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सोशल सर्विस

ऋचा प्रियदर्शिनी

‘‘क्या करती हैं आप ?’’
‘‘वर्किंग हैं ?’’
‘‘कहां व्यस्त रहती हैं सारा दिन ?’’
प्रश्नों के बौछार से मोहिनी बौखला सी गई। कहां वह सबों से परिचय बढ़ाने के लिए इस समारोह में शामिल हुई थी, पर यहां तो उसे महसूस हो रहा था जैसे वो कोई मुजरिम हो, कटघरे में खड़ी और वकील सवालात कर रहे हों।
‘‘सोशल सर्विस करती हूं, एक एनजीओ से जुड़ी हूं…’’
उसका यह संक्षिप्त सा उत्तर शायद उन लोगों को रास नहीं आया। कई चेहरों के भाव बदलने लगे। उनके हावभाव प्रसंशा भरे या उत्साहवर्धक कतई नहीं थे, वरण उनमें एक विचित्रता थी, जो उसे असहज कर देती।
‘‘पता नहीं क्या है यह सोशल सर्विस…’’
‘‘बस चोंचलेबाजी है जी अफसर की बीवियों की…’’
‘‘काम तो इनका नजर नहीं आता, बस ये जरूर सजी-धजी दिखती हैं समारोहों में और अखबार के पन्नों में…’’
‘‘इन्हें क्या घर में रहना पसंद नहीं…’’
‘‘अरे कोई जॉब हो तो दूसरी बात है…’’
‘‘घर-द्वार नौकरों के भरोसे छोड़ खुद चली समाजसेवा को…’’
मोहिनी को लगा, वह आई ही क्यों वहां। वहां सारी महिलाएं ही थीं, पर कोई उसे समझने वाला नहीं। अपने काम के सिलसिले में वह कितने दफ्तरों के चक्कर लगा चुकी है। उसे लगा जैसे उसके काम को समझने वाले पुरुष वर्ग अधिक हैं या कामकाजी महिलाएं, वरना अधिकांश को लगता है कि वह बेकार ही भटकती रहती है।

अनमनी सी मोहिनी कोल्ड ड्रिंक के ग्लास में स्ट्रा घुमाती रही।
…तभी वेटरों के कतार से एक लड़का सामने आया और उसके पांव छू लिए।
‘‘मैडम जी पहचाना ?’’
वह गौर से देखने लगी। सफेद शर्ट-पैंट और काले बो में वह नौजवान कुछ जाना पहचाना सा लगा। … अरे यह तो वहीं है जिसके पिता को वह नशा मुक्ति केंद्र ले गई थी। … मोहिनी उनके घर भी तो गई थी। आठ लोगों के इस गरीब परिवार की हालत देखकर कलेजा मुंह को आता था। सोलह से छह हर उम्र के बच्चे, दुबली बीमार सी उनकी मां और नशे में धुत्त पिता ! उसे याद है उसकी टीम ने कैसे उन सबको जीने की राह दिखाई। पिता को नशा मुक्ति केंद्र ले गए, मां को किसी अफसर के यहां काम पर लगवाया, बच्चों का दाखिला स्कूल में कराया… यह सबसे बड़ा बच्चा जिसे एक केटरिंग वालों के संग काम पर भेजा, ताकि वह अपनी पढ़ाई का खर्च स्वयं उठा सके।
वह लड़का भाग-भाग कर अपने साथ काम करने वालों से उसका परिचय करा रहा था और साथ ही श्रद्धा से उसकी ओर देखता। उसके साथ वाले उससे अपनी-अपनी समस्याओं का जिक्र करने लगे।
मोहिनी को इस समारोह में आना सार्थक लगने लगा।

