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रज़िया

रेखाचित्र

रामवृक्ष बेनीपुरी

रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर, 1899 – 7 सितंबर, 1968) एक महान भारतीय विचारक, चिन्तक, साहित्यकार, पत्रकार और संपादक थे। वे हिन्दी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। बेनीपुरी जी ने ललित निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, नाटक, उपन्यास, कहानी, बाल साहित्य में जो महान रचनाएं प्रस्तुत की, वे आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। जन्म मुजफ्फरपुर जिले (बिहार) के बेनीपुर गांव के एक भूमिहर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता के देहावसान हो जाने के कारण पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आठ वर्ष जेल में बिताये थे। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन को खड़ा करने में आपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार दिया जाता है। 7 सितंबर, 1968 को वे इस संसार से विदा हो गये।

रज़िया

कानों में चांदी की बालियां, गले में चांदी का हैकल, हाथों में चांदी के कंगन और पैरों में चांदी की गोड़ांई – भरबांह की बूटेदार कमीज पहने, काली साड़ी के छोर को गले में लपेटे, गोरे चेहरे पर लटकते हुए कुछ बालों को संभालने में परेशान वह छोटी-सी लड़की जो उस दिन मेरे सामने आकर खड़ी हो गई थी – अपने बचपन की उस रजिया की स्मृति ताजा हो उठी, जब मैं अभी उस दिन अचानक उसके गांव में जा पहुंचा।
हां, यह मेरे बचपन की बात है। मैं कसाईखाने से रस्सी तुड़ाकर भागे हुए बछड़े की तरह उछलता हुआ अभी-अभी स्कूल से आया था और बरामदे की चौकी पर अपना बस्ता स्लेट पटककर मौसी से छठ में पके ठेकुए लेकर उसे कुतर-कुतर कर खाता हुआ ढेंकी पर झूला झूलने का मजा पूरा करना चाह रहा था कि उधर से आवाज आई – ‘‘देखना, बबुआ का खाना छू मत देना।’’ और उसी आवाज के साथ मैंने देखा, यह अजीब रूप-रंग की लड़की मुझसे दो-तीन गज आगे खड़ी हो गई।
मेरे लिए यह रूप-रंग सचमुच अजीब था। ठेठ हिंदुओं की बस्ती है मेरी और मुझे मेले-पेठिए में भी अधिक नहीं जाने दिया जाता। क्योंकि सुना है, बचपन में मैं एक मेले में खो गया था। मुझे कोई औघड़ लिए जा रहा था कि गांव की एक लड़की की नजर पड़ी और मेरा उद्धार हुआ। मैं मां-बाप का इकलौता – मां चल बसी थीं। इसलिए उनकी इस एकमात्र धरोहर को मौसी आंखों में जुगोकर रखतीं। मेरे गांव में भी लड़कियों की कमी नहीं; किंतु न उनकी यह वेश-भूषा, न यह रूप-रंग मेरे गांव की लड़कियां कानों में बालियां कहां डालती और भरबांह की कमीज पहने भी उन्हें कभी नहीं देखा और गोरे चेहरे तो मिले हैं, किंतु इसकी आंखों में जो एक अजीब कस्मि का नीलापन दिखता, वह कहां ? और, समुचे चेहरे की काट भी कुछ निराली जरूर तभी तो मैं उसे एकटक घूरने लगा।
