दुनिया का सबसे अनमोल रत्न

- प्रेमचंद
प्रेमचंद की सबसे पहली प्रकाशित उर्दू कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ है, जो जुलाई 1907 में उर्दू पत्रिका ‘ज़माना’ में प्रकाशित हुई थी, जिसे बाद में उर्दू संग्रह ‘सोज़-ए-वतन’ में शामिल किया गया। हिन्दी में उनकी पहली प्रकाशित कहानी ‘सौत’ थी, जो 1915 में पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी।
दिलफ़िगार एक कंटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किए बैठा हुआ ख़ून के आंसू बहा रहा था। वह सौंदर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देनेवाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक़ के वेश में माशूकियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फ़िदाइयों में जो जंगल और पहाड़ों से सर टकराते हैं और फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा और दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ। तब मैं तुझे अपनी ग़ुलामी में क़बूल करूंगी। अगर तुझे वह चीज़ न मिले तो ख़बरदार, इधर रुख़ न करना, वर्ना सूली पर खिंचवा दूंगी। दिलफ़िगार को अपनी भावनाओं के प्रदर्शन का, शिकवे-शिकायत का, प्रेमिका के सौंदर्य दर्शन का तनिक भी अवसर न दिया गया। दिलफ़रेब ने ज्योंही यह फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। और आज तीन दिन से यह आफ़त का मारा आदमी उसी कंटीले पेड़ के नीचे उसी भयानक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूं। दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ मुझको मिलेगी ? नामुमकिन ! और वह है क्या ? क़ारून का ख़ज़ाना ? आबे हयात ? ख़ुसरो का ताज ? जामेजम ? तख़्ते ताऊस ? परवेज़ की दौलत ? नहीं, यह चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे भी महंगी, इनसे भी अनमोल चीज़ें मौजूद हैं, मगर वह क्या है ? कहां है ? कैसे मिलेगी ? या ख़ुदा, मेरी मुश्किल क्योंकर आसान होगी ?
दिलफ़िगार इन्हीं ख़यालों में चक्कर खा रहा था और अक्ल कुछ काम नहीं करती थी। मुनीर शामी को हातिम-सा मददगार मिल गया। ऐ काश, कोई मेरा भी मददगार हो जाता, ऐ काश मुझे भी उस चीज़ का, जो दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ है, नाम बतला दिया जाता ! बला से वह चीज़ें हाथ न आती, मगर मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह किस क़िस्म की चीज़ है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूं। मैं समुंदर का गीत, पत्थर का दिल, मौत की आवाज़ और इनसे भी ज्यादा बेनिशान चीज़ों की तलाश में कमर कस सकता हूं। मगर दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ ! यह मेरी कल्पना की उड़ान से बहुत ऊपर है।
आसमान पर तारे निकल आए थे। दिलफ़िगार यकायक ख़ुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ। भूखा-प्यासा, नंगे बदन, थकन से चूर, वह बरसों वीरानों और आबादियों की ख़ाक छानता फिरा, तलवे कांटों से छलनी हो गए, शरीर में हड्डियां ही हड्डियां दिखाई देने लगी, मगर वह चीज़, जो दुनिया की सबसे बेशक़ीमती चीज़ थी, न मिली और न उसका कुछ निशान मिला।
