Naye Pallav

Publisher

वापसी

रतिकान्त पाठक ‘बाबा’

रतिनाथ बाबू ने कमरे में जमा सामान पर नजर दौड़ाई, दो बक्सा, बाल्टी, डोलची एवं एक झोला – ‘‘यह डिब्बा कैसा है ?’’ राजकुमार से उन्होंने पूछा।
राजकुमार बिस्तर बाँधता हुआ कुछ अचरज, कुछ दुःख एवं कुछ लज्जा से बोला – ‘‘बगलवाली चाची ने कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा है, ‘बाबा को काफी पसंद है। अब कहाँ मौका मिलेगा बाबा को खिलाने-पिलाने का’।’’
घर लौटने की खुशी में भी रतिनाथ बाबू ने एक विछोह का अनुभव किया, जैसे एक परिचित स्नेह, आदर व सहज संसार से नाता टूट रहा हो।
‘‘कभी-कभी हमलोगों का भी ख्याल रखियेगा।’’ राजकुमार बिस्तर में रस्सी बाँधते हुए बोला।
‘‘कभी कुछ जरूरत हो तो लिखना। हाँ, इस बार अगस्त तक शादी कर लो।’’
राजकुमार ने अंगोछी से आँख पोछते हुए कहा, ‘‘जब आपलोग सहारा न देंगे तो कौन देगा ? आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।’’
बाबा चलने को तैयार थे। अस्पताल क्वार्टर का वह कमरा, जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताये थे, सामान हट जाने से वीभत्स-सा लग रहा था। क्वार्टर के पीछे रोपे गए सब्जी और फूल के पौधे तो बगल के लोग ले गए थे। वहाँ की मिट्टी भी उखड़ी हुई थी, परन्तु पत्नी और बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह विछोह एक दुर्बल चित्र की तरह उठकर विलीन हो गया।
बाबा बहुत खुश थे। अड़तीस साल नौकरी के बाद सेवानिवृत्त होकर घर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय इन्होंने अकेले रहकर काटा था। उन अकेले पलों में उन्होंने इसी समय की कल्पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के साथ वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि में उनका जीवन सफल कहा जाता था। इन्होंने अपने गाँव के समीप के शहर में एक छोटा मकान बनवा लिया था। बड़े लड़के अंकित और छोटे संजीत वहीं रहकर पढ़ रहे थे। दो लड़की जिनकी शादी उन्होंने पटना में ही कर दी थी, अपने परिवार में प्रसन्न थीं। बड़े लड़के की शादी भी इसी कालान्तर में हो गयी थी। उन्होंने बच्चों की पढ़ाई में अपनी औकात भर कभी कोताही नहीं की।
बाबा स्वभाव से बहुत ही स्नेही थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ रहता, तो ड्यूटी से लौटकर बच्चों से हँसते-बोलते, पत्नी से मनोविनोद करते। परन्तु उनलोगों के चले जाने के बाद गहन सूनापन हो जाता, खाली क्षणों में घर में रहा न जाता, तब एक आसरा राजकुमार ही था, जो गर्मी के दिनों में भी ड्यूटी से लौटने पर आग जलाकर गरम-गरम रोटियाँ सेंक कर खिलाता। पत्नी रहती तो जब थके-हारे लौटते, तो आहट पाकर वह बाहर निकल जाती और सलज्ज मुस्कुरा उठती। बाबा को तब हर बात याद आती और उदास हो उठते। अब कितने वर्षों बाद वह फिर उसी स्नेह और आदर के बीच रहने जा रहे थे।
पैंट और शर्ट खोलकर चारपाई पर रखे एवं जूता-मोजा खोलकर नीचे खिसका दिए। उस दिन रविवार था। सभी बच्चे घर पर ही थे और साथ ही नाश्ता कर रहे थे। रह-रहकर किलकारियों की आवाज आ रही थी। बाबा के चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान आ गई और उसी तरह मुस्कुराते, बिना खाँसे अंदर चले आये तो उन्होंने देखा, छोटा संजीत कमर पर हाथ रखकर रात्रि में देखे गए किसी फिल्म के अंश का नकल कर रहा था। सभी हँस-हँसकर परेशान हो रहे थे। अंकित की बहू अपने तन-बदन, घूँघट या आँचल का होश न कर बहुत हँस रही थी। पिताजी को देख संजीत धप्प से बैठ गया और चाय का प्याला मुँह में लगा बैठा। बहू को होश आया तो उसने झट से माथा ढक लिया। केवल अंकित का शरीर रह-रहकर हँसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।
बाबा ने मुस्कुराते हुए उनलोगों को देखा, फिर कहा, ‘‘संगीत की नकल हो रही है।’’
‘‘कुछ नहीं…।’’ सकपकाते हुए वह बोला।
बाबा ने चाहा कि हम इस मनोविनोद में भाग लें, पर उनके आते ही सब कुंठित हो गए, इससे उनके मन में थोड़ी खिन्नता हुई। बैठते हुए बोले, ‘‘शीबू, मुझे भी चाय देना। तुम्हारी मालकिन की पूजा अभी चल रही है क्या ?’’