यह बोली थी रजिया की मां, जिसे प्रायः ही अपने गांव में चूड़ियों की खंचिया लेकर आते देखता आया था। वह मेरे आंगन में चूड़ियों का बाजार पसारकर बैठी थीं और कितनी बहू-बेटियां उसे घेरे हुई थीं। मुंह से भाव-साव करती और हाथ से खरीदारों के हाथ में चूड़ियां चढ़ाती वह सौदे पटाए जा रही थी। अब तक उसे अकेले ही आते-जाते देखा था; हां, कभी-कभी उसके पीछे कोई मर्द होता जो चूड़ियों की खांची ढोता। यह बच्ची आज पहली बार आई थी और न जाने किस बाल-सुलभ उत्सुकता ने उसे मेरी ओर खींच लिया था। शायद वह यह भी नहीं जानती थी कि किसी के हाथ का खाना किसी के निकट पहुंचने से ही छू जाता है। मां जब अचानक चीख उठी, वह ठिठकी सहमी – उसके पैर तो वहीं बंध गए। किंतु इस ठिठक ने उसे मेरे बहुत निकट ला दिया, इसमें संदेह नहीं।
मेरी मौसी झट उठी, घर में गई और दो ठेकुए और एक कसार लेकर उसके हाथों में रख दिए। वह लेती नहीं थी, किंतु अपनी मां के आग्रह पर हाथ में रख तो लिया, किंतु मुंह से नहीं लगाया ! मैंने कहा – खाओ ! क्या तुम्हारे घरों में ये सब नहीं बनते ? छठ का व्रत नहीं होता ? कितने प्रश्न – किंतु सबका जवाब ‘न’ में ही और वह भी मुंह से नहीं, जरा सा गरदन हिलाकर और गरदन हिलाते ही चेहरे पर गिरे बाल की जो लटें हिल-हिल उठती, वह उन्हें परेशानी से संभालने लगती।
जब उसकी मां नई खरीदारिनों की तलाश में मेरे आंगन से चली, रजिया भी उसके पीछे हो ली। मैं खाकर, मुंह धोकर अब उसके निकट था और जब वह चली, जैसे उसकी डोर में बंधा थोड़ी दूर तक घिसटता गया। शायद मेरी भावुकता देखकर ही चूड़ीहारिनों के मुंह पर खेलने वाली अजस्त्र हंसी और चुहल में ही उसकी मां बोली – ‘‘बबुआजी, रजिया से ब्याह कीजिएगा ?’’ फिर बेटी की ओर मुखातिब होती मुस्कुराहट में कहा – ‘‘क्यों रे रजिया, यह दुलहा तुम्हें पसंद है ?’’ उसका यह कहना कि मैं मुड़कर भागा। ब्याह ? एक मुसलमानिन से ? अब रजिया की मां ठठा रही थी और रजिया सिमटकर उसके पैरों में लिपटी थी, कुछ दूर निकल जाने पर मैंने मुड़कर देखा।
रजिया, चूड़ीहारिन ! वह इसी गांव की रहने वाली थी। बचपन में इसी गांव में रही और जवानी में भी। क्योंकि मुसलमानों की गांव में भी शादी हो जाती है न ! और यह अच्छा हुआ – क्योंकि बहुत दिनों तक प्रायः उससे अपने गांव में ही भेंट हो जाया करती थी।
मैं पढ़ते-पढ़ते बढ़ता गया। पढ़ने के लिए शहरों में जाना पड़ा। छुट्टियों में जब-तब आता, इधर रजिया पढ़ तो नहीं सकी, हां, बढ़ने में मुझसे पीछे नहीं रही। कुछ दिनों तक अपनी मां के पीछे-पीछे घूमती फिरी। अभी उसके सिर पर चूड़ियों की खंचिया तो नहीं पड़ी, किंतु खरीदारिनों के हाथों में चूड़ियां पहनाने की कला वह जान गई थी। उसके हाथ मुलायम हैं, बहुत मुलायम नई बहुओं की यही राय थी। वे उसी के हाथ से चूड़ियां पहनना पसंद करतीं। उसकी मां इससे प्रसन्न ही हुई – जब तक रजिया चूड़ियां पहनाती, वह नई-नई खरीदारिनें फंसाती।
