Naye Pallav

Publisher

कामना-तरु

मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गांव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनंदी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था, जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फारसी में हुई। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ। 1906 में दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ, जो बाल-विधवा थी। वे सुशिक्षित महिला थीं, जिन्होंने कुछ कहानियां और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन संताने हुईं – श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। बी.ए. पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। 1921 में असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर, 1936 को उनका निधन हो गया।

कामना-तरु

राजा इन्द्रनाथ का देहांत हो जाने के बाद कुंवर राजनाथ को शत्रुओं ने चारों ओर से ऐसा दबाया कि उन्हें अपने प्राण लेकर एक पुराने सेवक की शरण जाना पड़ा, जो एक छोटे-से गांव का जागीरदार था। कुंवर स्वभाव से ही शांतिप्रिय, रसिक, हंस-खेल कर समय काटनेवाले युवक थे। रणक्षेत्र की अपेक्षा कवित्व के क्षेत्र में अपना चमत्कार दिखाना उन्हें अधिक प्रिय था। रसिकजनों के साथ, किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए, काव्य-चर्चा करने में उन्हें जो आनन्द मिलता था, वह शिकार या राजदरबार में नहीं। पर्वतमालाओं से घिरे हुए इस गांव में आकर उन्हें जिस शांति और आनन्द का अनुभव हुआ, उसके बदले में वह ऐसे-ऐसे कई राज्य-त्याग कर सकते थे। यह पर्वतमालाओं की मनोहर छटा, यह नेत्रारंजक हरियाली, यह जल-प्रवाह की मधुर वीणा, यह पक्षियों की मीठी बोलियां, यह मृग-शावकों की छलांगें, यह बछड़ों की कुलेलें, यह ग्राम-निवासियों की बालोचित सरलता, यह रमणियों की संकोचमय चपलता ! ये सभी बातें उनके लिए नयी थीं, पर इन सबों से बढ़कर जो वस्तु उनको आकर्षित करती थी, वह जागीरदार की युवती कन्या चंदा थी। चंदा घर का सारा कामकाज आप ही करती थी। उसको माता की गोद में खेलना नसीब ही न हुआ था। पिता की सेवा ही में रत रहती थी। उसका विवाह इसी साल होनेवाला था, कि इसी बीच में कुंवर जी ने आकर उसके जीवन में नवीन भावनाओं और आशाओं को अंकुरित कर दिया। उसने अपने पति का जो चित्र मन में खींच रखा था, वही मानो रूप धारण करके उसके सम्मुख आ गया। कुंवर की आदर्श रमणी भी चंदा ही के रूप में अवतरित हो गयी; लेकिन कुंवर समझते थे, मेरे ऐसे भाग्य कहां ? चंदा भी समझती थी, कहां यह और कहां मैं !
दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की भांति तपने लगा। खस की टट्टियों और तहखानों में रहनेवाले राजकुमार का चित्त गरमी से इतना बेचैन हुआ कि वह बाहर निकल आये और सामने के बाग में जाकर एक घने वृक्ष की छांव में बैठ गये। सहसा उन्होंने देखा, चंदा नदी से जल की गागर लिए चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूर्य। लू से देह झुलसी जाती थी। कदाचित इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी की भी नदी तक जाने की हिम्मत न पड़ती। चंदा क्यों पानी लेने गयी थी ? घर में पानी भरा हुआ है। फिर इस समय वह क्यों पानी लेने निकली ? कुंवर दौड़कर उसके पास पहुंचे और उसके हाथ से गागर छीन लेने की चेष्टा करते हुए बोले – ‘‘मुझे दे दो और भागकर छांह में चली जाओ। इस समय पानी का क्या काम था ?’’
चंदा ने गागर न छोड़ी। सिर से खिसका हुआ अंचल संभालकर बोली – ‘‘तुम इस समय कैसे आ गये ? शायद मारे गरमी के अंदर न रह सके ?’’