एक रोज़ वह भूलता-भटकता एक मैदान में जा निकला, जहां हज़ारों आदमी ग़ोल बांधे खड़े थे। बीच में कई अमामे और चोग़ेवाले दढ़ियल काज़ी अफ़सरी शान से बैठे हुए आपस में कुछ सलाह-मशविरा कर रहे थे और इस जमात से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिलफ़िगार कुछ तो कमज़ोरी की वजह से और कुछ यहां की कैफ़ियत देखने के इरादे से ठिठक गया। क्या देखता है, कि कई लोग नंगी तलवारें लिए, एक क़ैदी को, जिसके हाथ-पैर में ज़ंजीरें थीं, पकड़े चले आ रहे हैं। सूली के पास पहुंचकर सब सिपाही रुक गए और क़ैदी की हथकड़ियां-बेड़ियां सब उतार ली गईं। इस अभागे आदमी का दामन सैकड़ों बेगुनाहों के ख़ून के छींटों से रंगीन था, और उसका दिल नेकी के ख़्याल और रहम की आवाज़ से ज़रा भी परिचित न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहियों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया, मौत की फांसी उसकी गर्दन में डाल दी और जल्लादों ने तख़्ता खींचने का इरादा किया कि वह अभागा मुजरिम चीख़कर बोला, ख़ुदा के वास्ते मुझे एक पल के लिए फांसी से उतार दो ताकि अपने दिल की आख़री आरज़ू निकाल लूं। यह सुनते ही चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। लोग अचंभे में आकर ताकने लगे। क़ाज़ियों ने एक मरने वाले आदमी की अंतिम याचना को रद्द करना उचित न समझा और बदनसीब पापी काला चोर ज़रा देर के लिए फांसी से उतार लिया गया।
इसी भीड़ में एक ख़ूबसूरत भोला-भाला लड़का एक छड़ी पर सवार होकर अपने पैरों पर उछल-उछल फ़र्ज़ी घोड़ा दौड़ा रहा था और अपनी सादगी की दुनिया में ऐसा मगन था कि जैसे वह इस वक़्त सचमुच अरबी घोड़े का शहसवार है। उसका चेहरा उस सच्ची ख़ुशी से कमल की तरह खिला हुआ था जो चंद दिनों के लिए बचपन ही में हासिल होती है और जिसकी याद हमको मरते दम तक नहीं भूलती। उसका दिल अभी तक पाप की गर्द और धूल से अछूता था और मासूमियत उसे अपनी गोद में खिला रही थी।
बदनसीब काला चोर फांसी से उतरा। हज़ारों आंखें उस पर गड़ी हुई थीं। वह उस लड़के के पास आया और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगा। उसे इस वक़्त वह ज़माना याद आया जब वह ख़ुद ऐसा ही भोला-भाला, ऐसा ही ख़ुश-व-ख़ुर्रम और दुनिया की गंदगियों से ऐसा ही पाक-साफ़ था। मां गोदियों में खिलाती थी, बाप बलाएं लेता था और सारा कुनबा जान न्योछावर करता था। आह, काले चोर के दिल पर इस वक़्त बीते हुए दिनों की याद का इतना असर हुआ कि उसकी आंखों से, जिन्होंने दम तोड़ती हुई लाशों को तड़पते देखा … न झपकीं, आंसू का एक क़तरा टपक पड़ा। दिलफ़िगार ने लपककर उस अनमोल मोती को हाथ में ले लिया और उसके दिल ने कहा – बेशक यह दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है जिस पर तख़्ते ताऊस और जामेजम और आबे हयात और ज़रे परवेज़ सब न्योछावर हैं।
इस ख़्याल से ख़ुश होता, कामयाबी की उम्मीद में सरमस्त, दिलफ़िगार अपनी माश़ूका दिलफ़रेब के शहर मीनोसाबाद को चला। मगर ज्यों-ज्यों मंज़िलें तय होती जाती थीं, उसका दिल बैठा जाता था कि कहीं उस चीज़ की, जिसे मैं दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ समझता हूं, दिलफ़रेब की आंखों में क़द्र न हुई तो मैं फांसी पर चढ़ा दिया जाऊंगा और इस दुनिया से नामुराद जाऊंगा। लेकिन जो हो सो हो, अब तो क़िस्मत-आज़माई है। आखि़रकार पहाड़ और दरिया तय करते वह शहर मीनोसबाद में आ पहुंचा और दिलफ़रेब की ड्योढ़ी पर