रजिया बढ़ती गई। जब-जब भेंट होती, मैं पाता, उसके शरीर में नए-नए विकास हो रहे हैं; शरीर में और स्वभाव में भी। पहली भेंट के बाद पाया था, वह कुछ प्रगल्भ हो गई है। मुझे देखते ही दौड़कर निकट आ जाती, प्रश्न पर प्रश्न पूछती। अजीब अटपटे प्रश्न ! देखिए तो ये नई बालियां आपको पसंद हैं ? क्या शहरों में ऐसी ही बालियां पहनी जाती हैं ? मेरी मां शहर से चुड़ियां लाती है, मैंने कहा है, वह इस बार मुझे भी ले चलें। आप किस तरफ रहते हैं वहां ? क्या भेंट हो सकेगी ? वह बके जाती, मैं सुनता जाता ! शायद जवाब की जरूरत यह भी नहीं महसूस करती।
फिर कुछ दिनों के बाद पाया, वह अब कुछ सकुचा रही है। मेरे निकट आने के पहले वह इधर-उधर देखती और जब कुछ बातें करती तो ऐसी चौकन्नी-सी कि कोई देख न ले, सुन न ले। एक दिन जब वह इसी तरह बातें कर रही थी कि मेरी भौजी ने कहा – ‘‘देखियो री रजिया, बबुआजी को फुसला नहीं लीजियो।’’ वह उनकी ओर देखकर हंस तो पड़ी, किंतु मैंने पाया, उसके दोनों गाल लाल हो गए हैं और उन नीली आंखों के कोने मुझे सजल-से लगे। मैंने तब से ध्यान दिया, जब हम लोग कहीं मिलते हैं, बहुत सी आंखें हम पर भालों की नौक ताने रहती हैं।
रजिया बढ़ती गई, बच्चों से किशोरी हुई और अब जवानी के फूल उसके शरीर पर खिलने लगे हैं। अब भी वह मां के साथ ही आती है; किंतु पहले वह मां की एक छाया मात्र लगती थी, अब उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। और उसकी छाया बनने के लिए कितनों के दिलों में कसमसाहट है, जब वह बहनों को चूड़ियां पहनाती होती है, कितने भाई तमाशा देखने को वहां एकत्र हो जाते हैं। क्या ? बहनों के प्रति भातृभाव या रजिया के प्रति अज्ञात आकर्षण उन्हें खींच लाता है ? जब वह बहुओं के हाथों में चूड़ियां ठेलती होती है, पतिदेव दूर खड़े कनखियों से देखते रहते हैं। क्या ? अपनी नवोढ़ा की कोमल कलाइयों पर कोड़ा करती हुई रजिया की पतली उंगलियों को ! और, रजिया को इसमें रस मिलता है। पतियों से चुहले करने से भी वह बाज नहीं आती – ‘बाबू बड़ी महीन चूड़ियां हैं ! जरा देखिएगा, कहीं चटक न जाएं !’ पतिदेव भागते हैं, बहुएं खिलखिलाती हैं। रजिया ठट्ठा लगाती है। अब वह अपने पेशे में निपुण होती जाती है।
हां, रजिया अपने पेशे में भी निपुण होती जाती थी। चूड़ीहारिन के पेशे के लिए सिर्फ यही नहीं चाहिए कि उसके पास रंग-बिरंगी चूड़ियां हों – सस्ती, टिकाऊ, टटके-से-टटके फैशन की। बल्कि यह पेशा चूड़ियों के साथ चूड़ीहारिनों में बनाव-शृंगार, रूप-रंग, नाज-ओ-अदा भी खोजता है, जो चूड़ी पहननेवालियों को ही नहीं, उनको भी मोह सके, जिनकी जेब से चूड़ियों के लिए पैसे निकलते हैं। सफल चूड़ीहारिन यह रजिया की मां भी किसी जमाने में क्या कुछ कम रही होगी ! खंडहर कहता है, इमारत शानदार थी !