कुंवर – ‘‘मुझे दे दो, नहीं तो मैं छीन लूंगा।’’
चंदा ने मुस्कराकर कहा – ‘‘राजकुमारों को गागर लेकर चलना शोभा नहीं देता।’’
कुंवर ने गागर का मुंह पकड़कर कहा – ‘‘इस अपराध का बहुत दंड सह चुका हूं। चंदा, अब तो अपने को राजकुमार कहने में भी लज्जा आती है।’’
चंदा – ‘‘देखो, धूप में खुद हैरान होते हो और मुझे भी हैरान करते हो। गागर छोड़ दो। सच कहती हूं, पूजा का जल है।’’
कुंवर – ‘‘क्या मेरे ले जाने से पूजा का जल अपवित्र हो जाएगा ?’’
चंदा – ‘‘अच्छा भाई, नहीं मानते, तो तुम्हीं ले चलो। हां, नहीं तो।’’
कुंवर गागर लेकर आगे-आगे चले। चंदा पीछे हो ली। बगीचे में पहुंचे, तो चंदा एक छोटे-से पौधे के पास रुककर बोली – ‘‘इसी देवता की पूजा करनी है, गागर रख दो।’’
कुंवर ने आश्चर्य से पूछा – ‘‘यहां कौन देवता है, चंदा ? मुझे तो नहीं नजर आता।’’
चंदा ने पौधों को सींचते हुए कहा – ‘‘यही तो मेरा देवता है।’’
पानी पीकर पौधों की मुरझायी हुई पत्तियां हरी हो गईं, मानो उनकी आंखें खुल गई हों।
कुंवर ने पूछा – ‘‘यह पौधा क्या तुमने लगाया है, चंदा ?’’
चंदा ने पौधों को एक सीधी लकड़ी से बांधते हुए कहा – ‘‘हां, उसी दिन तो, जब तुम यहां आये। यहां पहले मेरी गुड़ियों का घरौंदा था। मैंने गुड़ियों पर छांह करने के लिए अमोला लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम-धंधों में भूल गई। जिस दिन तुम यहां आये, मुझे न-जाने क्यों इस पौधे की याद आ गई। मैंने आकर देखा, तो वह सूख गया था। मैंने तुरंत पानी लाकर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताजा होने लगा। तब से इसे सींचती हूं। देखो, कितना हरा-भरा हो गया है।’’
यह कहते-कहते उसने सिर उठाकर कुंवर की ओर ताकते हुए कहा – ‘‘…और सब काम भूल जाऊं; पर इस पौधे को पानी देना नहीं भूलती। तुम्हीं इसके प्राणदाता हो। तुम्हीं ने आकर इसे जिला दिया, नहीं तो बेचारा सूख गया होता। यह तुम्हारे शुभागमन का स्मृति-चिह्न है। जरा इसे देखो। मालूम होता है, हंस रहा है। मुझे तो जान पड़ता है कि यह मुझसे बोलता है। सच कहती हूं, कभी यह रोता है, कभी हंसता है, कभी रूठता है; आज तुम्हारा लाया हुआ पानी पाकर यह फूला नहीं समाता। एक-एक पत्ता तुम्हें धन्यवाद दे रहा है।’’
कुंवर को ऐसा जान पड़ा, मानो वह पौधा कोई नन्हा-सा क्रीड़ाशील बालक है। जैसे चुंबन से प्रसन्न होकर बालक गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला देता है, उसी भांति यह पौधा भी हाथ फैलाये जान पड़ा। उसके एक-एक अणु में चंदा का प्रेम झलक रहा था। चंदा के घर में खेती के सभी औजार थे। कुंवर एक फावड़ा उठा लाये और पौधे का एक थाला बनाकर चारों ओर ऊंची मेड़ उठा दी। फिर खुरपी लेकर अंदर की मिट्टी को गोड़ दिया। पौधा और भी लहलहा उठा।
चंदा बोली – ‘‘कुछ सुनते हो, क्या कह रहा है ?’’