शीबू ने मालकिन की कोठरी में झाँक कर देखा और ‘आती ही होगी’ कह चाय छानने लगा। बहू चुपचाप पहले ही चली गयी थी। केवल शीबू मालिक के लिहाज से गेट पर खड़ा रहा। एक घूँट चाय पीकर बाबा ने कहा, ‘‘शीबू, चाय फीकी है।’’
‘‘लाइये चीनी और डाल दूँ।’’ शीबू बोला।
‘‘रहने दो, जब तुम्हारी मालकिन पूजा से निकलेगी, तब पी लूँगा।’’
थोड़ी ही देर में पत्नी हाथ में अर्ध्य का लोटा लिए निकली और अस्पष्ट स्तुति करते हुए तुलसी में जल डाल दिया। उन्हें देखते ही शीबू भी बाहर निकल गया। पत्नी ने आकर इन्हें देखा और कहा, ‘‘आप अकेले ही बैठे हैं। ये लोग कहाँ गए ?’’
रतिनाथ बाबू के मन में एक कसक उठी, उन्होंने कहा – ‘‘अपने-अपने काम से गए हैं। आखिर बच्चे ही हैं न।’’

पत्नी पूजा के बाद चौके में आकर बैठ गई और नाक भौं सिकोड़ते चारो तरफ जूठे बर्त्तनों को देख बोली, ‘‘सारे जूठे बर्त्तन पड़े हैं, कितनी गंदगी रसोई घर में है, कोई देखने वाला नहीं है। इस घर में कोई धरम-करम नहीं है। पूजा कर लिए तो चौका में घुसो।’’ …फिर इन्होंने शीबू को पुकारा और उत्तर न मिलने पर ऊँचे स्वर में अपने पति की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘बहू ने भेजा होगा बाजार।’’
रतिनाथ बाबू चाय और जलपान का इन्तजार करते रहे। अचानक ही उन्हें राजकुमार का ख्याल आया कि आठ बजे ड्यूटी जाने से पहले गरम-गरम पराठा और परवल की भुजिया या चूड़ा-दही… केला चीनी और फिर चाय मिलना तय था। चाय काँच के गिलास में लबालब भरा हुआ और ‘लीफ’ का महक बिखेरता हुआ। भले ही दुनियाँ इधर से उधर हो जाए, उसने इस काम में कभी लेट नहीं किया। क्या मजाल जो उनको कभी कुछ करना पड़ जाए।
पत्नी की शिकायत सुन उनके विचारों को आधात लगा। वह कह रही थीं, ‘‘सारा दिन इसी खींच-खींच में निकल जाता है। इस गृहस्थी में माथा पीटते-पीटते उमर बीत गयी। कोई जरा हाथ भी नहीं बँटाता।’’
‘‘बहू क्या करती रहती है ?’’ उन्होंने पूछा लिया।
‘‘पड़ी रहती है हमेशा … कभी इधर दर्द, कभी उधर दर्द, सारा दिन दर्द का बहाना चलता रहता है।’’
‘‘शीबू… शीबू !’’
शीबू बहू के कमरा से निकलते हुए बोला, ‘‘जी मालकिन !’’
