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बालकृष्ण भट्ट सामाजिक जागरूकता के प्रतीक

डाॅ. स्नेहलता

हिन्दी नाटक अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँच गया है, जिसमें नई सोच, नई दृष्टि, नए धरातल पर आज की समस्याओं को उभरा गया है। आज के परिवेश के नाटकों में सामाजिक तथ्यों को खोजना एक कठिन एवं चुनौती भरा कार्य है। ‘नाटक’ साहित्य की अत्यधिक सशक्त एवं प्रभावशाली विधा है और यह दृश्य काव्य है। श्रव्य काव्य एवं दृश्य काव्य में नाटक श्रेष्ठ है। इसे पंचमवेदम के नाम से जाना जाता है। रंगमंच इस विधा का प्राणतत्व है, जिसमें पाठक एवं दर्शकों को रसानुभूति होती है। नाटक विधा अपनी प्रस्तुति एव नवीनता को लेकर बहुचर्चित है। नाटक मानव जीवन के व्यापक सन्दर्भों और यथार्थ जीवन के विविध आयामों से विषय चुनकर समाज के लिए ही अपने रूप का निर्माण करता है। शब्दों एवं पात्रों की वेशभूषा, आकृति, भाव-भंगिमा, क्रियाओं के अनुकरण और भावों के अभिनय तथा प्रदर्शन द्वारा अपनी अनुभूतियों को देश व समाज के निकट लाना इस विधा की मुख्य प्रवृति है।
हिंदी नाटक के आलोचक डॉ. दशरथ ओझा ने नाटक की परिभाषा पर विचार करते हुए कहा है – ‘‘जब लोगों की क्रियाओं का अनुकरण अनेक भावों और अवस्थाओं से परिपूर्ण होकर किया जाए, तो वह नाटक कहलाता है।’’ (हिंदी नाटक उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा – पृष्ठ – 34) नेमीचन्द्र जैन के विचार में – ‘‘अपनी मूल प्रवृति की दृष्टि से नाटक वह संवादमूलक कथा है, जिसे अभिनेता रंगमंच पर नाट्य व्यापार के रूप में दर्शक वर्ग के सामने प्रस्तुत करते हैं।’’ (हिंदी नाटक में समसामयिक परिवेश – डॉ. विपिन गुप्ता – 34) डॉ. गिरीश रस्तोगी के अनुसार – ‘‘साहित्य की अन्य विधाओं के परिप्रेक्ष्य में जब हम नाट्यविधा के अधिक उत्कृष्ट या विशिष्ट होने का समर्थन करते हैं, तो इसी के आधार पर कि उसकी सम्प्रेषणीयता की पैठ मानव-मन की गहराइयों तक अधिक है।‘‘
हिंदी नाटक का प्रथम उत्थान वस्तुतः भारतेंदु के उदय से ही माना जाता है। इस युग के नाटककारों में ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावना से सम्बंधित विषयों के अनुसार नाटकों की रचना हुई। इसके बाद द्विवेदी युग में इतिवृतात्मक नाटकों का अधिक प्रचार प्रसार रहा, साथ ही इनमें मौलिक नाटकों का आभाव भी रहा। प्रसाद युग में इतिहास से सम्बंधित नाटकों की प्रधानता रही। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाट्य कौशल से एवं रचनाओं द्वारा एक ओर अतीत के गर्भ में छिपी भारतीय संस्कृति के उद्दात्त मूल्यों को वर्तमान जीवन परिवेश से जोड़ने का प्रयास किया है, तो दूसरी ओर रचनात्मक स्तर पर भावी नाटककारों को दिशा-संकेत भी दिया है। इसके बाद के नाटकों में समाज के हर पहलुओं को दृष्टिगत किया गया है।
बालकृष्ण भट्ट का हिंदी के निबंधकारों में महत्वपूर्ण स्थान है। भट्ट जी अपने युग के न केवल सर्वश्रेष्ठ निबंधकार थे, अपितु सफल नाटककार और साहित्यकार भी थे। इन्होंने साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक और सामयीक, सभी विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। बालकृष्ण भट्ट के नाटकों के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक प्रश्नों को उठाते हुए साहित्यिक एवं सामाजिक परिदृश्य को उद्घाटित किया गया है। पण्डित बालकृष्ण भट्ट भारतेन्दु-युग के सबसे अधिक सजग, सक्रिय व प्रतिभाशाली लेखक तथा सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। भट्ट जी समाज की समस्याओं को उठाने में जागरूकता के प्रतीक थे। इनके नाटक सामाजिक जीवन की झलक के साथ राजनीतिक हलचल से परिपूर्ण होते थे, जो अंध परम्परा का विरोध करते हुए जन-साधारण को सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न करते थे, जिनमें समाज-सुधार की भावना भरी रहती थी, जो जीवन को उन्नत बनाने में प्रयत्नशील थे, जिनमें देश की हीन अवस्था का चित्रण करके देश-वासियों को जागरूक करने की प्रेरणा भरी हुई थी, जो राष्ट्रव्यापी शोषण का चित्रण करके राष्ट्र को पराधीनता की बेड़ियों से उनमुक्त करने के लिए प्रोत्साहन देते थे। उनके मौलिक नाटकों में नल-दमयंती स्वयंवर, बाल-विवाह, चंद्रसेन, रेल का विकट खेल, नई रोशनी का विष, वृहन्नला, वेणीसंहार, कलिराज की सभा, शिक्षादान, आदि हैं। इन नाटकों में सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य करने के साथ-साथ अतीत के गौरव को भी अभिव्यक्त किया गया है। भट्ट जी ने बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के अनुवाद भी किए हैं, जिनमें वेणुसंहार, मृच्छकटिक, पद्मावती आदि प्रमुख हैं।
