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प्रो. (डॉ.) सुधा सिन्हा की कविताएं

सदा पूजा किया करती

सदा पूजा किया करती, कहां हो तुम मेरे गिरिधर
कि पूजा भी अधूरी है, तिरे बिन सुन मेरे गिरिधर

नहीं कुछ भी मुझे जंचता, लगाओ बांसुरी में सुर
सितारे भी सदा सुनते, तेरे ही धुन मेरे गिरिधर

बगीचे में भरे हैं फूल, कि डाली लगे सुन्दर
यहां माला बनाना है, कली को चुन मेरे गिरिधर

यशोदा मां सुलाती है, तुझे बाहों सदा लेकर
मगर तुम नाहीं सुनते हो, करे गुनगुन मेरे गिरिधर

‘सुधा’ कहती, बहारों ने सुनाया था वही गाना
मुझे भी तो सुनाना है, अभी तू सुन मेरे गिरिधर।

सावन की घटा

सावन की घटा देखी, मन में उठत हिलोर।
प्रिय परदेशी बन गये,
जी लागे ना मोर।।

दामिनी भी कड़क रही, पानी है चहुं ओर।
नौका नाहीं चल रही,
दिखे कहीं ना छोर।।

मन मेरा है बावरा, घटा मचावे शोर।
बागों में भी देख लो,
नाच रहा है मोर।।

मां को नमन

मां के जैसा ना कोई दूजा,
निश-दिन कर लो इसकी पूजा।
सारे कष्टों को यह हरती,
आंचल तले जिन्दगी पलती।
नहीं जरूरत देवताओं की,
कदम चूम लो माताओं की।
तू ही मेरी कावा-काशी,
तुझ बिन जीवन में है उदासी,
आखें मेरी भर भर जाती,
तेरी याद है जब भी आती।
जो भी मां को गाली देगा,
गंदा कोई खून बहेगा।
भारत की न ऐसी संस्कृति,
इसमें नहीं कोई विकृति।

बसंती गीत

छलके रे… छलके रे… छलके रे छलके,
गगरी छलके, गगरी छलके, गगरी छलके

ऋतुराज की गगरी,
धीरे धीरे छलके,
पीली पीली सरसों,
खेतों मेें है महके,
अमिया के तो मंजर
धीरे धीरे डोले,
डोले रे… डोले रे… डोले रे डोले,
मन डोले, मन डोले, मन डोले।

गेंदा महक रहा है,
जूही चहक रही है,
रजनीगंधा की धीरे,
खुशबू बिखर रही है,
सूर्यमुखी भी अपना,
पट है धीरे खोले,
खोले रे… खोले रे… खोले रे खोले,
पट खोले, पट खोले, पट खोले।

अवनि से अम्बर तक,
पियरी तनी हुई है,
फिजा भी मस्त बनी है,
जियरा मचल रही है,
तितली भी मंडराये,
भौरें गुनगुनायें,
गाये रे… गाये रे… गाये रे गाये,
गुनगुन गाये, गुनगुन गाये, गुनगुन गाये।
नदियां कल कल करती,
झरने झर झर बहते,
चांद गगन में झांके,
ॠतुराज से डरके,
कोयल कूक रही है,
कान में मधु रस घोले,
घोले रे… घोले रे… घोले रे घोले,
रस घोले, रस घोले, रस घोले।

बसंती हवा चली है,
पंखों पर मन डोले,
बादल में छिप जाऊं,
बरसूं हौले हौले,
सतरंगी सा बनके
वन मेें लूं हिचकोले,
हिचकोले… हिचकोले… हिचकोले… हिचकोले,
लूं हिचकोले, लूं हिचकोले, लूं हिचकोले।

प्रकृति का तांडव

पहाड़ों के दरमियां तो,
ये कैसी साजिशें हुईं,
पेड़ पौधे सभी उखड़े,
बर्बाद जिन्दगी हुई।

मौसम के तेवर बदले,
उल्टे सबकुछ हो गये,
विनाशकारी राग छिड़ा,
प्रकृति के संतुलन बिगड़े।

बादल भी तो फट गये,
अरे क्यों इतने जुल्म हुए,
बहारों में जो कशिश थी,
आज सभी रुसवे हुए।

बलखाती इठलाती नदी,
भयंकर रौद्र बन गयी,
मानव तूने क्या किया,
तांडव-नृत्य करने लगी।

तेरी करतूतों से तो,
क्षुब्ध हो गयी प्रकृति हंसी,
तूने जो भी कर दिया,
आयी भुगतने की घड़ी।

कैसा जलवा दिखा रही,
ऐ प्रकृति कभी थी प्यारी,
अब हम नहीं सह सकते,
तुम हमको दे दो माफी।

विकसित देश की झलक

देश हमारा बढ़ने लगा है,
चंदा बनके चमकने लगा है।

आधी अबादी सजने लगी है,
देश की बगिया निखरने लगी है,
बेटियों ने हर क्षेत्र संभाली,
जाके क्षितिज में झंडा गाड़ी।

उज्ज्वला गैस हमको मिली है,
जिन्दगी सुविधाओं से सजी है,
एक नियम में हम तो बंधेंगे,
एक सूत्र से सज के चलेंगे।

आतंकवाद का खात्मा हुआ है,
चैन अमन हमको प्यारा है,
तीन सौ सत्तर धारा हटा है,
घुसपैठियों का आना रूका है।

आधार कार्ड ने बाजी मारी,
देश में हमारी पहचान बनायी,
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,
सबसे पहले देश है भाई।

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