‘‘शीबू, रात का खाना तुम बनाओगे और मालकिन थोड़ा बहुत मदद कर देगी। …और दिन का खाना बहू बनाएगी।’’
वे नाश्ता कर बैठक में आ गए। घर छोटा था और ऐसी व्यवस्था कर दी गई थी कि रतिनाथ बाबू के लिए कोई स्थान नहीं बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए अस्थायी व्यवस्था कर दी जाती है, उसी तरह बैठक में ही कुर्सी और दीवान से सटे एक छोटी-सी खटिया लगा दी गई थी।
रतिनाथ बाबू उसी में पड़े-पड़े स्थायित्व का अनुभव करने लगे और किसी स्टेशन के समीप रहने का ख्याल तब आता, जब रेलगाड़ी आती और कुछ देर रूककर किसी दूसरे लक्ष्य की ओर चली जाती।
घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अपना सारा प्रबंध कर लिया। पत्नी के पास एक छोटा बक्सा अवश्य था, परंतु वह किसी अजायबघर से कम नहीं। एक तरफ अचारों का बोइयाम, दाल, चावल, गेहूँ का कनस्तर, घी के डिब्बे, चीनी, पुरानी रजाइयाँ और कंबलें एवं पूरे घर के गरम कपड़ों को रखने के लिए एक टीन का बक्सा, उसके बगल में अलगनी, जिस पर घर के सारे कपड़े … नया, पुराना, फटा सब। इसी के बीच एक छोटी-सी खटिया ! यह थी घर की मालकिन के लिए आराम की जगह। दूसरा कमरा अंकित और बहू के लिए। एक कमरा संजीत अपने कब्जे में किए हुए था। बस ! एक बैठक ही था जिसमें रतिनाथ बाबू को जगह मिली, फिर शिबू भी तो इसी में सोता था। इनके आने से पहले इसमें अंकित के ससुराल से मिला सोफा सेट नीली गद्दियाँ लगी हुई। इसी बैठक में एक तरफ अपनी खटिया पर पड़े-पड़े वे पुरानी स्मृतियों में चले गए।
सात भाई एवं चार बहन का लंबा परिवार, जिसे पिताजी अपनी अल्प आय से किसी तरह पारिवारिक गाड़ी को खींचते रहे। लक्ष्मी रूपा माँ ही एक ऐसी थी, जो सदैव भूखे रहकर सारे परिवार को खिलाती रही और कभी अपने मुख-मण्डल पर मलिनता न आने दी, ताकि लोग न समझ सकें। वह पढ़़ी-लिखी तो कम थी, पर ऐसी धैर्यवान महिला जो संसार में विरले ही मिलती है। उन्होंने पूरे जीवन में पिताजी को कभी अभाव का अनुभव नहीं होने दिया।
काल क्रम से चारो बहन की शादी हुई। घर का बड़ा लड़का होने के नाते आरंभ से ही अधिक भार रतिनाथ बाबू को ही उठाना पड़ा। सबों को पढ़ाने की व्यवस्था, बहनों की शादी, मुण्डन, जनेऊ में आगे रहकर कार्य का संचालन करना पड़ता। फर्ज के मुताबिक जो उन्हें करना चाहिए था, करते रहे। इसी बीच पिताजी का साया उनलोगों पर से उठ गया, लेकिन सभी भाइयों का सहयोग कमोबेश इस गाड़ी को खींच रहा है। आखिर माँ का ही तो आशीर्वाद है।
पुरानी घटनाओं का चित्र फिल्म की तरह एक-एक कर आता और मिटता रहा। अगर पत्नी बीच में नहीं आती तो रील कुछ और ही लंबा होता। जब कभी पत्नी को लंबी शिकायत करनी होती, तो वह चटाई लेकर बैठक में आ जाती। आज भी आ गई और घर-गृहस्थी की बात छेड़ दी और रुस्ट-स्वर में कहने लगी, ‘‘जिन्दगी भर आपने ठगा। कभी मेरे मन की आपने नहीं की, जब भी आपसे कहा, तो अपने इस भाई को पढ़ लेने दो… तो इसकी नौकरी लग जाने दो … सब वही लोग कर देंगे। मेरे सभी भाई लक्ष्मण और भरत की तरह हैं। सबको तुमने माँ की तरह पाला है, अपना दूध भी पिलाया है। क्या यह सब भूल जायेगा … कभी नहीं ? लेकिन आज क्या हो रहा है ? कपड़ों और जेवर के लिए वो सदा लालायित ही रहें और अब बुढ़ापे में भोजन का भी अभाव झेल रहे हैं। दोनों बेटे सुनने वाले नहीं। उनसे कुछ कहते तो वे कह उठते कि मेरे लिए क्या किया आपने ? मेरे पास तो जहर खाने को भी पैसे नहीं ?’’
