रॉन्ग नंबर
बांग्ला कहानी
महाश्वेता देवी

महाश्वेता देवी (14 जनवरी, 1926 – 28 जुलाई, 2016) एक सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। इनकी कई रचनाओं पर फिल्म भी बनाई गई। उपन्यास ‘रुदाली’ पर कल्पना लाजमी ने तथा ‘हजार चौरासी की मां’ पर गोविन्द निहलानी ने बिना नाम बदले फिल्म बनाई। इन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मश्री, 1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपये इन्होंने बंगाल के पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था। इनकी जो रचनाएं बांग्ला से हिन्दी में रुपांतरण की गई, उनमें से कुछ हैं – अक्लांत कौरव, अग्निगर्भ, अमृत संचय, आदिवासी कथा, ईंट के ऊपर ईंट, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, उम्रकैद, कृष्ण द्वादशी, ग्राम बांग्ला, चोट्टि मुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, जकड़न, जली थी अग्निशिखा, झांसी की रानी, टेरोडैक्टिल, नटी, बनिया बहू, मर्डरर की मां, मातृछवि, मास्टर साब, मीलू के लिए, रिपोर्टर, श्री गणेश महिमा, स्त्री पर्व और स्वाहा आदि।
रॉन्ग नंबर
रात एक बजे का समय। तीर्थ बाबू की नींद टूट गई। टेलीफोन बज रहा था। आधी रात में टेलीफोन बजने से क्यों इतना डर लगता है ?
‘‘हैलो। सुनिए… अस्पताल से बोल रहा हूं… आपका पेशेंट अभी-अभी मर गया। हैलो।…’’
‘‘हमारा पेशेंट ? हमारा कोई पेशेंट अस्पताल में नहीं है।’’
‘‘आपका नंबर…?’’
‘‘रॉन्ग नंबर ! टेलीफोन रख दीजिए।’’
ये लोग रॉन्ग नंबर पर फोन करते ही क्यों हैं ? तीर्थ बाबू ने फोन उतारकर नीचे रख दिया। डर लगता है, बहुत डर लगता है।
‘‘अचानक फोन क्यों बजने लगता है ? इतना रॉन्ग नंबर क्यों होता है ?’’ सविता पूछती है।
काफी दिनों से सविता या तीर्थ बाबू रात गये तक सोते नहीं। ठीक बारह बजे रात को तीर्थ बाबू नींद की एक गोली खाते हैं। गोली खाकर आंखें मूंदकर लेट जाते हैं और चिंताओं को मन से दूर करने की चेष्टा करते हैं। कर नहीं पाते। लाख कोशिश करके भी चिंताओं को मन से हटाने में तीर्थ बाबू सफल नहीं हो पाते। उनकी चेतना और अवचेतना, प्रथम स्तर की चेतना और अतल स्तर की चेतना, प्रत्येक के बीच में सीधी दीवारें उठ खड़ी होती हैं। उन दीवारों पर पोस्टर चिपके होते हैं। दीपंकर की तस्वीरें, बचपन का दीपंकर, घुटा हुआ सिर, भोला-भाला चेहरा। मैट्रिक पास दीपंकर। ग्रैजुएट दीपंकर। लंबा छरहरा शरीर, भावुक और शांत चेहरा।
दीपंकर ! तीर्थ बाबू का एकमात्र लड़का। संतान, संतान ! आदमी संतान की चाहत क्यों करता है ? संतान को प्यार क्यों करता है ? तीर्थ बाबू रोज ही यह प्रश्न अपने से करते हैं। फिर नींद आती है। गहरी, फिर भी घबराहट और आतंक में डूबी हुई नींद। लगता है सविता अब भी नहीं सोई। इसीलिए वे पूछती हैं, ‘‘किसका फोन है ?’’
‘‘रॉन्ग नंबर है।’’
‘‘कहां से आया था ?’’
‘‘अस्पताल से।’’
‘‘अस्पताल से ? सुनो जी। कहीं हमारा ही फोन न हो ?’’
‘‘पागलपन तो करो मत सबू। तुम जानती हो दीपू, नीरेन के पास है। वहां से वह नीरेन को दिल्ली में भर्ती कराने की कोशिश कर रहा है। सब कुछ जानकर पागलपन क्यों करती हो ?’’
‘‘नीरेन के पास अगर होता, तो दीपू हमें चिट्ठी क्यों नहीं लिखता ? नीरेन हमें चिट्ठी क्यों नहीं लिखता ? क्या तुम लोग सोचते हो कि मैं रोऊंगी-गाऊंगी ? दौड़कर नीरेन के पास चली जाऊंगी ?’’
‘‘सबू, घबराओ मत।’’
‘‘मुझे लगता है दीपू नीरेन के पास नहीं है। नीरेन जानबूझकर हमें कुछ नहीं बता रहा है ?’’