कुंवर ने मुस्कराकर कहा – ‘‘हां, कहता है, अम्मां की गोद में बैठूंगा।’’
चंदा – ‘‘नहीं, कह रहा है, इतना प्रेम करके फिर भूल न जाना।’’
मगर कुंवर को अभी राजपुत्र होने का दंड भोगना बाकी था। शत्रुओं को न-जाने कैसे उनकी टोह मिल गयी। इधर तो हितचिंतकों के आग्रह से विवश होकर बूढ़ा कुबेर सिंह चंदा और कुंवर के विवाह की तैयारियां कर रहा था, उधर शत्रुओं का एक दल सिर पर आ पहुंचा। कुंवर ने उस पौधों के आसपास फूल-पत्ते लगाकर एक फुलवाड़ी-सी बना दी थी ! पौधों को सींचना अब उनका काम था। प्रातःकाल वह कंधों पर कांवर रखे नदी से पानी ला रहे थे, कि दस-बारह आदमियों ने उन्हें रास्ते में घेर लिया। कुबेर सिंह तलवार लेकर दौड़ा; लेकिन शत्रुओं ने उसे मार गिराया। अकेला अस्त्रहीन कुंवर क्या करता ? कंधों पर कांवर रखे हुए बोला – ‘‘अब क्यों मेरे पीछे पड़े हो, भाई ? मैंने तो सबकुछ छोड़ दिया।’’
सरदार बोला – ‘‘हमें आपको पकड़ ले जाने का हुक्म है।’’
‘‘तुम्हारा स्वामी मुझे इस दशा में भी नहीं देख सकता ? खैर, अगर धर्म समझो तो कुवेर सिंह की तलवार मुझे दे दो। अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ कर प्राण दूं।’’
इसका उत्तर यही मिला कि सिपाहियों ने कुंवर को पकड़कर मुश्कें कस दीं और उन्हें एक घोड़े पर बिठाकर घोड़े को भगा दिया। कांवर वहीं पड़ी रह गयी। उसी समय चंदा घर से निकली। देखा, कांवर पड़ी हुई है और कुंवर को लोग घोड़े पर बिठाये जा रहे हैं। चोट खाये हुए पक्षी की भांति वह कई कदम दौड़ी, फिर गिर पड़ी। उसकी आंखों में अंधेरा छा गया। सहसा उसकी दृष्टि पिता की लाश पर पड़ी। वह घबराकर उठी और लाश के पास जा पहुंची ! कुबेर अभी मरा न था। प्राण आंखों में अटके हुए थे।
चंदा को देखते ही क्षीण स्वर में बोला – ‘‘बेटी… कुंवर !’’ इसके आगे वह कुछ न कह सका। प्राण निकल गये; पर इस शब्द, ‘कुंवर’ ने उसका आशय प्रकट कर दिया।
बीस वर्ष बीत गये ! कुंवर कैद से न छूट सके। यह एक पहाड़ी किला था। जहां तक निगाह जाती, पहाड़ियां ही नजर आतीं। किले में उन्हें कोई कष्ट न था। नौकर-चाकर, भोजन-वस्त्र, सैर-शिकार, किसी बात की कमी न थी। पर, उस वियोगाग्नि को कौन शांत करता, जो नित्य कुंवर के हृदय में जला करती थी। जीवन में अब उनके लिए कोई आशा न थी, कोई प्रकाश न था। अगर कोई इच्छा थी, तो यही कि एकबार उस प्रेमतीर्थ की यात्रा कर लें, जहां उन्हें वह सब कुछ मिला, जो मनुष्य को मिल सकता है। हां, उनके मन में एकमात्र यही अभिलाषा थी कि उन पवित्र स्मृतियों से रंजित भूमि के दर्शन करके जीवन का उसी नदी के तट पर अंत कर दें। वही नदी का किनारा, वही वृक्ष का कुंज, वही चंदा का छोटा-सा सुन्दर घर उसकी आंखों में फिरा करता; और वह पौधा जिसे उन दोनों ने मिल कर सींचा था, उसमें तो मानो उसके प्राण ही बसते थे। क्या वह दिन भी आएगा, जब वह उस पौधे को हरी-हरी पत्तियों से लदा हुआ देखेगा ? कौन जाने, वह अब है भी या सूख गया ? कौन अब उसको सींचता होगा ? चंदा इतने दिनों अविवाहित थोड़े ही बैठी होगी ? ऐसा संभव भी तो नहीं। उसे अब मेरी सुध भी न होगी। हां, शायद कभी अपने घर की याद खींच लाती हो, तो पौधे को देखकर उसे मेरी याद आ जाती हो। मुझ जैसे अभागे के लिए इससे अधिक वह और कर ही क्या सकती है ! उस भूमि को एकबार देखने के लिए वह अपना जीवन दे सकता था; पर यह अभिलाषा न पूरी होती थी।
