ऐ, मेरे वतन के बैलों !
व्यंग्य
ऐ, मेरे वतन के बैलों!
जरा होठ में भर लो खैनी
जो षेर अपने को कहते
उनकी समझो तुम बेचौनी।
कोई है चोर उचक्का,
कोई हिंसक धुन का पक्का,
कोई अमन-चैन गाड़ी का
है जाम कराता चक्का।
कोई खूनी बलवाई है,
कोई खेले पंजा-छक्का,
कोई देख कुकर्म इनसब का
हो रहा है हक्का-बक्का।
आज बात उन्हीं का गुनने,
सुनाने औरों को सुनने,
का समय आन पड़ा है।
जो साधु-वेष बनाकर
छल-छद्म का जाल बिछाकर
लूट रहा है राज-खजाने
उनको, बैलों! पहचानो,
कुछ होष अपने में आनो।
यदि बैल रहना नियति है
तो बैल बनो तुम षिव का,
यदि गधा रहने की मति है
तो वाहन बनो ष्विा का।
‘जबतक रहेगा समोसे में आलू
चरता रहेगा वन प्रांतर को भालू।’
समझ ऐसा तुम हार गये क्या?
तुममें बिरसा भगवान नहीं क्या?
ऐ, मेरे जंगल के पषुओं!
जरा आंखें लाल तुम कर लो,
जो खून चूस रहे तेरे,
ढोंगी षेरो को चुन लो।
कर लो तुम नजरें पैनी,
भेजो उनको जेल नैनी।
- प्रभु नारायण सिन्हा,
सेवानिवृत षपथ आयुक्त, रांची उच्च न्यायालय।