ज्यों-ज्यों शहर में रहना बढ़ता गया, रजिया से भेंट भी दुर्लभ होती गई और एक दिन वह भी आया, जब बहुत दिनों पर उसे अपने गांव में देखा। पाया, उसके पीछे एक नौजवान चूड़ियों की खांची सिर पर लिए है। मुझे देखते ही वह सहमी, सिकुड़ी और मैंने मान लिया, यह उसका पति है। किंतु, तो भी अनजान-सा पूछ ही लिया – ‘‘इस जमूरे को कहां से उठा लाई है रे ?’’ ‘‘इसी से पूछिए, साथ लग गया तो क्या करूं ?’’ नौजवान मुस्कुराया, रजिया भी हंसी, बोली – ‘‘यह मेरा खाबिंद है, मालिक !’’
‘‘खाबिंद !’’ बचपन की उस पहली मुलाकात में उसकी मां ने दिल्लगी-दिल्लगी में जो कह दिया था, न जाने, वह बात कहां सोई पड़ी थी ! अचानक वह जगी और मेरी पेशानी पर उस दिन शिकन जरूर उठ आए होंगे, मेरा विश्वास है और एक दिन वह भी आया कि मैं भी खाबिंद बना ! मेरी रानी को सुहाग की चूड़ियां पहनाने उस दिन यही रजिया आई, और उस दिन मेरे आंगन में कितनी धूम मचाई इस नटखट ने। यह लूंगी, वह लूंगी और ये मुंहमांगी चीजें नहीं मिलीं तो वह लूंगी कि दुलहन टापती रह जाएंगी !
‘‘हट हट, तू बबुआजी को ले जाएगी तो फिर तुम्हारा यह हसन क्या करेगा ?’’ भौजी ने कहा। ‘‘यह भी टापता रहेगा बहुरिया’’, कहकर रजिया ठट्ठा मारकर हंसी और दौड़कर हसन से लिपट गई। ‘‘ओहो, मेरे राजा, कुछ दूसरा न समझना’’ हसन भी हंस पड़ा। रजिया अपनी प्रेमकथा सुनाने लगी, किस तरह यह हसन उसके पीछे पड़ा, किस तरह झंझटें आईं, फिर किस तरह शादी हुई और वह आज भी किस तरह छाया-सा उसके पीछे घूमता है। न जाने कौन सा डर लगा रहता है इसे ? और फिर, मेरी रानी की कलाई पकड़कर बोली – ‘‘मालिक भी तुम्हारे पीछे इसी तरह छाया की तरह डोलते रहें, दुलहन !’’ सारा आंगन हंसी से भर गया था और उस हंसी में रजिया के कानों की बालियों ने अजीब चमक भर दी थी, मुझे ऐसा ही लगा था।
जीवन का रथ खुरदरे पथ पर बढ़ता गया। मेरा भी, रजिया का भी। इसका पता उस दिन चला, जब बहुत दिनों पर उससे अचानक पटना में भेंट हो गई। यह अचानक भेंट तो थी; किंतु क्या इसे भेंट कहा जाए ?