जाकर विनती की कि थकान से टूटा हुआ दिलफ़िगार ख़ुदा के फ़ज़ल से हुक्म की तामील करके आया है और आपके क़दम चूमना चाहता है। दिलफ़रेब ने फ़ौरन अपने सामने बुला भेजा और एक सुनहरे पर्दे की ओट से फ़रमाइश की कि वह अनमोल चीज़ पेश करो। दिलफ़िगार ने आशा और भय की एक विचित्र मनःस्थिति में वह बूंद पेश की और उसकी सारी कैफ़ियत बहुत पुरअसर लफ़्ज़ों में बयान की। दिलफ़रेब ने पूरी कहानी बहुत ग़ौर से सुनी और वह भेंट हाथ में लेकर ज़रा देर तक ग़ौर करने के बाद बोली – दिलफ़िगार, बेशक तूने दुनिया की एक बेशक़ीमत चीज़ ढूंढ़ निकाली, तेरी हिम्मत और तेरी सूझ-बूझ की दाद देती हूं ! मगर यह दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ नहीं, इसलिए तू यहां से जा और फिर कोशिश कर, शायद अब की तेरे हाथ वह मोती लगे और तेरी क़िस्मत में मेरी ग़ुलामी लिखी हो। जैसा कि मैंने पहले ही बतला दिया था, मैं तुझे फांसी पर चढ़वा सकती हूं, मगर मैं तेरी जांबख़्शी करती हूं, इसलिए कि तुझमें वह गुण मौजूद हैं, जो मैं अपने प्रेमी में देखना चाहती हूं और मुझे यक़ीन है कि तू ज़रूर कभी-न-कभी कामयाब होगा।
नाकाम और नामुराद दिलफ़िगार इस माश़ूकाना इनायत से ज़रा दिलेर होकर बोला – ऐ दिल की रानी, बड़ी मुद्दत के बाद तेरी ड्योढ़ी पर सजदा करना नसीब होता है। फिर ख़ुदा जाने ऐसे दिन कब आएंगे, क्या तू अपने जान देने वाले आशि़क के बुरे हाल पर तरस न खाएगी और क्या तू अपने रूप की एक झलक दिखाकर इस जलते हुए दिलफ़िगार को आने वाली सख्तियों को झेलने की ताक़त न देगी ? तेरी एक मस्त निगाह के नशे में चूर होकर मैं वह कर सकता हूं, जो आजतक किसी से न बन पड़ा हो।
दिलफ़रेब आशि़क की यह चाव भरी बातें सुनकर ग़ुस्सा हो गई और हुक्म दिया कि इस दीवाने को खड़े-खड़े दरबार से निकाल दो। चोबदार ने फ़ौरन ग़रीब दिलफ़िगार को धक्का देकर यार के कूचे से बाहर निकाल दिया।
कुछ देर तक तो दिलफ़िगार अपनी निष्ठुर प्रेमिका की इस कठोरता पर आंसू बहाता रहा, और फिर वह सोचने लगा कि अब कहां जाऊं। मुद्दतों रास्ते नापने और जंगलों में भटकने के बाद आंसू की यह बूंद मिली थी, अब ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसकी क़ीमत इस आबदार मोती से ज़्यादा हो। हज़रते खि़ज़्र ! तुमने सिकंदर को आबे हयात के कुएं का रास्ता दिखाया था, क्या मेरी बांह न पकड़ोगे ? सिकंदर सारी दुनिया का मालिक था। मैं तो एक बेघरबार मुसाफ़िर हूं। तुमने कितनी ही डूबती किश्तियां किनारे लगाई हैं, मुझ ग़रीब का बेड़ा भी पार करो। ए आलीमुक़ाम जिबरील ! कुछ तुम्हीं इस नीमजान, दुखी आशि़क पर तरस खाओ। तुम ख़ुदा के एक ख़ास दरबारी हो, क्या मेरी मुश्किल आसान न करोगे ? ग़रज़ यह है कि दिलफ़िगार ने बहुत फ़रियाद मचाई, मगर उसका हाथ पकड़ने के लिए कोई सामने न आया। आखि़र निराश होकर वह पागलों की तरह दुबारा एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ।
दिलफ़िगार ने पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही जंगलों और वीरानों की ख़ाक छानी, कभी बर्फि़स्तानी चोटियों पर सोया, कभी डरावनी घाटियों में भटकता फिरा, मगर जिस चीज़ की धुन थी वह न मिली, यहां तक कि उसका शरीर हड्डियों का एक ढांचा रह गया।