यह सुनकर रतिनाथ बाबू ने पत्नी को सब्र से काम लेने की सलाह दी। ‘‘जब हाथ में कम पैसे रहेंगे तो खर्चा भी कम ही होगा। किसी भाई से कुछ माँगना कहाँ तक उचित होगा, ये सोचना तो उनलोगों का काम है न ! सभी खर्चा तो वाजिब है, किसका पेट काटूँ ? यही जोड़ गाँठ करते हुए तो तुम बूढ़ी हो गयी, न मन का पहना न ओढ़ा।’’
रतिनाथ बाबू ने कातर दृष्टि से पत्नी की ओर देखा। उनसे अपनी स्थिति छिपी नहीं थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करती तो स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव था। अगर उनसे राय-विचार किया जाता कि इसका प्रबंध कैसे हो, तो चिंता कम संतोष अधिक होता, लेकिन यहाँ तो केवल शिकायत की जाती कि परिवार की सभी परेशानियों की जड़ वही हैं।
‘‘तुम्हें किस बात की कमी है ? घर में लड़के हैं, बहू है, बच्चे हैं। सिर्फ रुपये से आदमी अमीर नहीं होता।’’ यह कहने के साथ ही उन्होंने अनुभव किया कि यह उनकी आंतरिक अभिव्यक्ति थी, ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकती। हाँ, बड़ा दुख है बहू से ! आज रसोई करने गई… देखें क्या होता है, यह कहकर पत्नी ने आँखें मूँद ली और सो गई। ये बैठे पत्नी को देखते रह गए और अनायास सोचने लगे – क्या यही थी उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने संपूर्ण जीवन काट दिया था। उन्हें ऐसा लगा कि बहू, लावण्यमयी युवती, जीवन के राह में कहीं खो गई है। उसकी जगह जो स्त्री है, वह उनके मन और भावों से नितान्त अपरिचित है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी कृशकाय बेडौल और कुरूप लग रही थी। चेहरा श्रीहीन और रूखा था। शायद अभाव के थपेड़ों ने ऐसा बनाकर रख दिया। देर तक निःसंज्ञ दृष्टि से पत्नी को देखते रहे और फिर लेटकर छत की ओर देखने लगे।
रात का भोजन शीबू ने बनाया, कौर निगला न जा सका। रतिनाथ बाबू तो चुपचाप खा लिए, परन्तु अंकित एक कौर भी न खाया। ‘‘तुझे किसने कहा था खाना बनाने के लिए ?’’ वह चिल्लाया।
‘‘बाबूजी ने !’’
‘‘पापा को तो बैठे-बैठे यही सब सूझता है। माँ बनाती थी तो कितना अच्छा बनता था।’’ यह कहकर रूठकर चला गया। माँ ने फिर उठकर अंकित को मनाया … अपने हाथों से कुछ बनाकर खिलाया।
शाम को रोज रतिनाथ बाबू टहलने जाते थे। लौटकर आए तो पत्नी ने पूछा, ‘‘संजीत को क्या कह दिया है कि शाम से ही रूठा पड़ा है।’’
‘‘मैंने… मैंने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन पढ़ने के लिए अवश्य कहा था। खैर ! कहो खा लेगा, अब आगे से पढ़ने के लिए भी नहीं कहूँगा।’’
एक दिन पत्नी ने सूचित किया कि अंकित अलग रहने की सोच रहा है।
‘‘क्यों ?’’ चकित होकर पूछा।
पत्नी ने सही उत्तर नहीं दिया।
अंकित और उसकी बहू की लंबी शिकायतें थीं। उनका कहना था कि पापाजी हर समय बैठक में ही पड़े रहते हैं। कोई आने-जाने वाला हो तो बैठाने की भी जगह नहीं। अंकित को अब भी छोटा समझ डाँट देते हैं। बहू को काम करना पड़ना था और सास जबतब उसके फूहड़पन पर ताने देती रहती थी।
‘‘हमारे आने से पहले भी कभी ऐसी बातें हुई थी ?’’ रतिनाथ बाबू ने पूछा।
‘‘नहीं…’’ पत्नी ने कहा। ‘‘पहले अंकित घर का मालिक बनकर रहता था। बहू को कोई रोक-टोक नहीं थी। अंकित के दोस्तों का प्रायः यहीं अड्डा रहता था और अंदर से चाय-नाश्ता तैयार होकर आता रहता था।’’
रतिनाथ बाबू ने कहा, ‘‘अंकित को जल्दबाजी की जरूरत नहीं।’’