आह ! एक युग बीत गया, शोक और नैराश्य ने उठती जवानी को कुचल दिया। न आंखों में ज्योति रही, न पैरों में शक्ति। जीवन क्या था, एक दुःखदायी स्वप्न था। उस सघन अंधकार में उसे कुछ न सूझता था। बस, जीवन का आधार एक अभिलाषा थी, एक सुखद स्वप्न, जो जीवन में न जाने कब उसने देखा था। एकबार फिर वही स्वप्न देखना चाहता था। फिर उसकी अभिलाषाओं का अंत हो जाएगा, उसे कोई इच्छा न रहेगी। सारा अनंत भविष्य, सारी अनंत चिंताएं इसी एक स्वप्न में लीन हो जाती थीं। उसके रक्षकों को अब उसकी ओर से कोई शंका न थी। उन्हें उस पर दया आती थी। रात को पहरे पर केवल कोई एक आदमी रह जाता था और लोग मीठी नींद सोते थे। कुंवर भाग जा सकता है, इसकी कोई संभावना, कोई शंका न थी। यहां तक कि एकदिन यह सिपाही भी निःशंक होकर बंदूक लिए लेट रहा। निद्रा किसी हिंसक पशु की भांति ताक लगाये बैठी थी। लेटते ही टूट पड़ी। कुंवर ने सिपाही की नाक की आवाज सुनी। उनका हृदय बड़े वेग से उछलने लगा। यह अवसर आज कितने दिनों के बाद मिला था। वह उठे; मगर पांव थर-थर कांप रहे थे। बरामदे के नीचे उतरने का साहस न हो सका। कहीं इसकी नींद खुल गयी तो ? हिंसा उनकी सहायता कर सकती थी। सिपाही की बगल में उसकी तलवार पड़ी थी; पर प्रेम का हिंसा से बैर है। कुंवर ने सिपाही को जगा दिया। वह चौंक कर उठ बैठा। रहा-सहा संशय भी उसके दिल से निकल गया। दूसरी बार जो सोया, तो खर्राटे लेने लगा। प्रातःकाल जब उसकी निद्रा टूटी, तो उसने लपक कर कुंवर के कमरे में झांका। कुंवर का पता न था।
कुंवर इस समय हवा के घोड़े पर सवार, कल्पना की द्रुतगति से भागा जा रहा था, उस स्थान को, जहां उसने सुख-स्वप्न देखा था। किले में चारों ओर तलाश हुई, नायक ने सवार दौड़ाये; पर कहीं पता न चला। पहाड़ी रास्तों का काटना कठिन, उस पर अज्ञातवास की कैद, मृत्यु के दूत पीछे लगे हुए, जिनसे बचना मुश्किल। कुंवर को कामना-तीर्थ में महीनों लग गए। जब यात्रा पूरी हुई, तो कुंवर में एक कामना के सिवा और कुछ शेष न था। दिनभर की कठिन यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुंचे, तो संध्या हो गयी थी। वहां बस्ती का नाम भी न था। दो-चार टूटे-फूटे झोपड़े उस बस्ती के चिह्न-स्वरूप शेष रह गये थे। वह झोपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, जिसके नीचे उन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उपासना का मंदिर था, अब उनकी अभिलाषाओं की भांति भग्न हो गया था। झोपड़े की भग्नावस्था मूक भाषा में अपनी करुण-कथा सुना रही थी ! कुंवर उसे देखते ही ‘चंदा… चंदा !’ पुकारते हुए दौड़े, उन्होंने उस रज को माथे पर मला, मानो किसी देवता की विभूति हो, और उसकी टूटी हुई दीवारों से चिमटकर बड़ी देर तक रोते रहे। हाय रे अभिलाषा ! वह रोने ही के लिए इतनी दूर से आये थे ! रोने की अभिलाषा इतने दिनों से उन्हें विकल कर रही थी। पर इस रुदन में कितना स्वर्गीय आनंद था ! क्या समस्त संसार का सुख इन आंसुओं की तुलना कर सकता था ?