भट्ट जी ने गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है। साहित्यिक और सामाजिक विषय भी भट्ट जी से अछूते नहीं बचे। ‘नई रोशनी का विष’ में भट्ट जी ने समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए नई चेतना का सन्देश छोड़ा है। भट्ट जी के नाटकों में सुरुचि-संपन्नता, कल्पना, बहुवर्णन शीलता के साथ-साथ हास्य व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं। रामविलास शर्मा भट्ट जी के बारे में अपने विचार रखते हैं – ‘‘विचारों की उदारता में वह युग के साथ थे, वहीं कहीं उससे आगे भी थे। समाज और साहित्य के विकास में उनकी धारणा अपनी थी, जो आज भी व्यापक रूप से वे समाज द्वारा नहीं अपनायी गयी …धर्म, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि के प्रति भट्ट जी के विचारों को देखते हुए कह सकते हैं कि वह अपने युग के सबसे महान विचारक थे।’’ (भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परम्परा: रामविलास शर्मा, पृष्ठ – 90-91)। आगे डॉ. रामविलास शर्मा ने तो भट्ट जी को केवल प्रताप नारायण मिश्र से ही नहीं, अपितु भारतेंदु हरिश्चंद्र से भी बढ़कर माना है और लिखते हैं – ‘‘भट्ट जी का बहुविध साहित्य जनता को अंग्रेजी राज के सच्चे रूप से परिचित करता है। अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था, उनकी सभ्यता, उनकी राजनीति – इनसे चमत्कृत न होकर भट्ट जी ने उनकी वास्तविकता उद्घाटित की है। पैनी सूझ-बूझ के अलावा यह साहस का काम भी था। … वह अपने युग के श्रेष्ठ क्रांतिकारी विचारक थे। इस दृष्टि से वे भारतेंदु से भी बढ़कर थे।’’ आपके नाटकों में विचारों की गहनता, विषय की विस्तृत विवेचना, गम्भीर चिन्तन के साथ एक अनूठापन भी है।
भाषा की दृष्टि से अपने समय के लेखकों में भट्ट जी का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने अपनी रचनाओं में यथाशक्ति शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया है। भावों के अनुकूल शब्दों का चुनाव करने में भट्ट जी बड़े कुशल थे। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया है। भट्ट जी की भाषा में जहाँ-तहाँ पूर्वीपन की झलक मिलती है। जैसे – समझा-बुझा के स्थान पर समझाय-बुझाय लिखा गया है। बालकृष्ण भट्ट की भाषा को दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है। द्वितीय कोटि की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ तत्कालीन उर्दू, अरबी, फारसी तथा ऑंग्ल भाषीय शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। वह हिन्दी की परिधि का विस्तार करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भाषा को विषय एवं प्रसंग के अनुसार प्रचलित हिन्दीतर शब्दों से भी समन्वित किया है। आपकी भाषा जीवंत तथा चित्ताकर्षक है। इसमें यत्र-तत्र पूर्वी बोली के प्रयोगों के साथ-साथ मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है, जिससे भाषा अत्यन्त रोचक और प्रवाहमयी बन गई है।
बालकृष्ण भट्ट के नाटकों में समकालीन बोध एवं सामाजिक तथ्यों की संभावना है। नाटककार मानव जीवन के व्यापक सन्दर्भों और यथार्थ जीवन के विविध आयामों से विषय चुनकर समाज के लिए ही अपने नाटकों का निर्माण करता है। जीवन के यथार्थ एवं व्यापक सन्दर्भों को बालकृष्ण भट्ट के नाटकों में हम देख सकते हैं। सही मायने में बालकृष्ण भट्ट जी सामाजिक जागरूकता के प्रतीक माने जाते हैं।

सन्दर्भ सूचि :

  1. भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परम्परा – रामविलास शर्मा
  2. हिंदी नाटक उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा
  3. हिंदी नाटक में समसामयिक परिवेश – डॉ. विपिन गुप्ता
  4. हिंदी एवं साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास – गोविन्द पाण्डे – अभिव्यक्ति प्रकाशन।

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