एक रोज़ वह शाम के वक़्त किसी नदी के किनारे खस्ताहाल पड़ा हुआ था। बेख़ुदी के नशे से चौंका तो क्या देखता है कि चंदन की एक चिता बनी हुई है और उस पर एक युवती सुहाग के जोड़े पहने सोलहों शृंगार किए बैठी है। उसकी जांघ पर उसके प्यारे पति का सर है। हज़ारों आदमी गोल बांधे खड़े हैं और फूलों की बरखा कर रहे हैं। यकायक चिता में से ख़ुद-ब-ख़ुद एक लपट उठी। सती का चेहरा उस वक़्त एक पवित्र भाव से आलोकित हो रहा था, चिता की पवित्र लपटें उसके गले से लिपट गईं और दम के दम में वह फूल-सा शरीर राख का ढेर हो गया। प्रेमिका ने अपने को प्रेमी पर न्योछावर कर दिया और दो प्रेमियों के सच्चे, पवित्र, अमर प्रेम की अंतिम लीला आंख से ओझल हो गई। जब सब लोग अपने घरों को लौटे तो दिलफ़िगार चुपके से उठा और अपने चाक-दामन कुरते में यह राख का ढेर समेट लिया और इस मुट्ठी भर राख को दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ समझता हुआ, सफलता के नशे में चूर, यार के कूचे की तरफ़ चला। अबकी ज्यों-ज्यों वह मंज़िल के क़रीब आता था, उसकी हिम्मत बढ़ती जाती थी। कोई उसके दिल में बैठा हुआ कह रहा था – अबकी तेरी जीत है और इस ख़्याल ने उसके दिल को जो-जो सपने दिखाए, उनकी चर्चा व्यर्थ है।
आखि़रकार वह शहर मीनोसबाद में दाखि़ल हुआ और दिलफ़रेब की ऊंची ड्योढ़ी पर जाकर ख़बर दी कि दिलफ़िगार सुर्ख़-रू होकर लौटा है, और हुज़ूर के सामने आना चाहता है। दिलफ़रेब ने जांबाज़ आशि़क को फ़ौरन दरबार में बुलाया और उस चीज़ के लिए, जो दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ थी, हाथ फैला दिया। दिलफ़िगार ने हिम्मत करके उसकी चांदी जैसे कलाई को चूम लिया और मुट्ठी भर राख को उसकी हथेली में रखकर सारी कैफ़ियत दिल को पिघला देने वाले लफ़्ज़ों में कह सुनाई और अपनी सुंदर प्रेमिका के होंठों से अपनी क़िस्मत का मुबारक फ़ैसला सुनने के लिए इंतज़ार करने लगा। दिलफ़रेब ने उस मुट्ठीभर राख को आंखों से लगा लिया और कुछ देर तक विचारों के सागर में डूबे रहने के बाद बोली – ऐ जान निछावर करने वाले आशि़क दिलफ़िगार ! बेशक यह राख जो तू लाया है, जिसमें लोहे को सोना कर देने की सिफ़त है, दुनिया की बहुत बेशक़ीमत चीज़ है और मैं सच्चे दिल से तेरी एहसानमंद हूं कि तूने ऐसी अनमोल भेंट मुझे दी। मगर दुनिया में इससे भी ज़्यादा अनमोल कोई चीज़ है, जा उसे तलाश कर और तब मेरे पास आ। मैं तहेदिल से दुआ करती हूं कि ख़ुदा तुझे कामयाब करे। यह कहकर वह सुनहरे पर्दे से बाहर आई और माश़ूकाना अदा से अपने रूप का जलवा दिखाकर फिर नज़रों से ओझल हो गई। एक बिजली सी कौंधी और फिर बादलों के पर्दे में छिप गई। अभी दिलफ़िगार के होश-हवास ठिकाने पर न आने पाए थे कि चोबदार ने मुलायमियत से उसका हाथ पकड़कर यार के कूचे से उसको निकाल दिया और फिर तीसरी बार वह प्रेम का पुजारी निराशा के अथाह समुंदर में ग़ोता खाने लगा।