जिम्मेदारी

कहानी के पन्नों को एकत्रित करती हुई शांभवी सोचती रही… पता नहीं क्या कमी रह गई उसकी रचना में। संपादक ने पढ़कर सीधा ही रद्द कर दिया। हर बार की तरह उसने इस बार भी नारी व्यथा को ही कहानी का केंद्र चुना, पर प्रकाशन वालों ने स्वीकारा नहीं।
शांभवी को लेखन में रुचि थी। अक्सर पत्रिकाओं में कहानी भेजती। उसकी कहानियों में ज्यादातर नारी पर हो रहे शोषण और उनकी दुर्दशा दिखाई जाती। उसे लगता, समाज का यह रूप बार-बार उजागर होना चाहिए। उसे काफी सराहना भी मिली, इसलिए इस दफा वह हैरान थी। उसने विचार किया कि वह खुद जाकर संपादक महोदय से बात करेगी, जरूर कोई दंभी मर्द होगा जिसे औरतों के जज्बातों का ख्याल नहीं।
दिन के करीब 11 बजे वह संपादक के कक्ष में पहुंची। वहां पहुंचकर तो चौंक ही गई… ये तो ’महोदय’ नहीं ’महोदया’ थीं। अब तो वो और ज्यादा हैरान थी कि उन्होंने इसे क्यों नामंजूर किया।
‘‘नमस्कार मैं शांभवी त्रिपाठी।’’
‘‘जी नमस्ते… बैठिए… मैं लेखा जोशी, कहिए आपकी क्या मदद कर सकती हूं।’’
‘‘जी मैं अपनी कहानी के विषय में बात करना चाहती थी…’’ वह कुर्सी पर बैठते हुए बोली।
‘‘जी कहिए’’
‘‘आपके प्रकाशन भवन ने इसे छापने से मना कर दिया… कारण जान सकती हूं क्यों…’’ वह गंभीर स्वर में बोली।
‘‘वैसे तो यह हमारा पूर्णाधिकार है कि अपनी पत्रिका में किन्हें सम्मिलित करूं, परंतु आप मुझे मेरी बहन जैसी लगीं, इसलिए आपसे बात कर सकती हूं। … देखिए मैंने आपकी कुछ कहानियां पढ़ी हैं। आपकी लेखन शैली प्रभावी है, लेकिन विषय हर बार मुझे निराश करता है। आपकी प्रत्येक रचना नारी को बेहद निरीह और असहाय दर्शाती है।’’
‘‘लेकिन यही सत्य है।’’
‘‘जी माना शांभवी जी, पर ये भी सच है कि आज का समाज बदल रहा है, लोगों का नजरिया भी। अगर हम प्रगतिशील रचनाएं लिखें तो असरदार होंगी और लोगों को प्रोत्साहित करेंगी। हम स्त्री होकर हमेशा स्त्री जाति को शर्मशार करते रहेंगे तो हमारा उत्थान कतई संभव नहीं। हमें जोश और उमंग से परिपूर्ण नारी के सबला और सक्षम होने की बातें भी सामने लानी चाहिए। इसकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी साहित्यकारों के कंधों पर है कि वे समाज के इस पहलू पर भी प्रकाश डालें। आपसे मेरी कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं, पर एक आग्रह अवश्य है कि आप अपनी रचनाओं में नारी सशक्तिकरण के भाव डालें, न की उनकी बेचारगी की दास्तां। एक स्त्री होकर मैं यह समझ सकती हूं कि अंधकार से रोशनी दिखाती हुई साहित्यिक रचनाएं हमें कितना प्रेरित करती हैं। मैं चाहूंगी आप ऐसा ही कुछ लिखें। इसे एक बड़ी बहन का प्यार भरा आग्रह समझें।’’
शांभवी मंत्रमुग्ध उनकी बातों को सुनती रही। सच… मात्र प्रशंसित होने हेतु वह नारी शोषण पर लगातार रचती रही, पर कभी ख्याल न किया कि एक साहित्यकार की समाज के प्रति अहम भूमिका होती है। उसने तय किया कि वह अब और नारी जाति को शर्मशार नहीं करेगी और उनकी सफलता और विश्वास की कहानी लिखेगी।

