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प्रयास

सुधा पाण्डेय

मुश्किल समय था। हर हाल में जीवन को बचाना था। शिवम अपने कठिन समय से कैसे उबरे, यही सोच रहा था।
रोजी-रोटी के लिए मेहनत करता था, किन्तु मेहनत उसके काम न आया। विकट समय हर लोगों के लिए था। पहले जो भी हर दिन की कमाई होती, उसी से जीवन बसर होता था। चैन की नींद सोता था। अचानक बीमारी का देश में आना… सबों को बौखला दिया। जीने और मरने की समस्या सामने आ गई थी।
शिवम प्रातः निकलता और सांयकाल वापस आता। उसकी यह रोज की दिनचर्या हो गई थी। उम्र कम थी। माता-पिता कमाने लायक नहीं थे। बच्चे के कंधे पर जिम्मेदारियां थीं। आज शिवम ने ठान लिया था। कुछ न कुछ अवश्य करूंगा वरना लौटकर घर न आऊंगा। एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगा। अचानक उसे एक आइडिया आया। क्यों न सब्जी बेचकर छोटे काम से शुरू करूं।
अब वह मंडी से उधार सब्जी लाता और शाम वापसी के समय मंडी वाले को उधार का पैसा देता। जो पैसा बचता, उससे बसर करता।
समय ने करवट लिया। उसे अच्छे काम का अवसर मिला। आगे-आगे बढ़ना कैसे है, साइकिल की रफ्तार की तरह। आगे बढ़ चला, लक्ष्य तक है पहुंचना।

दहेज

मां… मां की आवाज आई। मां थोड़ा रुकी। फिर से आवाज गूंजी। ‘‘मां, नरेश से दीदी की शादी क्यों नहीं कर देती ?’’
मां ने ख़ुशबू को बोला, ‘‘शांत रहो ! उनको दहेज की लालच है। रहते हैं पड़ोस में, लेकिन हर दिन नरेश की शादी का लिस्ट बनाते हैं।’’
ख़ुशबू ने फिर कहा, ‘‘मां, नरेश बहुत अच्छा इंसान है। सीमा की शादी की बात बढ़ाओ।’’
जिद के आगे पिता ने अपनी इज्जत ताक पर रख दिया और बेटी के लिए अपने मित्र के घर गए।
‘‘यहां नरेश की मां का कहना माना जाता है। पूरी कमाई हाथ में क्या मिलती है, लालच बढ़ता गया। अब तो आदत बन गई। दूसरे का पैसा भी अपने पॉकेट में ही उसे अच्छा लगता है।’’
यह बात सुन पिता वापस दुखी आ गए। सोचने लगे, बच्चों को पढ़ाया-लिखाया। पैसे तो खत्म हो गए। बेटे की तरह ही मैंने बेटी को भी मान-सम्मान दिया।
पीछे से सीमा (बड़ी बेटी) आई। उसने पिता से कहा, ‘‘अगर आपने लड़कों की तरह पाला है तो इस दहेज के चक्कर में न रहें। मैं लड़कों से भी अच्छा करके दिखाऊंगी।’’
कुछ दिन बाद … नरेश अपनी नौकरी में था। सीमा सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर समाज में स्थान बना ली।
अब लड़के वालों के तांते लग गए। पिता आश्चर्य से देख रहे हैं। ‘‘अरे …अरे …ये क्या…!’’

जज्बात

अम्मा हस्तरेखा में व्यस्त है। ‘‘अम्मा, क्या देख रही हो ?’’ पोते ने पूछ लिया।
‘‘बेटा, अपना भविष्य देख रही हूं। मेरी यात्रा के और कितने दिन बचे हैं।’’
गुड्डू (पोता) – ‘‘अम्मा छोटी-छोटी बातों में क्यों लगी हो।’’ दादी अम्मा का ध्यान अपनी ओर खींचा। ‘‘अगर ईश्वर का नाम लो, तो मुक्ति भी मिल जाएगी।’’
दादी अम्मा अपना पुराना इतिहास लेकर बैठ गई। घर-गृहस्थी से रामायण तक चली आई। कहा – ‘‘हमें याद नहीं रहता है।’’
शरीर की पूरी शक्ति समाप्त हो गई है। चेहरे पर झुर्रियों की लकीरें दिख रही हैं, लेकिन आवाज बुलंद है। जब वाणी चलती, तो चलती ही रहती।
‘‘मुझे अभी और जीना है और बहुत काम करना है। सामाज, परिवार और देश के लिए।’’