तब वह झोपड़े से निकले। सामने मैदान में एक वृक्ष हरे-हरे नवीन पल्लवों को गोद में लिए मानो उनका स्वागत करने खड़ा था। यह वह पौधा है, जिसे आज से बीस वर्ष पहले दोनों ने आरोपित किया था। कुंवर उन्मत्ता की भांति दौड़े और जाकर उस वृक्ष से लिपट गये, मानो कोई पिता अपने मातृहीन पुत्र को छाती से लगाये हुए हो। यह उसी प्रेम की निशानी है, उसी अक्षय प्रेम की जो इतने दिनों के बाद आज इतना विशाल हो गया है। कुंवर का हृदय ऐसा हो उठा, मानो इस वृक्ष को अपने अंदर रख लेगा, जिसमें उसे हवा का झोंका भी न लगे। उसके एक-एक पल्लव पर चंदा की स्मृति बैठी हुई थी। पक्षियों का इतना रम्य संगीत क्या कभी उन्होंने सुना था ? उनके हाथों में दम न था, सारी देह भूख-प्यास और थकान से शिथिल हो रही थी। पर, वह उस वृक्ष पर चढ़ गये, इतनी फुर्ती से चढ़े कि बंदर भी न चढ़ता। सबसे ऊंची फुनगी पर बैठकर उन्होंने चारों ओर गर्वपूर्ण दृष्टि डाली। यहीं उनकी कामनाओं का स्वर्ग था। सारा दृश्य चंदामय हो रहा था। दूर की नीली पर्वत श्रेणियों पर चंदा बैठी गा रही थी। आकाश में तैरने वाली लालिमामयी नौकाओं पर चंदा ही उड़ी जाती थी। सूर्य की श्वेत-पीत प्रकाश की रेखाओं पर चंदा ही बैठी हंस रही थी। कुंवर के मन में आया, पक्षी होता तो इन्हीं डालियों पर बैठा हुआ जीवन के दिन पूरे करता। जब अंधेरा हो गया, तो कुंवर नीचे उतरे और उसी वृक्ष के नीचे थोड़ी-सी भूमि झाड़कर पत्तियों की शय्या बनायी और लेटे। यहीं उनके जीवन का स्वर्ण-स्वप्न था, आह ! यही वैराग्य ! अब वह इस वृक्ष की शरण छोड़कर कहीं न जाएंगे, दिल्ली के तख्त के लिए भी वह इस आश्रम को न छोड़ेंगे। उसी स्निग्ध, अमल चांदनी में सहसा एक पक्षी आकर उस वृक्ष पर बैठा और दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह वृक्ष सिर धुन रहा है ! वह नीरव रात्रि उस वेदनामय संगीत से हिल उठी। कुंवर का हृदय इस तरह ऐंठने लगा, मानो वह फट जाएगा। स्वर में करुणा और वियोग के तीर-से भरे हुए थे। आह पक्षी ! तेरा भी जोड़ा अवश्य बिछुड़ गया है। नहीं तो तेरे राग में इतनी व्यथा, इतना विषाद, इतना रुदन कहां से आता ! कुंवर के हृदय के टुकड़े हुए जाते थे, एक-एक स्वर तीर की भांति दिल को छेदे डालता था। वह बैठे न रह सके। उठकर आत्म-विस्मृति की दशा में दौड़े हुए झोपड़े में गये, वहां से फिर वृक्ष के नीचे आये। उस पक्षी को कैसे पायें। कहीं दिखाई नहीं देता। पक्षी का गाना बंद हुआ, तो कुंवर को नींद आ गई। उन्हें स्वप्न में ऐसा जान पड़ा कि वही पक्षी उनके समीप आया। कुंवर ने ध्यान से देखा, तो वह पक्षी न था, चंदा थी; हां, प्रत्यक्ष चंदा थी।
कुंवर ने पूछा – ‘‘चंदा, यह पक्षी यहां कहां ?’’