एक सच ये भी

‘‘स्टूडेंट्स आज स्पेशल क्लास है… ओनली फॉर गर्ल्स… बॉय्ज यू कैन गो एण्ड प्ले इन द प्लेग्राउंड’’… मैडम शीला ने क्लास के अंत में अनाउंस किया।
हल्की फुसफुसाहट के बाद चेहरे पर प्रश्नवाचक मुस्कान लिए लड़के एक-एक कर कक्षा के बाहर चले गए।
सिस्टर जोस अंदर दाखिल हुई और लड़कियों की आम समस्याओं के विषय में जानकारी देने लगी… जैसे पीरियड्स, अंडरगार्मेंट का चयन, बॉडी ग्रोथ वगैरह…।
सब बड़ी ध्यान से उनकी सारी बातें सुन रहे थे। ये आम लगने वाली समस्याएं उतनी सरल न थीं… सबके मन में ढेर सारे सवाल थे… कुछ ने जिज्ञासा प्रकट की, कुछ झेंप से बोल न सकीं, पर सबने पूरी तन्मयता से सिस्टर जोस को सुना। …अंत में सिस्टर जोस ने ’गुड टच… बैड टच’ का मुद्दा छेड़ा।
सुनते-सुनते रिनी को सहसा ख्याल आया कि ऐसा ही कुछ उसके साथ घटित हो रहा था…। राशन वाले भैया बेटा-बेटा कहकर उसके बदन पर हाथ फेरते तो वह असहज सी हो जाती थी। सिस्टर की बातों से उसे समझ आने लगा कि वह क्या था… उसने तय किया वह घर जाकर मम्मी को सब बता देगी… पापा से कहने की उसकी हिम्मत नहीं थी… उनके गुस्सैल प्रकृति से मम्मी भी कभी-कभी परेशान हो जाती।
‘‘मम्मी, आज सिस्टर ने बड़ी अच्छी जानकारी दी’’ …उसने खाते हुए बताना शुरू किया… मम्मी उसकी बातों को बहुत ध्यान से सुनती रही। … फिर रिनी ने राशन वाले भैया की कहानी सुनानी शुरू की, सहसा मम्मी के चेहरे का रंग बदलने लगा। वह अचानक करीब आ गई और रिनी के मुंह पर झट हाथ रख दी।
‘‘बस बेटा… मुझसे कह दिया और किसी से जिक्र न करना… पापा से भी नहीं… ये बात हम दोनों के बीच ही रहनी चाहिए… संभल कर रहना और अब तुझे उन भैया के आसपास भी जाने की जरूरत नहीं।’’
रिनी आंखें फैलाए मम्मी की ओर देखने लगी। वह समझ नहीं पा रही थी कि गलत कौन है। उसे क्यों संभलना है।
मम्मी अपने काम में पुनः व्यस्त हो गई, पर रिनी ने देखा कि वे भी सहज नहीं लग रही थी।