‘‘चुप करो सबू, रोओ मत। सब ठीक हो जाएगा। तुम तो जानती हो, दीपू के भाग जाने का कोई कारण नहीं है।’’
‘‘तो फिर वह आता क्यों नहीं ?’’
‘‘सबू ! बीमार रहते-रहते तुम्हारा दिमाग भी कमजोर पड़ गया है। समय बहुत खराब है। हमारा इलाका भी कोई अच्छा इलाका नहीं है, इसीलिए वह नहीं आता।’’
सविता अब रोना शुरू कर देती है, धीरे-धीरे, बिसूर-बिसूरकर। रोते-रोते ही एक समय सविता की आंख लग जाती है। तीर्थ बाबू को नींद आने में देर होती है। क्या हो गया इस देश को ! अच्छा। रोगी अगर मर जाए तो टू-थ्री एक्सचेंज का नंबर देने पर फोर-सैवन पर तुम लोग फोन करना ? रॉन्ग नंबर। जिनका वह रोगी होगा, उनके मन की हालत क्या होगी ? या फिर, शायद कोई हालत ही न हो। आजकल लगता है सभी कुरूक्षेत्र के अर्जुन जैसे हो गए हैं, मृत्यु को अत्यंत वैराग्यभाव से लेते हैं। शायद लाशें बिस्तरों पर ही पड़ी रहती हैं। खर्चा बचाने के लिए रिश्तेदार वहां से फूट लेते हैं, लौटकर आते ही नहीं। या शायद एयरकंडीशंड मुर्दाघर में पड़ी रहती हैं। उन्हें कोई देखने भी नहीं आता।
तीर्थ बाबू को डर लगता है, यूं ही अकारण डर लगता है। उन्हें लगता है, जिस कलकत्ता में, जिस पश्चिम बंगाल में वह रहते हैं, वह कोई और कलकत्ता है, कोई और पश्चिम बंगाल। देखने से लगता है वही शहर है, वही बड़ा मैदान, मॉन्यूमेंट, भवानीपुर, अलीपुर, चड़कडांगा का मोड़। आषाढ़ में पहले जैसा ही रथों का मेला, चैत्र में कालीघाट की भीड़ और माघ में बड़े दिन की रोशनी।
नहीं, यह वह शहर नहीं है। यह एक गलत शहर है। रॉन्ग सिटी। गलत ट्रेन में चढ़कर गलत शहर में आ गए हैं तीर्थ बाबू।
वरना, सविता को दिए गए सारे प्रबोधनों को भूलकर तीर्थ बाबू सोचते हैं, वरना दीपंकर चिट्ठी क्यों नहीं लिखता ? क्यों नीरेन दीपंकर की कोई खबर नहीं देता ? क्यों, क्यों आदमी संतान चाहता है, क्यों बेटे को प्यार करता है, बेटी को प्यार करता है ? इसलिए कि मरने पर वह उसके मुंह में आग देगा ? रॉन्ग नंबर। जबतक जीवित हैं, तभी तक तो तीर्थ बाबू संतान को चाहते हैं। तू मेरे पास रह, तू मेरे निकट रह। मेरी यंत्रणा ले, मेरी ज्वाला ले, मेरा भाग्य ले। मेरे साथ एकाकार होना सीख। रॉन्ग होप।
लगता है कहीं कोई एक्सचेंज है इस शहर में, इस शहर में वह एक्सचेंज कहां है ? वहां पर बैठकर कौन तीर्थ बाबू से कहता जा रहा है रॉन्ग नंबर! रॉन्ग सिटी। रॉन्ग होप।
वह कौन है ? वह अदृश्य ऑपरेटर कहां है ? वह ऑपरेटर दिखायी क्यों नहीं देता ? सोचते-सोचते तीर्थ बाबू किसी पत्थर की तरह गुडुप से नींद में डूब जाते हैं। इसी तरह चलता है, दिन से रात, सोम से रवि और सवेरे से शाम तक सब कुछ। तीर्थ बाबू को रातों से डर लगता है, क्योंकि नींद में उन्हें दीवारों की कतारों पर कतारें दीख पड़ती हैं। दीवार पर दीपंकर का चेहरा अंकित होता है। नींद में ही तीर्थ बाबू सोचते हैं – तो क्या वे मनोज के पास जाएं ? मनोज उनका मित्र है। वह एक मनोचिकित्सक भी है। निश्चय ही तीर्थ बाबू बीमार हैं।
‘‘तुम्हें बीमारी है, तीर्थ !’’ मनोज ने राय दी। वह लक्ष्य कर रहा था – तीर्थ बाबू का सूखा हुआ मुंह, कातर दृष्टि और बार-बार माथे का पसीना पोंछने की कोशिश।
‘‘क्या बीमारी है ?’’
