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स्वातन्त्र्योत्तर ग्रामीण यथार्थ और ‘लोकऋण’

डाॅ. ज्योति रानी

विवेकी राय हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इन्होंने ग्रामीण परिवेश को अपनी लेखनी का आधार बनाया है। हिन्दी साहित्य में ग्राम समाज के यथार्थ का चित्रण प्रेमचन्द से आरम्भ होता है, जिसे विवेकी राय ने अपने लेखन से और अधिक विकसित किया है। यदि आज़ादी के पहले के ग्राम समाज को प्रेमचन्द के साहित्य के माध्यम से समझा जा सकता है, तो आज़ादी के बाद का गांव विवेकी राय के साहित्य में संक्रमणशील यथार्थ के साथ अभिव्यक्त हुआ है। विवेकी राय ने अपना जीवन गांव में व्यतीत किया। वह सदैव खेत-खलिहान, नदी-झरने, फूल-पौधे, गांव की मिट्टी से जूड़कर रहे और ग्रामीण जीवन के यही संस्कार उनकी लेखनी का आधार बने हैं।
‘लोकऋण’ विवेकी राय कृत एक महत्वपूर्ण औपन्यासिक रचना है। आलोच्य उपन्यास आज़ादी के बाद के ग्रामीण समाज का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। उपन्यास में लेखक ने ‘रामपुर’ गांव को कथा का आधार बनाकर सम्पूर्ण भारत के आठवें दशक के गांवों का चित्र उभारा है। स्वतंत्रता के पश्चात् राष्ट्रीय सरकार द्वारा ग्रामीण विकास हेतु कई कार्यक्रम चलाए गए, जिनमें चकबन्दी, भूदान आन्दोलन, जमींदारी उन्मूलन आदि महत्वपूर्ण हैं। इन योजनाओं से गांव का कुछ विकास तो हुआ, परन्तु आर्थिक आपाधापी में गांव की सहजता और स्वाभाविकता भी नष्ट होती गई। गांव की सादगी, आपसी लगाव, नैतिक मूल्य आदि का हृास होने लगा, वस्तुतः यही भाव ‘लोकऋण’ में चित्रित हुआ है। ‘गांव अब रहने लायक नहीं रहा’, ‘गांव में अब नरक है’ आदि भाव उपन्यास में बार-बार ध्वनित होते हैं।
त्रिभुवन सिंह, धरमू और गिरीश उपन्यास के मुख्य पात्र हैं, जो तीन अलग-अलग मानसिकताओं को चित्रित करते हैं। त्रिभुवन सिंह गांव का सभापति है और स्वतंत्र्योत्तर भारत के बड़े किसान का प्रतिनिधित्व करता है। वह शोषक वर्ग का भी प्रतिनिधि पात्र है। चकबन्दी के समय अधिकारी के साथ मिलकर सार्वजनिक स्थल ‘बनगंगी’ को अपने चक में मिला लेता है और सार्वजनिक पुस्तकालय को भी हड़प लेता है। जब पंचायत में इस विषय पर चर्चा होती है, तो वह स्पष्टतः इनकार कर देता है, ‘‘यहां कोई पुस्तकालय-फुस्तकालय नहीं है। यह जो देख रहे हैं, मेरा खेत है।’’
आज़ादी के पहले महात्मा गांधी के प्रभावस्वरूप गांव-गांव पुस्तकालय खोले गए, लेकिन आर्थिक विकास के साथ व्यक्ति इतना संकुचित होता गया कि सार्वजनिक स्थलों पर जबरन आधिपत्य जमाने लगा। परिणामतः अधिकांश पुस्तकालय नष्ट हो गए, जो कुछ नए खुले भी, वे बड़े लोगों के संरक्षण में थे, जो कालान्तर में उनकी निजी सम्पत्ति बनते गए। त्रिभुवन सिंह भी यही करता है। पुस्तकालय को अपनी ज़मीन में मिलाकर पुस्तकों को बंदी बना लेता है और उनको मुक्त करने के लिए गांव वालों से 2000 रुपये की मांग करता है। प्रभावी व्यक्तित्व होने के कारण गांव में कोई भी उसका विरोध नहीं कर पाता। वास्तव में पुस्तकालयों का इस प्रकार सांस्कृतिक पतन आधुनिक ग्राम समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है।

