ग़ज़ल
प्रो. (डॉ.) सुधा सिन्हा

1
योग कर लो सदा तो खुशी आ गयी
जिन्दगी में यहां दिलकशी आ गयी
नफरतों की दीवारें अगर हट गयीं
प्यार की तो यहां रौशनी आ गयी
जिन्दगी को लुटाया किसी पे अगर
मर गये गर यहां बन्दगी आ गयी
सोने चांदी से खुशियां अगर ना मिले
तुष्टि राह चलो बेखुदी आ गयी
‘आत्मदीपो भव’ राह पे तुम चलो
कह रही है ‘सुधा’ मानसी गयी।
2
तुम अगर खुश नहीं रहोगे तो
जिन्दगी में उदासी रहते हैं
गम कभी नहीं करोगे तुम
हौसले मुश्किलों से पलते हैं
हर घड़ी तुम वतन पर ही मरना
दुश्मनी से जहर उगलते हैं
तुम को संभल ‘सुधा’ यहां रहना
सब यहां पे तो कान भरते हैं।
3
यहां पे अगर ये हवा जो चली है
मुझे तो कभी भी बुलाना नहीं था
मुहब्बत मुझे है सदा ही तुझी से
इसी से कभी आजमाना नहीं था
ये नजरें सदा खोजती हैं सनम जी
मुझे इस तरह से भुलाना नहीं था
ये दिल जो हमारा तड़पता रहा है
उसे फिर कभी भी सताना नहीं था
‘सुधा’ कह रही है मिलूं गर दुबारा
अलग से कभी भी बसाना नहीं था।
4
तुझे वह याद करता है कि तेरे बिन तड़पता है
नहीं कुछ बोल पाता वह, नजर से जाम भरता है
बड़ा बेचैन रहता है, सदा ही आह भरता है
जुबां से कुछ नहीं कहता, मगर तुझपे ही मरता है
ये उसकी बेरुखी यारों, जिगर नश्तर चुभोता है
कि जब भी सामने होता, नजर वह फेर लेता है
न वह इनकार करता है, न वह इकरार करता है
मगर वह जानता उससे, बहुत ही प्यार करता है
बड़ा निर्माेही बनता है, नहीं दिल भी वह रखता है
‘सुधा’ कहती वह बेदिल है, नहीं कुछ भी समझता है।