दिलफ़िगार का हियाव छूट गया। उसे य़कीन हो गया कि मैं दुनिया में उसी तरह नाशाद और नामुराद मर जाने के लिए पैदा किया गया था और अब इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि किसी पहाड़ पर चढ़कर नीचे कूद पड़ूं ताकि माशूक़ के ज़ुल्मों की फ़रियाद करने के लिए एक हड्डी भी बाक़ी न रहे। वह दीवाने की तरह उठा और गिरता-पड़ता एक गगनचुंबी पहाड़ की चोटी पर जा पहुंचा। किसी और समय वह ऐसे ऊंचे पहाड़ पर चढ़ने का साहस न कर सकता था, मगर इस वक़्त जान देने के जोश में उसे वह पहाड़ एक मामूली टेकरी से ज़्यादा ऊंचा न नज़र आया। क़रीब था कि वह नीचे कूद पड़े कि हरे-हरे कपड़े पहने हुए और हरा अमामा बांधे एक बुज़ुर्ग एक हाथ में तसबीह और दूसरे हाथ में लाठी लिए बरामद हुए और हिम्मत बढ़ाने वाले स्वर में बोले – दिलफ़िगार, नादान दिलफ़िगार, यह क्या बुज़दिलों जैसी हरकत है ! तू मुहब्बत का दावा करता है और तुझे इतनी भी ख़बर नहीं कि मज़बूत इरादा मुहब्बत के रास्ते की पहली मंज़िल है ? मर्द बन कर हिम्मत न हार। पूरब की तरफ़ एक देश है, जिसका नाम हिंदोस्तान है, वहां जा और तेरी आरज़ू पूरी होगी।
यह कहकर हज़रते खि़ज़्र ग़ायब हो गए। दिलफ़िगार ने शुक्रिये की, नमाज़ अदा की और ताज़ा हौंसले, ताज़ा जोश और अलौकिक सहायता का सहारा पाकर ख़ुश-ख़ुश पहाड़ से उतरा और हिंदोस्तान की तरफ़ चल पड़ा।
मुद्दतों तक कांटों से भरे हुए जंगलों, आग बरसाने वाले रेगिस्तानों, कठिन घाटियों और अलंध्य पर्वतों को तय करने के बाद दिलफ़िगार हिंद की पाक सरज़मीन में दाखि़ल हुआ और एक ठंडे पानी के सोते में सफ़र की तकलीफ़े धोकर थकान के मारे नदी के किनारे लेट गया। शाम होते-होते वह एक चटियल मैदान में पहुंचा जहां बेशुमार अधमरी और बेजान लाशें बिना कफ़न के पड़ी हुई थीं। चील, कौए और वहशी दरिंदे भरे पड़े थे और सारा मैदान ख़ून से लाल हो रहा था। यह डरावना दृश्य देखते ही दिलफ़िगार का जी दहल गया। या ख़ुदा, किस मुसीबत में जान फंसी, मरने वालों को कराहना, सिसकना और एड़ियां रगड़कर जान देना, दरिंदों का हड्डियों को नोचना और गोश्त के लोथड़ों को लेकर भागना – ऐसा हौलनाक सीन दिलफ़िगार ने कभी न देखा था। यकायक उसे ख़्याल आया, यह लड़ाई का मैदान है और यह लाशें सूरमा सिपाहियों की हैं। इतने में क़रीब से कराहने की आवाज़ आई। दिलफ़िगार उस तरफ़ फिरा तो देखा कि एक लंबा-तगड़ा आदमी, जिसका मर्दाना चेहरा जान निकलने की कमज़ोरी से पीला हो गया है, ज़मीन पर सर झुकाए पड़ा हुआ है। सीने से ख़ून का फव्वारा जारी है, मगर आबदार तलवार की मूठ पंजे से अलग नहीं हुई। दिलफ़िगार ने एक चीथड़ा लेकर घाव के मुंह पर रख दिया, ताकि ख़ून रुक जाए और बोला – ऐ जवांमर्द, तू कौन है ? जवांमर्द, तू कौन है ? जवांमर्द ने यह सुनकर आंखें खोलीं और वीरों की तरह बोला – क्या तू नहीं जानता मैं कौन हूं, क्या तूने आज इस तलवार की काट नहीं देखी ? मैं अपनी मां का बेटा और भारत का सपूत हूं। यह कहते-कहते उसकी त्योरियों पर बल पड़ गए। पीला चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया और आबदार शमशीर फिर अपना जौहर दिखाने के लिए चमक उठी। दिलफ़िगार समझ गया कि यह इस वक़्त मुझे दुशमन समझ रहा है, नरमी से बोला – ऐ जवांमर्द, मैं तेरा दुश्मन नहीं हूं। अपने वतन से निकला हुआ एक ग़रीब मुसाफ़िर हूं। इधर भूलता-भटकता आ निकला। बराए मेहरबानी मुझसे यहां की कुल कैफ़ियत बयान कर।
