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आखिर हम कहां जा रहे हैं

प्रो. (डॉ.) सुधा सिन्हा

आखिर हम कहां जा रहे हैं,
चारों तरफ बलात्कारी पा रहे हैं।
सतयुग में एकबार सीता उठी थी,
द्वापर में द्रौपदी की साड़ी उतरी थी।
यहां तो बार-बार बिटिया उठती है,
जिंदगी जीने को हर पल तरसती है।
स्कूलों में बेटियां सुरक्षित नहीं हैं,
अस्पताल में वे मृत-द्वार खड़ी हैं।
मामा-काका बनके रेपिस्ट आता,
घरों से उठा के उनको ले जाता।
सरकार अब भी चुप्पी साधे हुई है,
एक आंख उसकी जैसे बंद हो रही है।
कड़ा से कड़ा कोई कानून बनाओ,
रेपिस्ट को सीधे स्वर्गवासी बनाओ।
आंखें उनकी फोड़ो नपुंसक बनाओ,
रेप करने का तो मजा चखाओ।

बेटियों को सम्मान दो

बेटियों को देश में सम्मान चाहिए,
भेड़ियों के लिए बस श्मशान चाहिए।
जिंदगी को उसने तो बर्बाद कर दिया,
उसके लिए नहीं कोई कद्रदान चाहिए।
सूली पे उसको तू लटकाना मार के,
उसको अब नहीं कोई क्षमादान चाहिए।
भ्रष्टाचार उसके नख से शिख पे चढ़ गया,
उसको अब नहीं कोई मेहरबान चाहिए।
कह रही है यह ‘सुधा’, जालिमों अब तो सुन,
जिंदा तू क्यों अब तलक, क्यों एहसान चाहिए।

दर्द

मानव जाति शर्मिंदा है,
कातिल क्यों कर जिंदा है।
तू तो कोई राक्षस है,
नारी जाति का भक्षक है,
इंसानियत तेरी कहां मर गई,
दरिंदगी हद को पार कर गई।
मां-बहना तेरी जिंदा है,
मिला क्यों नहीं फंदा है,
उनको रुसवा करना है,
तुमको बहुत ही रोना है।
कहानी तेरी नागवार कर गई,
दर्द जिगर गुलजार कर गई।
माता-पिता आंसू भर रोये,
सारी रात वे पल ना सोये,
बिटिया उनकी कैसे सुबकी,
कुछ भी वे तो समझ न पाये,
सुस्त सारा कारोबार कर गई,
सूना तो घर-बार कर गई।

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