‘‘नर्व की बीमारी है।’’
‘‘नर्व तो मेरा ठीक ही है, मनोज।’’
‘‘तुम्हारी चिन्ताएं अजीब हैं।’’
‘‘अजीब !’’
‘‘तुमने क्या कहा है, लो सुनो।’’
मनोज टेपरिकॉर्डर चला देता है। मनोज अपने रोगियों का वक्तव्य टेप कर लेता है। फिर उस पर विचार करता है। राय देता है। तीर्थ बाबू टेपरिकॉर्डर को देखते हुए मन ही मन पैसों का हिसाब कर रहे थे। तभी अचानक एक थका हुआ मद्धिम स्वर उन्हें सुनाई पड़ता है।
‘‘मुझे लगता है, घर मेरा नहीं है। दरवाजा खटखटाने से कोई दरवाजा नहीं खोलेगा, क्योंकि मैं रॉन्ग एड्रेस पर आ गया हूं। रास्ते में चलते हुए मुझे लगता है कि कलकत्ता अब कलकत्ता नहीं रह गया है। यह कलकत्ता नहीं है। बाहर का सब कुछ – मकान, दरवाजा, बड़ा मैदान, मॉन्यूमेंट – सब कुछ किसी और शहर के हाथ में थमाकर कलकत्ता कहीं भाग गया है। मुझे लगता है, इट इज ए रॉन्ग सिटी। कोई जरूरत नहीं थी, फिर भी अपने को विश्वास दिलाने के लिए कि यह वही कलकत्ता शहर है, मैं एकदिन केवड़ा तल्ला गया था। दीवारों पर जो लिखा था, उसे पढ़कर मैं समझ गया कि मैं गलत जगह पर आ गया हूं। उस दिन मैंने स्वप्न देखा था।’’ मनोज ने टेपरिकॉर्डर रोक दिया। फिर तीर्थ बाबू की तरफ देखा और बोला, ‘‘क्या सपना देखा था, तीर्थ ?’’
‘‘बता नहीं सकता।’’
‘‘क्या सपना देखा था ?’’
‘‘मुझसे मत पूछो मनोज, मुझसे मत पूछो। यह स्वप्न मैं अक्सर देखता हूं।’’
‘‘इसी कारण मेरे लिए यह जानना जरूरी है।’’
‘‘नहीं मनोज।’’
‘‘तुम बीमार हो। स्वाभाविक है, तुम्हारा बीमार होना स्वाभाविक है।’’
‘‘क्यों ? मेरे लिए बीमार होना स्वाभाविक क्यों है ?’’
‘‘तुम्हारा लड़का तो…।’’
‘‘हमारा लड़का क्या ?’’
‘‘घर में नहीं है।’’
‘‘मनोज, मैं नहीं जानता तुमसे किसने बताया है। मेरा लड़का दीपंकर अपने कजिन के पास लखनऊ में है। वहां से दिल्ली पढ़ने जाएगा दीपंकर।’’
‘‘ओह गॉड।’’ मनोज जैसे बड़ी यंत्रणा और दुःख से बोलता है। उसके सीने में से एक लंबी सांस बाहर आती है। तीर्थ को क्या हो गया है। उसके दोस्तों में से सबसे ठंडे दिमागवाला और सबसे अच्छा लड़का था तीर्थ।
‘‘ओह गॉड।’’ मनोज एक कागज पर दवा का नाम लिखता है। फिर कागज फाड़कर फेंक देता है और दवा की एक शीशी तीर्थ बाबू को देते हुए कहता है, ‘‘इसे रात में खा लेना, तीर्थ। नींद आएगी।’’
‘‘अच्छा। लाओ दो।’’ तीर्थ बाबू दवा की शीशी लेते हैं और बाहर आ जाते हैं। मनोज दरवाजे तक उनके साथ आता है, फिर कहता है, ‘‘तुम्हारे पास बोस तो फिर नहीं गया था ?’’
‘‘नहीं, क्यों पूछ रहे हो ?’’