अगले दिन सुबह जब घूमकर लौटे, उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं है। अंदर आकर पूछने ही वाले थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अंदर बैठी पत्नी पर गई। उन्होंने यह पूछने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झांक कर देखा, तो अचार के बोइयामों, रजाइयों और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पायी। उन्होंने अपना कोट उतारा और वहीं दीवार पर टाँगने को नजर दौड़ाई, परन्तु कहीं जगह न मिलने पर उसे मोड़कर चारपाई पर ही रख दिया। कुछ खाये बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, वे आखिर बूढ़ा ही थे … सुबह-शाम कुछ दूर टहलने निकल जाते, पर आते-आते थक जाते थे।
अनायास ही रतिनाथ बाबू को अपने क्वार्टर का ख्याल आया था। वह छोटा लेकिन बिल्कुल खुला-खुला … सुबह-शाम सामने के शिव मंदिर में आने-जाने वालों का ताँता लगा ही रहता था। उस मंदिर से पूजा-अर्चना एवं घंटों की आवाज, भजन-कीर्तन का आह्लादित झोंका से गजब का संतोष मिलता था। वह जीवन अब उन्हें खोई निधि-सा प्रतीत होता। उन्हें लगा कि जिन्दगी द्वारा वे ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा, उसमें से उन्हें कुछ भी नहीं मिल पाया।
वे लेटे हुए घर के अंदर से आते विचित्र स्वरों को सुनते रहे। बेटा और माँ की झड़प, खुले नल की आवाज, रसोई से बर्तनों का खटपट …और अचानक ही तय कर लिया कि अब वे घर के किसी बात में दखल कभी न देंगे।
यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर में चारपाई के लिए यही जगह है तो यहीं पड़े रहेंगे। कहीं और डाल दी जाए तो वहीं चले जायेंगे। अगर बच्चों को उनके लिए कोई स्थान नहीं, तो परदेसी की तरह ही रह लेंगे।
पैसे माँगने कोई आये तो चुपचाप दे देते। कारण भी नहीं पूछते, परन्तु उन्हें सबसे बड़ा गम यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनके इस परिवर्तन में शंका नहीं किया। बेमन ही मन कितना भार ढो रहा है और दिन-ब-दिन वे असमर्थ होते जा रहे हैं। यह बेटा या बहू ने न सोचा, इससे पत्नी भी अंजान बनी रही, बल्कि घर के मामले में उनके हस्तक्षेप न करने के कारण शान्ति ही थी। कभी-कभी पत्नी कह भी उठती, ‘ठीक ही है, आप बीच में न पड़ा कीजिए। बच्चे बड़े हो गए हैं। हमारा जो कर्तव्य है कि हर महीने पेंशन के पैसे उठाकर दे दें। वो दोनों जैसा सोंचे करें, हमें क्या… दो सूखी रोटी दोनों शाम हम दोनों को मिल जाए, उसी में संतोष कर लेना है।’
रतिनाथ बाबू ने आहत होकर पत्नी को देखा और अनुभव किया कि पत्नी एवं बच्चों के लिए केवल धन-उपार्जन के निमित मात्र हैं।
जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी अपनी माँग में सिंदूर भरने की अधिकारी है, समाज में उन्हीं से उनकी अपनी प्रतिष्ठा है, ऐसे व्यक्ति के सामने दो वक्त भोजन की थाली रख देने से ही क्यों सारे कर्त्तव्यों से छुट्टी पा जाती है ? … इस समय ऐसा अनुभव हुआ कि उनकी उपस्थिति इस घर में वैसी ही है, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई। इससे उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासी में डूब गई।
इतने सोच-विचारों के बाद एक दिन बेटे और बहू की शीबू के प्रति शिकायत सुन उसे हटा देने का निश्चय किया और उसी दिन नौकर का हिसाब कर उसे घर जाने को कह दिया।
अंकित शाम में ‘शीबू… शीबू’ पुकारने लगा, इसपर बहू ने जवाब दिया, ‘‘पापाजी के नौकर से चले जाने को कहने पर वह अपने घर चला गया।’’
‘‘क्यों…?’’