चंदा ने कहा – ‘‘मैं ही तो वह पक्षी हूं।’’
कुंवर – ‘‘तुम पक्षी हो ! क्या तुम्हीं गा रही थी ?’’
चंदा – ‘‘हां प्रियतम, मैं ही गा रही थी। इसी तरह रोते-रोते एक युग बीत गया।’’
कुंवर – ‘‘तुम्हारा घोंसला कहां है ?’’
चंदा – ‘‘उसी झोपड़े में, जहां तुम्हारी खाट थी। उसी खाट के बान से मैंने अपना घोंसला बनाया है।’’
कुंवर – ‘‘और तुम्हारा जोड़ा कहां है ?’’
चंदा – ‘‘मैं अकेली हूं। चंदा को अपने प्रियतम के स्मरण करने में, उसके लिए रोने में जो सुख है, वह जोड़े में नहीं; मैं इसी तरह अकेली रहूंगी और अकेली मरूंगी।’’
कुंवर – ‘‘मैं क्या पक्षी नहीं हो सकता ?’’
चंदा चली गयी। कुंवर की नींद खुल गयी। उषा की लालिमा आकाश पर छायी हुई थी और वह चिड़िया कुंवर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी। अब उस संगीत में करुणा न थी, विलाप न था; उसमें आनंद था, चापल्य था, सारल्य था; वह वियोग का करुण-क्रन्दन नहीं, मिलन का मधुर संगीत था।
कुंवर सोचने लगे, इस स्वप्न का क्या रहस्य है ? कुंवर ने शय्या से उठते ही एक झाडू बनायी और झोपड़े को साफ करने लगे। उनके जीते-जी इसकी यह भग्न दशा नहीं रह सकती। वह इसकी दीवारें उठायेंगे, इस पर छप्पर डालेंगे, इसे लीपेंगे। इसमें उनकी चंदा की स्मृति वास करती है। झोपड़े के एक कोने में वह कांवर रखी हुई थी, जिस पर पानी ला-ला कर वह इस वृक्ष को सींचते थे। उन्होंने कांवर उठा ली और पानी लाने चले। दो दिन से कुछ भोजन न किया था। रात को भूख लगी हुई थी; पर इस समय भोजन की बिलकुल इच्छा न थी। देह में एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव होता था। उन्होंने नदी से पानी ला-ला कर मिट्टी भिगोना शुरू किया। दौड़े जाते थे और दौड़े आते थे। इतनी शक्ति उनमें कभी न थी। एक ही दिन में इतनी दीवार उठ गयी, जितनी चार मजदूर भी न उठा सकते थे। और कितनी सीधी, चिकनी दीवार थी कि कारीगर भी देखकर लज्जित हो जाता ! प्रेम की शक्ति अपार है !