लक्ष्य

यस और शशांक दोनों में गहरी मित्रता थी। एक अगर खेलता, तो दूसरा भी घर से बाहर आ जाता। इतनी मित्रता कि लगता था दोनों एक ही परिवार के हैं। साथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना, सिर्फ रात अपने-अपने घरों में बितता था।
बचपन तो बीत गया, अब लक्ष्य प्राप्ति का समय आ चुका था। पढ़ाई तो साथ हुई, लेकिन एक मेहनती और एक थोड़ा आलसी था। एक ने ठान लिया, मुझे कुछ अच्छा करना है, क्यों न जी तोड़ मेहनत करना पड़े। यश अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लग गया। शशांक बिंदास था।
दोनों के सोच में जमीन आसमान का अंतर था। शशांक कभी कहता मेरिन में जाना है, कभी पायलट, कभी इंजीनियर, तो कभी बिजनेसमैन। वह अपना लक्ष्य निश्चित नहीं कर पा रहा था।
समय बीतता गया। प्लस टू की पढ़ाई समाप्त कर यश पहले आई.आई.टी. की पढ़ाई समाप्त कर अमेरिका एमटेक की पढ़ाई करने चला गया। पढ़ाई समाप्त कर नौकरी में आ गया। अमेरिका में ही नौकरी करने लगा। ग्रीन कार्ड लेकर वहीं बस गया।
शशांक अपनी जिंदगी में अभी तक लक्ष्य को पाने के लिए इधर-उधर भटक रहा था। अंत में हारकर एक छोटी-सी दुकान खोल बिजनस में आना पड़ा। लेकिन, अपनी जिंदगी से ख़ुश नहीं था। यश ने जैसा कहा, वैसा किया।
बिना लक्ष्य के जिंदगी सही दिशा में नहीं बढ़ सकती। यश की जैसी कथनी, वैसी करनी थी। शशांक लक्ष्यविहीन था।स और शशांक दोनों में गहरी मित्रता थी। एक अगर खेलता, तो दूसरा भी घर से बाहर आ जाता। इतनी मित्रता कि लगता था दोनों एक ही परिवार के हैं। साथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना, सिर्फ रात अपने-अपने घरों में बितता था।
बचपन तो बीत गया, अब लक्ष्य प्राप्ति का समय आ चुका था। पढ़ाई तो साथ हुई, लेकिन एक मेहनती और एक थोड़ा आलसी था। एक ने ठान लिया, मुझे कुछ अच्छा करना है, क्यों न जी तोड़ मेहनत करना पड़े। यश अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लग गया। शशांक बिंदास था।
दोनों के सोच में जमीन आसमान का अंतर था। शशांक कभी कहता मेरिन में जाना है, कभी पायलट, कभी इंजीनियर, तो कभी बिजनेसमैन। वह अपना लक्ष्य निश्चित नहीं कर पा रहा था।
समय बीतता गया। प्लस टू की पढ़ाई समाप्त कर यश पहले आई.आई.टी. की पढ़ाई समाप्त कर अमेरिका एमटेक की पढ़ाई करने चला गया। पढ़ाई समाप्त कर नौकरी में आ गया। अमेरिका में ही नौकरी करने लगा। ग्रीन कार्ड लेकर वहीं बस गया।
शशांक अपनी जिंदगी में अभी तक लक्ष्य को पाने के लिए इधर-उधर भटक रहा था। अंत में हारकर एक छोटी-सी दुकान खोल बिजनस में आना पड़ा। लेकिन, अपनी जिंदगी से ख़ुश नहीं था। यश ने जैसा कहा, वैसा किया।
बिना लक्ष्य के जिंदगी सही दिशा में नहीं बढ़ सकती। यश की जैसी कथनी, वैसी करनी थी। शशांक लक्ष्यविहीन था।

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