मैं अब जियादातर घर से दूर-दूर ही रहता। कभी एकाध दिन के लिए घर गया तो शाम को गया, सुबह भागा। तरह-तरह की जिम्मेदारियां, तरह-तरह के जंजाल ! इन दिनों पटना में था, यूं कहिए, पटना सिटी में एक छोटे से अखबार में था – पीर-बावर्ची-भिश्ती की तरह ! यों जो लोग समझते कि मैं संपादक ही हूं। उन दिनों न इतने अखबार थे, न इतने संपादक। इसलिए मेरी बड़ी कदर है, यह मैं तब जानता जब कभी दफ्तर से निकलता। देखता, लोग मेरी ओर उंगली उठाकर फुसफुसा रहे हैं। लोगों का मुझ पर यह ध्यान – मुझे हमेशा अपनी पद-प्रतिष्ठा का खयाल रखना पड़ता।
एक दिन मैं चौक के एक प्रसिद्ध पानवाले की दुकान पर पान खा रहा था। मेरे साथ मेरे कुछ प्रशंसक युवक थे। एक-दो बुज़ुर्ग भी आकर खड़े हो गए। हम पान खा रहे थे और कुछ चुहलें चल रही थीं कि एक बच्चा आया और बोला, ‘‘बाबू, वह औरत आपको बुला रही है।’’
‘‘औरत ! बुला रही है ? चौक पर !’’ मैं चौंक पड़ा। युवकों में थोड़ी हलचल, बुज़ुर्गों के चेहरों पर की रहस्यमयी मुस्कान भी मुझसे छिपी नहीं रही। औरत ! कौन ? मेरे चेहरे पर ग़ुस्सा था, वह लड़का सिटपिटाकर भाग गया।
पान खाकर जब लोग इधर-उधर चले गए, अचानक पाता हूं, मेरे पैर उसी ओर उठ रहे हैं, जिस ओर उस बच्चे ने उंगली से इशारा किया था। थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर पीछे देखा, परिचितों में से कोई देख तो नहीं रहा है। किंतु इस चौक की शाम की रूमानी फिजा में किसी को किसी की ओर देखने की कहां फ़ुरसत ! मैं आगे बढ़ता गया और वहां पहुंचा, जहां उससे पूरब वह पीपल का पेड़ है। वहां पहुंच ही रहा था कि देखा, पेड़ के नीचे चबूतरे की तरफ से एक स्त्री बढ़ी आ रही है और निकट पहुंचकर यह कह उठी – ‘‘सलाम मालिक !’’
धक्का-सा लगा, किंतु पहचानते देर नहीं लगी – उसने ज्यों ही सिर उठाया, चांदी की बालियां जो चमक उठीं !
‘‘रजिया ! यहां कैसे ?’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा।
‘‘सौदा-सुलफ करने आई हूं, मालिक ! अब तो नए किस्म के लोग हो गए न ? अब लाख की चूड़ियां कहां किसी को भाती हैं। नए लोग, नई चूड़ियां ! साज-सिंगार की कुछ और चीजें भी ले जाती हूं – पॉडर, किलप, क्या क्या चीजें हैं न। नया जमाना, दुलहनों के नए-नए मिजाज !’’
फिर जरा सा रुककर बोली, ‘‘सुना था, आप यहां रहते हैं, मालिक। मैं तो अकसर आया करती हूं।’’
…और यह जब तक पूछें कि अकेली हो या कि… एक अधवयस्क आदमी ने आकर सलाम किया। यह हसन था। लंबी-लंबी दाढ़ियां, पांच हाथ का लंबा आदमी, लंबा और मुस्टंडा भी। ‘‘देखिए मालिक, यह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता !’’ यह कहकर रजिया हंस पड़ी। अब रजिया वह नहीं थी, किंतु उसकी हंसी वही थी। वही हंसी, वही चुहल ! इधर-उधर की बहुत सी बातें करती रही और न जाने कब तक जारी रखती कि मुझे याद आया, मैं कहां खड़ा हूं और अब मैं कौन हूं, कोई देख ले तो ?