राष्ट्र की आज़ादी के बाद ग्राम सुधार के अनेक कार्यक्रम चलाए गए थे। इनमें चकबन्दी महत्वपूर्ण है। इन कार्यक्रमों से कुछ सकारात्मक परिवर्तन तो हुआ, किन्तु इनमें बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार भी देखने को मिलता है। गांव के प्रभावी व्यक्ति अपनी इच्छा से कहीं भी चक बिठा देते हैं, वह छोटे किसानों की उपजाऊ ज़मीनों को अपने चक में मिला लेते हैं। ग्रामीण सौदागर तिवारी छोटे किसान सुरेन्द्र शर्मा के चक को हथियाना चाहता है। सौदागर तिवारी की मंशा को सुरेन्द्र शर्मा के शब्दों में समझा जा सकता है। वह हर नारायण राय से कहता है, ‘‘इस गांव में वह जब से होश हुआ, देख रहा है कि ज़मीन वाले और बटोरने के लिए क्या-क्या नहीं कर्म-कुकर्म करते हैं।’’ अधिकांश विकास कार्यों की यही परिणति होती है।
गांव में आपसी वैमनस्य बढ़ाने में चुनाव प्रणाली की विशेष भूमिका रही है। आज़ादी के पूर्व भारतीय ग्राम में पंचायत व्यवस्था थी, हालांकि यह पंचायत व्यवस्था कभी भी पूर्णतः निष्पक्ष नहीं रही है। परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् चुनाव प्रणाली ने गांव की सहज जीवन शैली को प्रभावित किया है। गांव की शांति भंग की है। दिन-रात पार्टीबाजी, लाउडस्पीकर पर नारेबाजी, एक दूसरे का दुष्प्रचार आदि घटनाओं को बढ़ावा मिला। जिसने गांव को गुटों में बांट दिया, उपन्यास में इसका सजीव चित्रण मिलता है। त्रिभुवन सिंह और सौदागर तिवारी सभापति के चुनाव में प्रत्याशी हैं। दोनों गांव में एक-दूसरे का दुष्प्रचार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए वे हर सम्भव प्रयास करते हैं। दोनों गुटों में मारपीट होती है; मुकदमेबाजी होती है और गांव के लोग आपस में विभाजित हो जाते हैं। मूलतः उपन्यासकार ने ग्रामीण विकास के लिए चुनाव से अधिक महत्वपूर्ण शिक्षा को माना है, ताकि जनता उचित व्यक्ति का चुनाव कर सके। मास्टर गिरिश के माध्यम से लेखक ने शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित किया है। गिरीश कहता है, ‘‘सभापति का यह चुनाव है कि सत्यानाशी तमाशा ? … गांवों का मुल्क रोगग्रस्त है। उसे चुनाव के घी के पूर्व शिक्षा की औषधि चाहिए।’’ वास्तव में आज़ादी के पश्चात् ग्राम समाज में सभापति जैसे पदों पर भ्रष्ट लोगों का ही आधिपत्य रहा है। यह लोग अपनी शक्ति का मनमाना दुप्र्रयोग करते रहे हैं। त्रिभुवन ऐसा ही पात्र है, जो गांव के सार्वजनिक स्थलों पर जबरन कब्जा कर लेता है। मज़दूर ‘लोमर’ के परिवार से बेगार करवाता है। त्रिभुवन का बेटा ‘आज़ाद’ गांव के दलित युवक को पीटता है। उसकी यह निरंकुशता देखकर मास्टर गिरीश जो त्रिभुवन का भाई है, वह भी चाहता है कि त्रिभुवन सभापति का चुनाव हार जाए।
उपन्यास में धरमू और सिरताज बाबा के माध्यम से स्वतन्त्रता के बाद गांधीवाादी विचारों की मूल्यहीनता को भी दिखाया गया है। धरमू का कथन, ‘‘अब गांव हम लोगों के रहने लायक नहीं रहा।’’ पाठकीय संवेदना को झकझोरता है। धरमू सुराजी रहा है। वह गांधीवादी विचारों से प्रभावित व्यक्ति है। अनशन के द्वारा सदैव गलत के विरुद्ध आवाज़ उठाता रहा है। उसने राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया, परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् उसे उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। त्रिभुवन सिंह जब पुस्तकालय को हड़प लेता है तो धरमू उसका विरोध करता है। त्रिभुवन सिंह के विरोध करने पर उसे भत्र्सना सहनी पड़ती है। अंततः वह सस्ता राशन ब्लैक करने के लिए मजबूर हो जाता है और घर छोड़कर भाग जाता है। गांधीवादी धरमू की यह उपेक्षा देखकर ‘मैला आंचल’ उपन्यास के पात्र बावनदास का स्मरण हो आना स्वाभाविक है।
