिर 5.20 बजे वो रेस्टोरेंट में आई, मेरी आंखें दरवाजे पर ही थी। क्रीम कलर का सूट, अफगानी सलवार, लंबा दुपट्टा, गोल्डन रंग की मोजरी और ऊपर से काले रंग का कार्डिगन पहने, आज निशा रोज से कई गुना सुन्दर लग रही थी। जानबूझ के निकाली गई एक छोटी सी लट बार-बार उसके श्वेत वर्ण गालों को स्पर्श करने का असफल प्रयास कर रही थी, जिसको निशा ना चाहते हुए भी अपनी उंगलियों में फंसा कर कान के पीछे करने में लगी थी। काफी सामान्य लग रही थी। उसने मुझे देखा और मेरे सामने वाली कुर्सी पर आकर बैठ गयी। बोली, “तुम कब आये, कब से बैठे हो ?”
“बस अभी-अभी आया।” मैंने झूठ बोला था। “तुम क्या लोगी ?” मैंने पूछा। “सेम ऐज यू” निशा के इस उत्तर के साथ ही शायद सारी औपचारिकताएं समाप्त हो गयी थीं। दोनों शान्त थे। शायद एक-दूसरे से पहल की आस लगाये थे।
कुछ देर बाद उसने मेरे हाव-भाव देखते हुए चुप्पी तोड़ी “निशीथ, मैं कुछ दिनों से तुम्हें समझ रही थी, लेकिन ना समझने का अभिनय कर रही थी। इस पल को टालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन ये तो जैसे होना ही था। तुम बहुत अच्छे हो, शायद मेरे लिए सबसे अच्छे, तुम ही बताओ कि तुम्हारे साथ मैंने अपनी जिन्दगी के सबसे ज्यादा साल बिताये हैं, मेरे माता-पिता के अलावा, मेरे लिए तो तुम ही सबसे बेहतर हुए ना, तुम मुझसे प्यार करते हो और मैं भी तुम्हें बहुत पसन्द करती हूं। कैसे कहूं…” उसका गला रुंध रहा था “…लेकिन निशीथ, हम पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होते हैं, हम परिवार से जुड़े होते हैं, हम समाज से जुड़े होते हैं और सबकी हमसे कुछ उम्मीदें होती हैं और जहां उम्मीदें होती हैं, वहां हमारी कुछ जिम्मेदारियां भी होती हैं। मेरे मम्मी-पापा ने मुझे अपने गुरूर की तरह पाला है, इतना विश्वास किया है जितना शायद मेरा भी खुद पर नहीं है। मैंने भी हमेशा उस विश्वास को बनाये रखने के लिए, कायम रखने की, अपनी सामथ्र्य से कई गुना ज्यादा मेहनत की है।”
वो बोलती जा रही थी “निशीथ, मैं तुम्हें हमेशा एक ऐसे साथी के रूप में देखना चाहती हूं जो हमेशा एक दोस्त की तरह मुझे संभाले, मुझे बल दे और जो हर परिस्थिति में मेरे साथ रहे, मेरा साथ निभाये… लेकिन क्या पति-पत्नी का रिश्ता ही सबसे जरूरी है, क्या दोस्ती का रिश्ता इस रिश्ते से बड़ा नहीं होता है। हां निशीथ, दोस्ती का रिश्ता ही सबसे बड़ा रिश्ता होता है, मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मुझे तुम जैसा दोस्त मिला है और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती… मुझे डर है कि अगर मेरे घरवालों को इस बात का पता चला तो उनका भरोसा मुझ पर से हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा, हमारे पिछले बीते हुए इतने स्वर्णिम साल संदेह के घेरे में आ जायेंगे, हमारे रिश्ते की मर्यादा टूट जायेगी और कोई भी हमारे इस अग्नि की तरह पवित्र रिश्ते पर सवाल खड़ा करे तो हमारे लिए और हमारे इस रिश्ते के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा… नहीं, हम ऐसा नहीं होने देंगे, हम अपने बीच यही रिश्ता रखेंगे, वादा करो निशीथ…’’ अब हम दोनों रो रहे थे… मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था… दिल फटा सा जा रहा था…।
थोड़ी देर के बाद भावनाओं का ये सैलाब थोड़ा-सा मद्धिम हुआ… “तुम बुरा तो नहीं माने” वो बोली। मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर थोड़ा सा ही मुस्कुरा सका। “निशीथ, मैंने अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार अपने माता-पिता को दे रखा है।”
“…एक वादा करोगे मुझसे” उसने पूछा। मैंने सहमति में सिर हिलाया। “तुम मुझसे पहले की तरह ही मिलते रहोगे, पहले की ही तरह मेरा साथ निभाओगे, मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ोगे, अपनी कोई बात कभी भी मुझसे नहीं छुपाओगे और मैं भी तुमसे ये वादा करती हूं कि तुम मुझे हमेशा अपने करीब पाओगे” वो मुझे हल्का महसूस करवाने के लिए बोल रही थी।
मेरी धड़कनें अब लगभग सामान्य हो रही थीं। उसने मेरा हाथ अपने हाथों में ले रखा था। अब मुझे कोई घबराहट नहीं थी। आंखों में बसा कोहरा अब छंट चुका था। शायद मेरे लिए रिश्ते के परिवर्तन के कारण… मैं अब सबसे बड़े रिश्ते को महसूस कर रहा था, जहां सिर्फ और सिर्फ मौलिकता थी, भोलापन था और अब एक नयी ताजगी हर तरफ थी। सबसे बड़ा रिश्ता…
कॉफी पी ही नहीं गयी थी, आंसू मोती बनकर टेबल पर चमक रहे थे।
हम दोनों साथ-साथ रेस्टोरेंट के बाहर आये। मैंने बेमन से घड़ी की तरफ देखा, 7.30 बजे थे, सड़कों पर कोहरा पसर रहा था। मेरे दिल में जिस नये रिश्ते की कल्पना साकार रूप लेने लगी थी, घने कोहरे में कहीं खो गयी थी।
अब एक नये रिश्ते का उत्स चारो ओर था। अचानक उसने मुझे छेड़ा, मैं हंसा, लेकिन आंसू अभी तक थमे नहीं थे…।

पता : बी-1604, एआईजी पार्क ऐवनू, गौर सिटी-1, ग्रेटर नॉएडा वेस्ट, गौतमबुद्ध नगर – 201301

2 thoughts on “सबसे बड़ा रिश्ता

  1. सबसे बड़ा रिश्ता-कहानी दिल की गहराइयों में उतर गई। प्यार और दोस्ती के बीच झूलती भावनाओं से भरी कहानी!बधाई ।

    1. bahut bahut dhanyavaad Sudha ji, aapki shaleenta aur saadgi ko mera pranaam.
      ek aur baat… meri mataji ka bhi naam Sudha hi hai.
      aapki kahaani mein bhi wo judaav shuru se ant tak maine mehsoos kiya… behad khoobsurat.

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