हींगवाला
सुभद्रा कुमारी चौहान
परिचय : सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त, 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था। सुभद्रा की काव्य प्रतिभा बचपन से ही सामने आ गई थी। इनका विद्यार्थी जीवन प्रयाग में ही बीता। 1913 में नौ वर्ष की आयु में पहली कविता प्रयाग से प्रकाषित पत्रिका ‘मर्यादा’ में सुभद्राकुंवरि के नाम से छपी। सुभद्रा और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियां थीं। सुभद्रा की पढ़ाई नौवीं कक्षा के बाद छूट गई। फिर नवलपुर के सुप्रसिद्ध ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ इनका विवाह हो गया। सुभद्रा अपने पति के साथ सत्याग्रह में शामिल हो गईं और उन्होंने जेलों में ही जीवन के कई महत्त्वपूर्ण वर्ष गुज़ारे। 1920-21 में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे।
लगभग 35 साल का एक खान आंगन में आकर रुका। उसकी आवाज सुनाई दी, ‘‘अम्मा… हींग लोगी ?’’ भीतर से नौ-दस वर्ष के एक बालक ने निकलकर उत्तर दिया, ‘‘अभी कुछ नहीं लेना है, जाओ !’’ पर खान भला क्यों जाने लगा ? जरा आराम से बैठ गया और अपने साफे के छोर से हवा करता बोला, ‘‘अम्मा, हींग ले लो, अम्मा ! हम अपने देश जाता है, बहुत दिनों में लौटेगा।’’
सावित्री रसोईघर से हाथ धोकर बाहर आई और बोली, ‘‘हींग तो बहुत-सी ले रखी है खान ! अभी पंद्रह दिन हुए नहीं, तुमसे ही तो ली थी।’’
वह उसी स्वर में फिर बोला, ‘‘हेरा हींग है मां, हमको तुम्हारे हाथ की बोहनी लगती है। एक ही तोला ले लो, पर लो जरूर।’’ इतना कहकर एक डिब्बा सावित्री के सामने सरकाते हुए कहा, ‘‘तुम और कुछ मत देखो मां, यह हींग एक नंबर है।’’
सावित्री बोली, ‘‘पर हींग लेकर करूंगी क्या ? ढेर-सी तो रखी है।’’
खान ने कहा, ‘‘ले लो अम्मा ! घर में पड़ी रहेगी। हम अपने देश कू जाता है। ख़ुदा जाने, कब लौटेगा ?’’ और खान बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए हींग तोलने लगा। इसपर सावित्री के बच्चे नाराज हुए। सभी बोल उठे, ‘‘मत लेना मां, जबरदस्ती तोले जा रहा है।’’ सावित्री ने बच्चों को उत्तर न देकर, हींग की पुड़िया ले ली। पूछा, ‘‘कितने पैसे हुए खान ?’’ ‘‘पैंतीस पैसे अम्मा !’’ खान ने उत्तर दिया। सावित्री ने सात पैसे तोले के भाव से पांच तोले का दाम, पैंतीस पैसे लाकर खान को दे दिए। खान सलाम करके चला गया। पर बच्चों को मां की यह बात अच्छी न लगी।
बड़े लड़के ने कहा, ‘‘मां, तुमने खान को वैसे ही पैंतीस पैसे दे दिए। हींग की जरूरत नहीं थी।’’ छोटा मां से चिढ़कर बोला, ‘‘दो मां, पैंतीस पैसे हमको भी दो। हम बिना लिए न रहेंगे।’’ लड़की जिसकी उम्र आठ साल की थी, बड़े गंभीर स्वर में बोली, ‘‘तुम मां से पैसा न मांगो। वह तुम्हें न देंगी। उनका बेटा वही खान है।’’ सावित्री को बच्चों की बातों पर हंसी आ रही थी। उसने हंसी दबाकर बनावटी क्रोध से कहा, ‘‘चलो-चलो, बड़ी बातें बनाने लग गए हो, खाना तैयार है।’’
छोटा बोला, ‘‘पहले पैसे दो। तुमने खान को दिए हैं।’’
सावित्री ने कहा, ‘‘खान ने पैसे के बदले में हींग दी है। तुम क्या दोगे ?’’