संध्या हो गई। चिड़ियों ने बसेरा लिया। वृक्षों ने भी आंखें बंद कीं; मगर कुंवर को आराम कहां ? तारों के मलिन प्रकाश में मिट्टी के रद्दे रखे जा रहे थे। हाय रे कामना ! क्या तू इस बेचारे के प्राण ही लेकर छोड़ेगी ?
वृक्ष पर पक्षी का मधुर स्वर सुनाई दिया। कुंवर के हाथ से घड़ा छूट पड़ा। हाथ और पैरों में मिट्टी लपेटकर वह वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गये। उस स्वर में कितना लालित्य था, कितना उल्लास, कितनी ज्योति ! मानव-संगीत इसके सामने बेसुरा आलाप था। उसमें यह जागृति, यह अमृत, यह जीवन कहां ? संगीत के आनंद में विस्मृति है; पर वह विस्मृति कितनी स्मृतिमय होती है, अतीत को जीवन और प्रकाश से रंजित करके प्रत्यक्ष कर देने की शक्ति संगीत के सिवा और कहां है ! कुंवर के हृदय-नेत्रों के सामने वह दृश्य खड़ा हुआ जब चंदा इसी पौधे को नदी से जल ला-ला कर सींचती थी। हाय, क्या वे दिन फिर आ सकते हैं ?
सहसा एक बटोही आकर खड़ा हो गया और कुंवर को देखकर वह प्रश्न करने लगा, जो साधारणतः दो अपरिचित प्राणियों में हुआ करते हैं, कौन हो, कहां से आते हो, कहां जाओगे ? पहले वह भी इसी गांव में रहता था; पर जब गांव उजड़ गया, तो समीप के एक दूसरे गांव में जा बसा था। अब भी उसके खेत यहां थे। रात को जंगली पशु से अपने खेतों की रक्षा करने के लिए वह आकर सोता था।
कुंवर ने पूछा – ‘‘तुम्हें मालूम है, इस गांव में एक कुबेर सिंह ठाकुर रहते थे ?’’
किसान ने बड़ी उत्सुकता से कहा – ‘‘हां.. हां भाई, जानता क्यों नहीं ! बेचारे यहीं तो मारे गये। तुमसे भी क्या जान-पहचान थी ?’’
कुंवर – ‘‘हां, उन दिनों कभी-कभी आया करता था। मैं भी राजा की सेवा में नौकर था। उनके घर में और कोई न था ?’’
किसान – ‘‘अरे भाई, कुछ न पूछो; बड़ी करुण-कथा है। उनकी स्त्री तो पहले ही मर चुकी थी। केवल लड़की बच रही थी। आह ! कैसी सुशीला, कैसी सुघड़ लड़की थी ! उसे देखकर आंखों में ज्योति आ जाती थी। बिलकुल स्वर्ग की देवी जान पड़ती थी। जब कुबेर सिंह जीता था, तभी कुंवर राजनाथ यहां भागकर आये थे और उसके यहां रहे थे, उस लड़की की कुंवर से कहीं बातचीत हो गई। जब कुंवर को शत्रुओं ने पकड़ लिया, तो चंदा घर में अकेली रह गई। गांववालों ने बहुत चाहा कि उसका विवाह हो जाए। उसके लिए वरों का तोड़ा न था भाई ! ऐसा कौन था, जो उसे पाकर अपने को धन्य न मानता; पर वह किसी से विवाह करने पर राजी न हुई। यह पेड़, जो तुम देख रहे हो, तब छोटा-सा पौधा था। इसके आसपास फूलों की कई और क्यारियां थीं। इन्हीं को गोड़ने, निराने, सींचने में उसका दिन कटता था। बस, यही कहती थी कि हमारे कुंवर आते होंगे।’’