उपन्यास में दूसरा सुराजी ‘सिरताज बाबा’ है। सन् 1930 में सिरताज ने नशे के खिलाफ आन्दोलन किया था, परन्तु अपने समाज में तिरस्कृत होने के कारण वह स्वयं नशे में डूब जाता है। धरमू जब सिरताज को समझाने का प्रयास करता है तो वह प्रत्युत्तर में कहता है, ‘‘तुम जेल गये और पेंशन पदक लेकर स्वतन्त्रता सेनानी हो गए। मैं स्वराज्य के खेल में फंसा तो गंजेड़ी हो गया। मेरा भी कोई त्रिभुवन जैसा चलता पुरजा छोटा भाई होता और एक दुकान जैसी सरकारी चीज़ दिला देता तो तुम मुझे देखते।’’
सिरताज का चित्रण पाठक को व्यथित करता है। लेखक ने सिरताज का चरित्र मनोरंजन और नशे में लिप्त दिखाया है, परन्तु उसके भीतर एक सांस्कृतिक पीड़ा है, जो पाठक को सोचने के लिए विवश करती है कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जिसने एक सुराजी को नशे की ओर धकेल दिया। वस्तुतः सिरताज का वाक्य, ‘सुराज के बाद उसका नशा उतर गया’ सम्पूर्ण ग्राम समाज की विसंगतियों को चित्रित करता है। मूलतः लेखक ने गांव की दुर्गति का मुख्य कारण शिक्षित लोगों द्वारा शहरों की ओर पलायन को माना है। आज़ादी के बाद गांव से शहरों की ओर विस्थापन हुआ है, इसमें अधिकांश जनसंख्या पढ़े-लिखे लोगों की है। लेखक का विचार है कि यदि शिक्षित व्यक्ति पढ़-लिखकर शहर भाग जाएगा तो स्वाभाविक है कि सभापति के पद पर त्रिभुवन जैसे खलपात्र ही राज करेंगे। गिरीश ऐसा ही एक शिक्षित पात्र है, जो ‘इलाहाबाद’ में अध्यापक के पद पर कार्यरत है। उपन्यास में उसे द्वन्द्वग्रस्त दिखाया गया है। वह सेवानिवृत होने के पश्चात् गांव में रहने की सोचता है, परन्तु गांवों में आपसी मनमुटाव, पार्टीबाजी तथा गांव का नैतिक पतन देखकर शहर चला जाता है। उसे नया गांव आहत करता है, फिर भी वह मानता है कि ‘‘गांव आज भी पूर्ण रूप से जीवित है। वह विक्षिप्त और बेचैन है। अविश्वास, वैमनस्य और द्रोह की दुष्प्रवृत्तियां भड़क उठी हैं और अशान्ति दिखाई पड़ रही है, लेकिन यह सब होते हुए भी सुलह सम्भव है। शान्ति सम्भव है। ग्राम विकास सम्भव है।’’ परन्तु प्रश्न यह उठता है कि ग्राम विकास तो सम्भव है, लेकिन इसे करेगा कौन ? शिक्षित पीढ़ी तो शहरों की ओर प्रस्थान कर रही है। त्रिभुवन सिंह के चरित्र से गिरीश व्यथित है। वह चाहता है कि त्रिभुवन सभापति का चुनाव हार जाए। इसके अतिरिक्त वह सोचता है कि संपत्ति में उसका जो हिस्सा होगा, उससे वह ‘बनगंगी’ को मुक्त कर देगा। वृन्दावन बाबू ने गिरीश के माध्यम से युवा शिक्षित पीढ़ी की संवेदना को कुरेदने का प्रयास किया है। वे कहते हैं, ‘‘मैं ईमानदारी की बात कह रहा हूं गिरीश बाबू। आप जैसे लोगों ने यदि इसे ऐसे बंजर छोड़ दिया तो सारी कृषि क्रान्ति की नयी पैदावार बेकार है – बोलिए आयेंगे ? रामपुर में रहेंगे ? इस ग्राम सभा के चुनाव में क्या आपकी कोई पहल होगी।’’
वास्तव में गांव का विकास उससे भागकर नहीं, बल्कि उससे जूझकर ही सम्भव है। उपन्यास के अन्त में गिरीश बाबू आन्तरिक द्वन्द्व से मुक्त होकर गांव में रहने का निर्णय लेते हंै, ताकि गांव नयी दिशा की ओर अग्रसर हो सके। इसलिए वह स्वयं सभापति का पर्चा भरते हैं। वस्तुतः लेखक ने गिरीश के माध्यम से शिक्षित व्यक्ति से गांव की ओर लौटने का आह्वान किया है। उपन्यासकार ने देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण के साथ लोकऋण को यहां महत्वपूर्ण माना है। लेखक के अनुसार, गांव ने जो मनुष्य को दिया है, उसे लौटाने का समय आ गया है। गांव को विकास की ओर ले जाने का दायित्व शिक्षित वर्ग का है। अंततः उपन्यास गांव के जीवंत-ज्वलंत यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए गिरीश के माध्यम से आशावादी सन्देश देता है।

संदर्भ :

  1. विवेकीराय, लोकऋण, पृ. 1
  2. वही, पृ. 84
  3. वही, पृ. 149
  4. वही, पृ. 14
  5. वही, पृ. 11
  6. वही, पृ. 17
  7. वही, पृ. 151

असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी), राजकीय महाविद्यालय हीरानगर, जम्मू व कश्मीर

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