छोटा बोला, ‘‘मिट्टी देंगे।’’
सावित्री हंस पड़ी, ‘‘अच्छा चलो, पहले खाना खा लो, फिर मैं रुपया तुड़वाकर तीनों को पैसे दूंगी।’’ खाना खाते-खाते हिसाब लगाया। तीनों में बराबर पैसे कैसे बंटें ? छोटा कुछ पैसे कम लेने की बात पर बिगड़ पड़ा, ‘‘कभी नहीं, मैं कम पैसे नहीं लूंगा !’’ दोनों में मारपीट हो चुकी होती, यदि मुन्नी थोड़े कम पैसे लेना स्वीकार न करती।
कई महीने बीत गए। सावित्री की सब हींग खत्म हो गई। इस बीच होली आई। होली के अवसर पर शहर में खासी मारपीट हो गई थी। सावित्री कभी-कभी सोचती, हींगवाला तो नहीं मार डाला गया ? न जाने क्यों, खान की याद उसे प्रायः आ जाया करती थी।
एकदिन सवेरे-सवेरे सावित्री उसी मौलसिरी के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी कुछ बुन रही थी। उसने सुना, उसके पति किसी से कड़े स्वर में कह रहे हैं, ‘‘क्या काम है ? भीतर मत जाओ। यहां आओ।’’ उत्तर मिला, ‘‘हींग है, हेरा हींग।’’ और खान तबतक आंगन में सावित्री के सामने पहुंच चुका था। खान को देखते ही सावित्री ने कहा, ‘‘बहुत दिनों में आए खान ! हींग तो कब की खत्म हो गई।’’
खान बोला, ‘‘अपने देश गया था अम्मा, परसों ही तो लौटा हूं।’’ सावित्री ने कहा, ‘‘यहां तो बहुत जोरों का दंगा हो गया है।’’ खान बोला, ‘‘सुना, समझ नहीं है लड़ने वालों में।’’
सावित्री बोली, ‘‘खान, तुम हमारे घर चले आए। तुम्हें डर नहीं लगा ?’’
दोनों कानों पर हाथ रखते हुए खान बोला, ‘‘ऐसी बात मत करो अम्मा। बेटे को भी क्या मां से डर हुआ है, जो मुझे होता ?’’ और इसके बाद ही उसने डिब्बा खोला और एक छटांक हींग तोलकर सावित्री को दे दी। रेजगारी दोनों में से किसी के पास नहीं थी। खान ने कहा कि वह पैसा फिर आकर ले जाएगा। सलाम करके वह चला गया।
इस बार लोग दशहरा दूने उत्साह के साथ मनाने की तैयारी में थे। चार बजे शाम को मां काली का जुलूस निकलने वाला था। बच्चों ने कहा, ‘‘हम भी जुलूस देखने जाएंगे।’’
सावित्री के पति शहर से बाहर गए थे। सावित्री स्वभाव से भीरु थी। उसने बच्चों को पैसों का, खिलौनों का, सिनेमा का… न जाने कितने प्रलोभन दिए, पर बच्चे न माने, सो न माने। नौकर रामू भी जुलूस देखने को बहुत उत्सुक हो रहा था। उसने कहा, ‘‘भेज दो न मां जी, मैं अभी दिखाकर लिए आता हूं।’’ लाचार होकर सावित्री को बच्चों को बाहर भेजना पड़ा। उसने बार-बार रामू को समझाया कि दिन रहते ही वह बच्चों को लेकर लौट आए।
देखते-ही-देखते दिन ढल चला। अंधेरा भी बढ़ने लगा, पर बच्चे न लौटे। अब सावित्री को न भीतर चैन था, न बाहर। इतने में उसे कुछ आदमी सड़क पर भागते हुए जान पड़े। वह दौड़कर बाहर आई, पूछा, ‘‘ऐसे भागे क्यों जा रहे हो ? जुलूस तो निकल गया न।’’ एक आदमी बोला, ‘‘दंगा हो गया जी, बड़ा भारी दंगा !’’
सावित्री के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। तभी कुछ लोग तेजी से आते दिखे। सावित्री ने उन्हें भी रोका। उन्होंने भी कहा, ‘‘दंगा हो गया है !’’
अब सावित्री क्या करे ? उन्हीं में से एक से कहा, ‘‘भाई, तुम मेरे बच्चों की खबर ला दो। दो लड़के हैं, एक लड़की। मैं तुम्हें मुंह मांगा इनाम दूंगी।’’
एक देहाती ने जवाब दिया, ‘‘क्या हम तुम्हारे बच्चों को पहचानते हैं मां जी ?’’ यह कहकर वह चला गया।
सावित्री सोचने लगी, सच तो है, इतनी भीड़ में भला कोई मेरे बच्चों को खोजे भी कैसे ? पर अब वह भी करे, तो क्या करे ? उसे रह-रहकर अपने पर क्रोध आ रहा था। आखिर उसने बच्चों को भेजा ही क्यों ? वे तो बच्चे ठहरे, जिद तो करते ही, पर भेजना उसके हाथ की बात थी। सावित्री पागल-सी हो गई। बच्चों की मंगल-कामना के लिए उसने सभी देवी-देवता मना डाले। शोरगुल शांत हो गया। रात के साथ-साथ नीरवता बढ़ चली, पर बच्चे न आए। सावित्री हताश हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी। उसी समय उसे वही चिरपरिचित स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘अम्मा !’’
सावित्री दौड़कर बाहर आई। उसने देखा, उसके तीनों बच्चे खान के साथ सकुशल लौट आए हैं। खान ने सावित्री को देखते ही कहा, ‘‘वक्त अच्छा नहीं है अम्मा ! बच्चों को ऐसी भीड़-भाड़ में बाहर न भेजा करो।’’ बच्चे दौड़कर मां से लिपट गए।