कुंवर की आंखों से आंसू की वर्षा होने लगी। मुसाफिर ने जरा दम लेकर कहा – ‘‘दिन-दिन घुलती जाती थी। तुम्हें विश्वास न आएगा भाई, उसने दस साल इसी तरह काट दिए। इतनी दुर्बल हो गई थी कि पहचानी न जाती थी; पर अब भी उसे कुंवर साहब के आने की आशा बनी हुई थी। आखिर एकदिन इसी वृक्ष के नीचे उसकी लाश मिली। ऐसा प्रेम कौन करेगा, भाई ! कुंवर न जाने मरे कि जिए, कभी उन्हें इस विरहिणी की याद भी आती है कि नहीं; पर इसने तो प्रेम को ऐसा निभाया जैसा चाहिए।’’
कुंवर को ऐसा जान पड़ा, मानो हृदय फटा जा रहा है। वह कलेजा थामकर बैठ गये।
मुसाफिर के हाथ में एक सुलगता हुआ उपला था। उसने चिलम भरी और दो-चार दम लगाकर बोला – ‘‘उसके मरने के बाद यह घर गिर गया। गांव पहले ही उजाड़ था। अब तो और भी सुनसान हो गया। दो-चार आदमी यहां आ बैठते थे। अब तो चिड़िया का पूत भी यहां नहीं आता। उसके मरने के कई महीने के बाद यही चिड़िया इस पेड़ पर बोलती हुई सुनाई दी। तबसे बराबर इसे यहां बोलते सुनता हूं। रात को सभी चिड़ियां सो जाती हैं; पर यह रातभर बोलती रहती है। इसका जोड़ा कभी नहीं दिखाई दिया। बस, फुट्टैल है। दिनभर उसी झोपड़े में पड़ी रहती है। रात को इस पेड़ पर आकर बैठती है; मगर इस समय इसके गाने में कुछ और ही बात है, नहीं तो सुनकर रोना आता है। ऐसा जान पड़ता है, मानो कोई कलेजे को मसोस रहा है। मैं तो कभी-कभी पड़े-पड़े रो दिया करता हूं। सबलोग कहते हैं कि यह वही चंदा है। अब भी कुंवर के वियोग में विलाप कर रही है। मुझे भी ऐसा जान पड़ता है। आज न जाने क्यों मगन है ?’’
किसान तंबाकू पीकर सो गया। कुंवर कुछ देर तक खोए हुए-से खड़े रहे। फिर धीरे से बोले – ‘‘चंदा, क्या सचमुच तुम्हीं हो, मेरे पास क्यों नहीं आती ?’’
एक क्षण में चिड़िया आकर उनके हाथ पर बैठ गई। चंद्रमा के प्रकाश में कुंवर ने चिड़िया को देखा। ऐसा जान पड़ा; मानो उनकी आंखें खुल गयी हों, मानो आंखों के सामने से कोई आवरण हट गया हो। पक्षी के रूप में भी चंदा की मुखाकृति अंकित थी।
दूसरे दिन किसान सोकर उठा तो कुंवर की लाश पड़ी हुई थी। कुंवर अब नहीं हैं, किन्तु उनके झोपड़े की दीवारें बन गयी हैं, ऊपर फूस का नया छप्पर पड़ गया है, और झोपड़े के द्वार पर फूलों की कई क्यारियां लगी हैं। गांव के किसान इससे अधिक और क्या कर सकते थे ?
उस झोपड़े में अब पक्षियों के एक जोड़े ने अपना घोंसला बनाया है। दोनों साथ-साथ दाने-चारे की खोज में जाते हैं, साथ-साथ आते हैं, रात को दोनों उसी वृक्ष की डाल पर बैठे दिखाई देते हैं। उनका सुरम्य संगीत रात की नीरवता में दूर तक सुनाई देता है। वन के जीव-जंतु वह स्वर्गीय गान सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। यह पक्षियों का जोड़ा कुंवर और चंदा का जोड़ा है, इसमें किसी को संदेह नहीं है। एकबार एक व्याध ने इन पक्षियों को फंसाना चाहा; पर गांव वालों ने उसे मारकर भगा दिया।

Leave a Reply

Your email address will not be published.


Get
Your
Book
Published
C
O
N
T
A
C
T