किंतु वह फ़ुरसत दे तब न ! जब मैंने जाने की बात की, हसन की ओर देखकर बोली, ‘‘क्या देखते हो, जरा पान भी तो मालिक को खिलाओ। कितनी बार हुमच-हुमचकर भरपेट ठूंस चुके हो बाबू के घर।’’
जब हसन पान लाने चला गया, रजिया ने बताया कि किस तरह दुनिया बदल गई है। अब तो ऐसे भी गांव हैं, जहां के हिंदू मुसलमानों के हाथ से सौदे भी नहीं खरीदते। अब हिंदू चूड़ीहारिने हैं, हिंदू दर्जी हैं। इसलिए रजिया जैसे खानदानी पेशेवालों को बड़ी दिक्कत हो गई है। किंतु, रजिया ने यह ख़ुशखबरी सुनाई – ‘मेरे गांव में यह पागलपन नहीं, और मेरी रानी तो सिवा रजिया के किसी दूसरे के हाथ से चूड़ियां लेती ही नहीं।’
हसन का लाया पान खाकर जब मैं चलने को तैयार हुआ, वह पूछने लगी, ‘‘तुम्हारा डेरा कहां है ?’’ मैं बड़े पशोपेश में पड़ा। ‘‘डरिए मत मालिक, अकेले नहीं आऊंगी, यह भी रहेगा। क्यों मेरे राजा ?’’ यह कहकर वह हसन से लिपट पड़ी। ‘‘पगली, पगली, यह शहर है, शहर !’’ यूं हसन ने हंसते हुए बाह छुड़ाई और बोला, ‘‘बाबू, बाल बच्चों वाली हो गई, किंतु इसका बचपना नहीं गया।’’
और दूसरे दिन पाता हूं, रजिया मेरे डेरे पर हाजिर है ! ‘‘मालिक, ये चूड़ियां रानी के लिए।’’ कहकर मेरे हाथों में चूड़ियां रख दी।
मैंने कहा, ‘‘तुम तो घर पर जाती ही हो, लेती जाओ, वहीं दे देना।’’
‘‘नहीं मालिक, एक बार अपने हाथ से भी पिन्हाकर देखिए !’’ कह खिलखिला पड़ी। और जब मैंने कहा, ‘‘अब इस उम्र में ?’’ तो वह हसन की ओर देखकर बोली, ‘‘पूछिए इससे, आज तक मुझे यही चूड़ियां पिन्हाता है या नहीं ?’’ और, जब हसन कुछ शरमाया, वह बोली, ‘‘घाघ है मालिक, घाघ ! कैसा मुंह बना रहा है इस समय ! लेकिन जब हाथ-में-हाथ लेता है…’’, ठठाकर हंस पड़ी, इतने जोर से कि मैं चौंककर चारों तरफ देखने लगा।
हां, तो अचानक उस दिन उसके गांव में पहुंच गया। चुनाव का चक्कर – जहां न ले जाए, जिस औघट-घाट पर न खड़ा कर दें ! नाक में पेट्रोल के धुएं की गंध, कान में सांय-सांय की आवाज, चेहरे पर गरद-ग़ुबार का अंबार परेशान, बदहवास; किंतु उस गांव में ज्यों ही मेरी जीप घुसी, मैं एक खास किस्म की भावना से अभिभूत हो गया।
यह रजिया का गांव है। यहां रजिया रहती थी। किंतु क्या आज मैं यहां यह भी पूछ सकता हूं कि यहां कोई रजिया नाम की चूड़ीहारिन रहती थी, या है ? हसन का नाम लेने में भी शर्म लगती थी। मैं वहां नेता बनकर गया था, मेरी जय-जयकार हो रही थी। कुछ लोग मुझे घेरे खड़े थे। जिसके दरवाजे पर जाकर पान खाऊंगा, वह अपने को बड़भागी समझेगा, जिससे दो बातें कर लूंगा, वह स्वयं चर्चा का एक विषय बन जाएगा। इस समय मुझे कुछ ऊंचाई पर ही रहना चाहिए।
जीप से उतरकर लोगों से बातें कर रहा था, या यूं कहिए कि कल्पना के पहाड़ पर खड़े होकर एक आने वाले स्वर्ण युग का संदेश लोगों को सुना रहा था, किंतु दिमाग में कुछ गुत्थियां उलझी थीं। जीभ अभ्यासवश एक काम किए जा रही थी, अंतर्मन कुछ दूसरा ही ताना-बाना बुन रहा था। दोनों में कोई तारतम्य न था; किंतु इसमें से किसी एक की गति में भी क्या बाधा डाली जा सकती थी ?