बनियान

‘‘देखो आज याद से पैसे निकाल देना… कामवाली पहली तारीख से ही मांगने लगती है… बिजली का बिल भी आया है, पेपर, राशन… हां, इन सब के अलावा इस महीने कुछ ज्यादा निकाल देना…मिसेज गुप्ता की पचासवां बर्थडे है, बहुत बड़ी पार्टी दे रही है… सारी सहेलियां इकट्ठी होंगी, कुछ अच्छा सा गिफ्ट दूंगी… अरे अपने लिए भी कुछ लेना होगा, बढ़िया सी साड़ी या कोई ड्रेस…!’’
त्रिशा, सिरीश के लिए टिफिन भरती हुई एक सांस में बोलती जा रही थी।
‘‘ठीक है निकाल दूंगा…’’ शर्ट की कॉलर ठीक करता हुआ सिरीश बोला।
‘‘हां, लौटते हुए जरा ये पर्ची राशन वाले को थमा आना, एक दो दिनों में घर पर दे जाएगा…।’’ त्रिशा बोली।
‘‘ह…म्म’’ सिरीश तैयार होकर टिफिन के लिए हाथ बढ़ाया।
‘‘अरे हां… कल शिवरात्रि है, मेरा और मां जी का फलाहार होगा… जरा नुक्कड़ पर ताजे नारियल पानी के लिए याद दिला देना…।’’ त्रिशा बोली।
‘‘ठीक है, और कुछ… बैग तो पकड़ा दो’’ सिरीश ने हड़बड़ी दिखाई।
‘‘लो’’ टिफिन बैग में डालकर आगे बढ़ाती हुई त्रिशा पुचकारती हुई बोली, ‘‘देखो खाना समय पर ठीक से खा लेना।’’
सिरीश बैग लेकर सोचता जा रहा था, ठीक से खाने का क्या अर्थ हुआ, ले देकर दो रोटियां, हरी सब्जी और चंद सलाद के टुकड़े, इसके लिए इतनी हिदायतें।
‘‘ठीक है खा लूंगा… तुम चिंता न करो… हां, कुछ जरूरत हो तो फोन कर देना। अच्छा निकलता हूं, देर हो रही है, लगता है अगली लोकल लेनी होगी।’’ बोलता हुआ सिरीश तेजी से निकल गया।
त्रिशा ने अंदर आकर टी.वी. चालू की और प्लेट में नाश्ता डाल सोफे में धंस गई। उफ्फ सुबह से चल ही रही थी… कुक, सफाई वाली …सबके आगे पीछे। थोड़ी देर में आंखें मलती हुई मिनी कमरे से निकली।
‘‘पापा ऑफिस के लिए निकल गए क्या…?’’ वह पूछी।
‘‘हां, अभी-अभी… क्यों कुछ काम था…’’ त्रिशा टी.वी. में नजरें गड़ाए हुए बोली।
‘‘हां, कॉलेज की फीस भरनी थी… आज लास्ट डेट है।’’ मिनी बोली।
‘‘तो सुबह क्यों नहीं बताया, तुम्हें तो मालूम है पापा देर रात को दफ्तर से लौटते हैं।’’ त्रिशा झल्लाती हुई बोली।
‘‘अरे मम्मी, कल काफी रात तक पढ़ाई कर रही थी, सुबह जल्दी आंख ही नहीं खुली…’’ मिनी ने कहा।
‘‘चल कोई बात नहीं… फ्रेश हो जा… पापा को थोड़ी देर में फोन कर देना, वहीं से भर देंगे।’’ त्रिशा नाश्ता करते हुए बोली।
नाश्ता खत्म करके त्रिशा रसोई की तरफ बढ़ी। बर्तन खाली कर सींक में जमा किए। …बाहर आई तो कपड़े धोने वाली आ चुकी थी। उसने उसे क्या-क्या धुलने हैं, हिदायत देने लगी।
‘‘त्रिशा बेटा…’’ मां जी ने आवाज लगाई… ‘‘आज दोपहर में मेरा खाने पर इंतजार न करना, सत्संग में जा रही हूं… भोग प्रसाद भी है…शाम तक ही लौटूंगी… एक लिफाफे में 500 रुपए डालकर मेरा नाम लिख दे… चंदा देनी है।’’
‘‘ठीक है मां… देर होने से कॉल कर देना।’’ कहती हुई त्रिशा बालकनी में गमलों का मुआयना करने लगी।… इस बार अच्छे फूल आए हैं, माली से कहेगी कुछ और गमले तैयार करे… काफी दिनों से किचेन गार्डन का सोच रही हूं।
अंदर आकर सरसरी निगाहों से घर को देखती हुई त्रिशा आश्वस्त महसूस करती हुई एक ठंडी आह भरी। चलो आज का काम तो सुचारू रूप से चल पड़ा है। ओह… ये गृहस्थी संभालना भी कोई बच्चों का खेल नहीं। … तभी कपड़े धोने वाली तेजी से हाथों में बनियान लिए प्रकट हुई… ‘‘दीदी, देखो कितनी सारी सुराखें हैं इन सब में… साहब को नया क्यों नहीं दिला देती।’’
अरे सच ही तो कह रही है, पिछले महीने एक-दो ही छोटी छेद उसने स्वयं देखी थी। ये सिरीश भी न, बिल्कुल अपना ध्यान नहीं रखते। आज ही बोलूंगी नया ले लें… उसे थोड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुई… उसे पहले ही कह देना चाहिए था।
रात को खाने के बाद त्रिशा नाइट क्रीम लगाती हुई सिरीश से बोली, ‘‘देखा है तुम्हारी बनियानें बिल्कुल घिस गई हैं… कल ही जाकर पूरे छह के छह ले लेना… बार-बार नहीं लानी पड़ेगी।’’
‘‘हूं…’’ सिरीश लैपटॉप में नजरें गड़ाए हुए बोले।
‘‘हूं क्या… तुम्हें तो बिलकुल ख्याल नहीं रहता, पर मुझे तो परवाह है, क्या कहती होगी कामवाली …जानते हो घर-घर जाकर चटकारे लेकर बताएगी… अगली किटी की गॉसिप मिल जाएगी सबको … तुम सुन तो रहे हो मेरी बातें…’’ त्रिशा लगभग चीख उठी।
सब सुन रहा था सिरीश, वह उन सुराखों से वाकिफ था, और सामने स्क्रीन पर पेमेंट करने वाले बिल्स से भी, वह ले लेगा नई, पर अगले महीने… अभी और भी जरूरी खर्चे हैं। कोई इमरजेंसी तो नहीं। शायद सिरीश को खुद को अनदेखा करने की आदत हो गई थी।
‘‘ओह हो… तुम छोटी-छोटी बातों पर परेशान न हुआ करो…खरीद लूंगा भई… आपका हुक्म सर आंखों पर… मेमसाब।’’ वह छेड़ता हुआ बोला और त्रिशा मुस्कुरा दी।
सिरीश वापस लैपटॉप में गुम हो गया और त्रिशा अपने बाल संवारने लगी।

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