‘‘पूछने पर कारण बताया कि कहते हैं खर्च बहुत है… फिर तुम दोनों की उससे शिकायत थी।’’
बहू के कहने का भाव ही कुछ इस प्रकार का था कि रतिनाथ बाबू मर्माहत से हो गए और दुखी मन से चारपाई पर पड़े रहे … रौशनी भी नहीं जलाई।
इन सब से अंजान बने रहने का भाव दिखलाते हुए अंकित माँ से कहने लगा, ‘‘माँ, तुम पापाजी से कहती क्यों नहीं कि बैठे-बैठे कुछ नहीं सूझा तो नौकर को ही हटा दिया। अगर पापाजी यह समझते हैं कि मैं साइकिल पर गेहूँ पिसवा कर ला दूँगा, तो यह असंभव है। और अगर मुझसे कहा जाएगा कि घर में झाडू़ दे दो, बर्त्तन साफ कर दो, तो हमसे यह काम भी नहीं होगा।’’ … बहू भी अपने पति के कहने पर हाँ में हाँ मिला दी। … ‘‘बूढ़े आदमी हैं, चुपचाप पड़े रहें। हर चीज में दखल नहीं दें। उन्हें और कुछ नहीं सूझा तो बहू को खाने में लगा दिया। परिणामस्वरूप महीने भर का सामान दस दिन में ही समाप्त हो गया।’’
दूसरे ही दिन रतिनाथ बाबू बाहर से घर आए और पत्नी को पुकारा। वह भींगे हाथ को आँचल से पोछते हुए आ खड़ी हुई। बिना किसी भूमिका के उन्होंने पत्नी से कहा, ‘‘मुझे कल ही पटना जाना है, जहाँ एक नौकरी पक्की हो गई है। यहाँ पर खाली बैठे रहने से चार पैसा कमाकर परिवार का पेट पाल सकूँ तो यह अच्छा ही है न। वकील साहब ने तो बहुत पहले ही कहा था, परन्तु तब मैंने ही मना कर दिया था। … मैंने सोचा था, वर्षों तुम लोगों से अलग रहने के बाद अवकाश पाकर परिवार के साथ हिल-मिल कर रहूँगा। पर यहाँ की दयनीय स्थिति, बच्चों की मक्कारी एवं नकारापन ने मुझे ऐसा सोचने एवं करने पर विवश कर दिया। … खैर ! कल जाना है, तुम भी चलोगी ?’’
इस पर पत्नी ने सकपकाकर कहा, ‘‘मैं चलूँगी तो यहाँ का क्या होगा ? इतनी बड़ी गृहस्थी है … दोनों भाइयों में प्रेम नहीं है, कब क्या कर बैठें।’’
यह सुनकर रतिनाथ बाबू ने हताश स्वर में कहा, ‘‘ठीक है, तुम यहीं रहो, मैंने तो ऐसे ही कहा था कि देखें तुमने क्या सोचा है ?’’
बूढ़े पति को देखने से अधिक जवाबदेही तो बेटों और बहुओं की देखभाल के प्रति माँ का ध्यान अधिक होना ही चाहिए।
अगले ही दिन अंकित ने तत्परता से गठरी बाँध दी और संजीत रिक्शा ले आया। दोनों भाइओं ने खुशी-खुशी सारे सामान को रिक्शा पर लाद दिया। बेसन का लड्डू और कुछ पकवान का झोला लिए रतिनाथ बाबू रिक्शा पर बैठ गए। एक कातर दृष्टि अपने परिवार पर डाली, फिर दूसरी ओर देखने लगे। … रिक्शा चल पड़ा।
पीछे से पत्नी की आवाज आई – ‘‘बच्चों के लिए समय पर पैसे भेजते रहेंगे। पेंशन के पैसे से घर-खर्च पूरा नहीं हो पाता।’’
उनके जाने के बाद बहू ने अंकित से हँसते हुए कहा, ‘‘सिनेमा लगा है भोला में – ‘परिवार’।’’
संजीत ने कहा – ‘‘भैया, मैं भी चलूँगा सिनेमा देखने।’’
रतिनाथ बाबू की पत्नी सीधे चौके में आई और बचे हुए लड्डू और पकवान एक डिब्बे में रखकर अपनी कोठरी में कनस्तर के पीछे रख दी और जोर से कहा, ‘‘अंकित, सिनेमा जाने से पहले ही पापाजी वाली चारपाई बाहर कर दो। चलने भर की भी जगह नहीं है यहाँ।’’

पता : ग्राम ़पोस्ट – मथुरापुर, महावीर मंदिर के समीप, समस्तीपुर, बिहार

Leave a Reply

Your email address will not be published.


Get
Your
Book
Published
C
O
N
T
A
C
T