कि अचानक लो, यह क्या ? वह रजिया चली आ रही है ! रजिया ! वह बच्ची, अरे, रजिया फिर बच्ची हो गई ? कानों में वे ही बालियां, गोरे चेहरे पर वे ही नीली आंखें, वही भरबांह की कमीज, वे ही कुछ लटें, जिन्हें संभालती बढ़ी आ रही है। बीच में चालीस पैंतालीस साल का व्यवधान ! अरे, मैं सपना तो नहीं देख रहा ? दिन में सपना ! वह आती है, जबरन ऐसी भीड़ में घुसकर मेरे निकट पहुंचती हैं, सलाम करती हैं और मेरा हाथ पकड़कर कहती है, ‘‘चलिए मालिक, मेरे घर।’’
मैं भौचक्का, कुछ सूझ नहीं रहा, कुछ समझ में नहीं आ रहा ! लोग मुस्कुरा रहे हैं – नेताजी, आज आपकी कलई खुलकर रही ! नहीं, यह सपना है ! कि कानों में सुनाई पड़ा, कोई कह रहा है – ‘कैसी शोख लड़की !’ और दूसरा बोला – ‘ठीक अपनी दादी जैसी !’ और तीसरे ने मेरे होश की दवा दी – ‘‘यह रजिया की पोती है, बाबू ! बेचारी बीमार पड़ी है। आपकी चर्चा अकसर किया करती है। बड़ी तारीफ करती है। बाबू, फ़ुरसत हो तो जरा देख लीजिए, न जाने बेचारी जीती है या…।’’
मैं रजिया के आंगन में खड़ा हूं। ये छोटे-छोटे साफ-सुथरे घर, यह लिपा पुता चिक्कन ढुर-ढुर आंगन ! भरी-पूरी गृहस्थी – मेहनत और दयानत की देन। हसन चल बसा है, किंतु अपने पीछे तीन हसन छोड़ गया है। बड़ा बेटा कलकत्ता कमाता है, मंझला पुश्तैनी पेशे में लगा है, छोटा शहर में पढ़ रहा है। यह बच्ची बड़े बेटे की बेटी। दादा का सिर पोते में, दादी का चेहरा पोती में। बहू रजिया ! यह दूसरी रजिया मेरी उंगली पकड़े पुकार रही है – ‘‘दादी, ओ दादी ! घर से निकल, मालिक दादा आ गए !’’ किंतु पहली ‘वह’ रजिया निकल नहीं रही। कैसे निकले ? बीमारी के मैले कुचौले कपड़े में मेरे सामने कैसे आवे ?
रजिया ने अपनी पोती को भेज दिया, किंतु उसे विश्वास न हुआ कि हवागाड़ी पर आने वाले नेता अब उसके घर तक आने की तकलीफ कर सकेंगे ? और, जब सुना, मैं आ रहा हूं, तो बहुओं से कहा – ‘जरा मेरे कपड़े तो बदलवा दो – मालिक से कितने दिनों पर भेंट हो रही है न !’
उसकी दोनों पतोहुएं उसे सहारा देकर आंगन में ले आई। रजिया – हां, मेरे सामने रजिया खड़ी थी, दुबली-पतली, रूखी-सूखी। किंतु जब नजदीक आकर उसने – ‘मालिक, सलाम’ कहा, उसके चेहरे से एक क्षण के लिए झुर्रियां कहां चली गई, जिन्होंने उसके चेहरे को मकड़जाला बना रखा था। मैंने देखा, उसका चेहरा अचानक बिजली के बल्ब की तरह चमक उठा और चमक उठीं वे नीली आंखें, जो कोटरों में धंस गई थीं ! और, अरे चमक उठी हैं आज फिर वे चांदी की बालियां और देखो, अपने को पवित्र कर लो ! उसके चेहरे पर फिर अचानक लटककर चमक रही हैं वे लटें, जिन्हें समय ने धो-पोंछकर शुभ-श्वेत बना दिया है।

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