‘‘मैंने उसे मना किया है।’’
‘‘तुम क्या समझते हो, वह आए तो मैं उसे घर में घुसने दूंगा ? बेकार में आकर सविता से आलतू-फालतू बातें करता है।’’
तीर्थ बाबू बाहर निकल आए। इस समय शाम हो रही है या सवेरा हो रहा है ? सड़क पर कतारों में लोग चले जा रहे हैं। यहां के रास्ते एकदम फांका पड़े हैं ? ‘निर्जन पथ… मेघावृता रजनी… आंधी-वर्षा… जयसिंह छुरी पर शान दे रहा है।’ रवीन्द्रनाथ की पुस्तक का यह वर्णन तीर्थ बाबू को बहुत अच्छा लगता था। दीपंकर की पुस्तक में एक पाठ था – ’राजर्षि’। तीर्थ बाबू को लगा कि उनकी आंखों से टपटप पानी चू रहा है।
आजकल की संतान बड़ी घातक हो गयी है। हां, घातक हो गए हैं वे। माता-पिता की निश्चित हत्या करते हैं। तीर्थ बाबू दवा की शीशी को बड़े यत्न से हाथ में थामे चले जा रहे थे, जैसे वह ओलंपिक की पवित्र मशाल हो।
आज रात नींद में तीर्थ बाबू ने फिर वही स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि चौरंगी में सड़क के दोनों ओर लाखों लोग खड़े हैं। वे सब पत्थर के बुत की तरह निश्चल हैं। सड़क की दोनों ओर बड़ी-बड़ी नियोन लाइट की सफेद बत्तियां जली हुई हैं। सड़क के बीच में ढेर-सारा ख़ून फैला हुआ है। वहां खड़ी होकर एक प्रौढ़ा स्त्री दोनों हाथों से अपनी छाती पीट रही है। और ‘प्रवीर ! प्रवीर ! प्रवीर !’ कहकर विलाप कर रही है। उसके लंबे केश खुले हुए हैं और उसके मुंह के इर्द-गिर्द लटक रहे हैं। स्त्री को देखकर तीर्थ बाबू समझ गए कि वह और कोई नहीं, पुराण में वर्णित जना है।
दूर-दूर भीषण प्रांतर में
मरूभूमि में, दुरंत श्मशान में,
यहां तेरा नहीं स्थान।
दुर्गम कांतार में, तुषारावृत,
चल पर्वत शिखरों पर
चल पापराज्य त्यज,
पति तेरा पुत्रघाती अराति का है साथी।
चल पुत्रशोकातुरा।
स्त्री के विलाप से जैसे आकाश की छाती फट रही है। यही समय है – पर्दा गिरा दो। घंटी बजाओ। कौन चीख रहा है यह कहकर। किसने कहा यह माहिष्मतीपुर नहीं है। चले जाओ।
उसी क्षण तीर्थ बाबू कहना चाहते थे, ‘‘शी इज इन दि रॉन्ग सिटी।’’ मगर उसी समय घंटा बजने लगा – घन्न। घन्न। घन्न। घन्न।
घंटा बज रहा है। फोन बज रहा है। तीर्थ बाबू उठकर बैठ गए। आदमी टेलीफोन क्यों रखता है ? किराया देने में जीभ बाहर निकल आती है, सांस ऊपर की ऊपर रह जाती है जब ?
तीर्थ बाबू ने रिसीवर उठाया। ‘‘फोर सेवेन… नाइन ?’’
ठीक यही नंबर तीर्थ बाबू के सामने रखे टेलीफोन के ऊपर लिखा है। तीर्थ बाबू ने कहा, ‘‘नो !’’
‘‘यह तीर्थकर चटर्जी का घर नहीं है ?’’
‘‘नो !’’
‘‘तीर्थ बाबू, यह मैं हूं, बोस ! हां, उस दिन मैंने जो कहा था। …दूर रेल लाइन के पास वाले घर में, हां ! दीपंकर की लाश। डायड ऑफ इंजरीज। आप तो आए नहीं। बॉडी हैज बीन क्रिमेटेड। हैलो। सुन रहे हैं ?’’
‘‘नो।’’
‘‘क्या यह तीर्थकर चटर्जी का मकान नहीं है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘यह फोर सैवन… नाइन नहीं है ?’’
‘‘नहीं, नहीं, रॉन्ग नंबर।’’
तीर्थ बाबू ने फोन नीचे रख दिया। फिर न जाने क्या सोचकर रिसीवर उठाकर रख दिया। उसके बाद जाकर बिस्तर पर लेट गए। फिर सपना देखना होगा। जैसे भी हो वह सपना एकबार और देखना ही होगा। स्वप्न देखने के बाद ही तीर्थ बाबू जान पाएंगे कि किस प्रकार उन्मादिनी जना रॉन्ग सिटी से भागी थी। सपने के अलावा आज तीर्थ बाबू के पास और कुछ भी नहीं है। जागकर कलकत्ता के रास्तों पर घूमने से एक भी निकल भागने का रास्ता तीर्थ बाबू खोज नहीं पाते। अब इन्हें जना के पीछे-पीछे जाना होगा। प्रवीर की मृत्यु के बाद, प्रवीर के बाप को लेकर सभी लोग जब विजयोत्सव में मग्न थे, तभी अकेली जना भाग गयी थी।
तीर्थ बाबू को नींद आ गई।