यह सुनते ही घायल सिपाही बहुत मीठे स्वर में बोला – अगर तू मुसाफ़िर है तो आ और मेरे ख़ून से तर पहलू में बैठ जा, क्योंकि यही दो अंगुल ज़मीन है जो मेरे पास बाक़ी रह गई है और जो सिवाए मौत के कोई नहीं छीन सकता। अफ़सोस है कि तू यहां ऐसे वक़्त में आया, जब तेरा आतिथ्य-सत्कार करने के योग्य नहीं। हमारे बाप-दादा का देश आज हमारे हाथ से निकल गया और इस वक़्त हम बेवतन हैं। मगर (पहलू बदलकर) हमने हमलावर दुश्मन को बता दिया कि राजपूत अपने देश के लिए कैसी बहादुरी से अपनी जान देता है। यह आस-पास जो लाशें तू देख रहा है, यह उन लोगों की हैं, जो इस तलवार के घाट उतरे हैं। (मुस्कराकर) और गो कि मैं बेवतन हूं, मगर ग़नीमत है कि दुश्मन की ज़मीन पर नहीं मर रहा हूं। (सीने के घाव से चीथड़ा निकालकर) क्या तूने यह मरहम रख दिया ? ख़ून निकलने दे, इसे रोकने से क्या फ़ायदा ? क्या मैं अपने ही देश में ग़ुलामी करने के लिए ज़िंदा रहूं ? नहीं, ऐसी ज़िंदगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।
जवांमर्द की आवाज़ मद्धिम हो गई, अंग ढीले पड़ गए, ख़ून इतना ज़्यादा बहा कि ख़ुद-ब-ख़ुद बंद हो गया। रह-रहकर एकाध बूंद टपक पड़ता था। आखि़रकार सारा शरीर बेदम हो गया, दिल की हरकत बंद हो गई और आंखें मुंद गईं। दिलफ़िगार ने समझा अब काम तमाम हो गया कि मरनेवाले ने धीमे से कहा – भारतमाता की जय ! और उनके सीने से ख़ून का आखि़री क़तरा निकल पड़ा। एक सच्चे देशप्रेमी और देशभक्त ने देशभक्ति का हक़ अदा कर दिया। दिलफ़िगार पर इस दृश्य का बहुत गहरा असर पड़ा और उसके दिल ने कहा, बेशक दुनिया में ख़ून के इस क़तरे से ज़्यादा अनमोल चीज़ कोई नहीं हो सकती। उसने फ़ौरन ख़ून की बूंद को, जिसके आगे यमन का लाल हेच भी है, हाथ में ले लिया और इस दिलेर राजपूत की बहादुरी पर हैरत करता हुआ अपने वतन की तरफ़ रवाना हुआ और सख्तियां झेलता हुआ आखि़रकार बहुत दिनों के बाद रूप की रानी मलका दिलफ़रेब की ड्यौढ़ी पर जा पहुंचा और पैग़ाम दिया कि दिलफ़िगार सुर्ख़रू और कामयाब होकर लौटा है और दरबार में हाज़िर होना चाहता है। दिलफ़रेब ने उसे फ़ौरन हाज़िर होने का हुक्म दिया। ख़ुद हस्बे मालूम सुनहरे पर्दे की ओट में बैठी और बोली – दिलफ़िगार, अबकी तू बहुत दिनों के बाद वापस आया है। ला, दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ कहां है ?
दिलफ़िगार ने मेंहदी-रची हथेलियों को चूमते हुए ख़ून का क़तरा उस पर रख दिया और उसकी पूरी कैफ़ियत पुरजोश लहजे में कह सुनाई। वह ख़ामोश भी न होने पाया था कि यकायक यह सुनहरा पर्दा हट गया और दिलफ़िगार के सामने हुस्न का एक दरबार सजा हुआ नज़र आया, जिसकी एक-एक नाज़नीन जुलेखा से बढ़कर थी। दिलफ़रेब बड़ी शान के साथ सुनहरी मसनद पर सुशोभित हो रही थी। दिलफ़िगार हुस्न का यह तिलिस्म देखकर अचंभे में पड़ गया और चित्रलिखित-सा खड़ा रहा कि दिलफ़रेब मसनद से उठी और कई क़दम आगे बढ़कर उससे लिपट गई। गानेवालियों ने ख़ुशी के गाने शुरू किए, दरबारियों ने दिलफ़िगार को नज़रें भेंट कीं और चांद-सूरज को बड़ी इज़्ज़त के साथ मसनद पर बैठा दिया। जब वह लुभावना गीत बंद हुआ तो दिलफ़रेब खड़ी हो गई और हाथ जोड़कर दिलफ़िगार से बोली – ऐ जांनिसार आशि़क दिलफ़िगार ! मेरी दुआएं बर आईं और ख़ुदा ने मेरी सुन ली और तुझे कामयाब व सुर्ख़रू किया। आज से तू मेरा मालिक है और मैं तेरी लौंडी !
यह कहकर उसने एक रत्नजटित मंजूषा मंगाई और उसमें से एक तख़्ती निकाली, जिस पर सुनहरे अक्षरों से लिखा हुआ था – ‘ख़ून का वह आखि़री क़तरा जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे, दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।’




