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बिबिया

महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा ( 26 मार्च, 1907 – 11 सितम्बर, 1987 ) हिंदी भाषा की कवयित्री थीं। हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी की कविता में कोमल शब्दावली का विकास किया। अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। यामा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। इसके अलावा भारत भारती और पद्म विभूषण सहित अनेक सम्मान प्राप्त।

अपने जीवनवृत्त के विषय में बिबिया की माई ने कभी कुछ बताया नहीं, किन्तु उसके मुख पर अंकित विवशता की भंगिमा, हाथों पर चोटों के निशान, पैर का अस्वाभाविक लंगड़ापन देखकर अनुमान होता था कि उसका जीवन-पथ सुगम नहीं रहा।
मद्यप और झगड़ालू पति के अत्याचार भी संभवतः उसके लिए इतने आवश्यक हो गए थे कि उनके अभाव में उसे इस लोक में रहना पसंद न आया। मां-बाप के न रहने पर बालिका की स्थिति कुछ अनिश्चित-सी हो गई। घर बड़ा, भाई कन्हई, भौजाई और दादी थी। दादी बूढ़ी होने के कारण पोती की किसी भी त्रुटि को कभी अक्षम्य मानती थी, कभी नगण्य। ननद-भौजाई के संबंध में परंपरागत वैमनस्य था और बीच के कई भाई-बहिन मर जाने के कारण सबसे बड़े भाई और सबसे छोटी बहिन में अवस्था का इतना अंतर था कि वे एक-दूसरे के साथी नहीं हो सकते थे।
संभवतः सहानुभूति के दो-चार शब्दों के लिए ही बिबिया जब-तब मेरे पास आ पहुंचती थी। उसकी मां मुझे दिदिया कहती थी। बेटी मौसीजी कहकर उसी संबंध का निर्वाह करने लगी।
साधारणतः धोबियों का रंग सांवला पर मुख की गठन सुडौल होती है। बिबिया ने गेहुएं रंग के साथ यह विशेषता पाई थी। उस पर उसका हंसमुख स्वभाव उसे विशेष आकर्षण दे देता था। छोटे-छोटे सफेद दांतों की बत्तीसी निकली ही रहती थी। बड़ी आंखों की पुतलियां मानो संसार का कोना-कोना देख आने के लिए चंचल रहती थीं। सुडौल गठीले शरीर वाली बिबिया को धोबिन समझना कठिन था; पर थी वह धोबिनों में भी सबसे अभागी धोबिन।
ऐसी आकृति के साथ जिस आलस्य या सुकुमारता की कल्पना की जाती है, उसका बिबिया में सर्वथा अभाव था। वस्तुतः उसके समान परिश्रमी खोजना कठिन होगा। अपना ही नहीं, वह दूसरों का काम करके भी आनंद का अनुभव करती थी। दादी की मुट्ठी से झाडू खींचकर वह घर-आंगन बुहार आती, भौजाई के हाथ से लोई छीनकर वह रोटी बनाने बैठ जाती और भाई की उंगलियों से भारी स्त्री छुड़ाकर वह स्वयं कपड़ों की तह पर स्त्री करने लगती। कपड़ों में सज्जी लगाना, भट्ठी चढ़ाना, लादी ले जाना, कपड़े धोना-सुखाना आदि कामों में वह सब से आगे रहती।
केवल उसके स्वभाव में अभिमान की मात्रा इतनी थी कि वह दोष की सीमा तक पहुंच जाती थी। अच्छे कपड़े पहनना उसे अच्छा लगता था और यह शौक ग्राहकों के कपड़ों से पूरा हो जाता था। गहने भी उसकी मां ने कम नहीं छोड़े थे। विवाह-संबंध उसके जन्म से पहले ही निश्चित हो गया था। पांचवें वर्ष में ब्याह भी हो गया; पर गौने से पहले ही वर की मृत्यु ने उस संबंध को तोड़कर, जोड़ने वालों का प्रयत्न निष्फल कर दिया। ऐसी परिस्थिति में, जिस प्रकार उच्च वर्ग की स्त्री का गृहस्थी बसा लेना कलंक है, उसी प्रकार नीच वर्ग की स्त्री का अकेला रहना सामाजिक अपराध है।
कन्हई यमुना-पार देहात में रहता था; पर बहन के लिए उसने, इस पार शहर का धोबी ढूंढ़ा। एक शुभ दिन पुराने वर का स्थानापन्न अपने संबंधियों को लेकर भावी ससुराल पहुंचा। एक बड़े डेग में मांस बना और बड़े कड़ाह में पूरियां छनीं। कई बोतलें ठर्रा शराब आई और तबतक नाच-रंग होता रहा, जबतक बराती-घराती सब औंधे मुंह न लुढ़क पड़े।
नई ससुराल पहुंच जाने के बाद कई महीने तक बिबिया नहीं दिखाई दी। मैंने समझा कि नई गृहस्थी बसाने में व्यस्त होगी। कुछ महीने बाद अचानक एकदिन मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए बिबिया आ खड़ी हुई। उसके मुख पर झांई आ गई थी और शरीर दुर्बल जान पड़ता था; पर न आंखों में विषाद के आंसू थे, न ओठों पर सुख की हंसी। न उसकी भावभंगिमा में अपराध की स्वीकृति थी और न निरपराधी की न्याय-याचना। एक निर्विकार उपेक्षा ही उसके अंग-अंग से प्रकट हो रही थी।
जो कुछ उसने कहा, उसका आशय था कि वह मेरे कपड़े धोयेगी और भाई के ओसारे में अलग रोटी बना लिया करेगी। धीरे-धीरे पता चला कि उसके घरवाले ने उसे निकाल दिया है। कहता है, ऐसी औरत के लिए मेरे घर में जगह नहीं, चाहे भाई के यहां पड़ी रहे, चाहे दूसरा घर कर ले। चरित्र के लिए बिबिया को यह निर्वासन मिला होगा, यह संदेह स्वाभाविक था; पर मेरा प्रश्न उसकी उदासीनता के कवच को भेदकर मर्म में इस तरह चुभ गया कि वह फफककर रो उठी ‘‘अब आपहु अस सोचे लागीं मौसीजी ! मइया तो सरगै गई, अब हमार नइया कसत पार लगी !’’
उसका विषाद देखकर ग्लानि हुई; पर उसकी दादी से सब इतिवृत्त जानकर मुझे अपने ऊपर क्रोध हो आया। रमई के घर जाकर बिबिया ने गृहस्थी की व्यवस्था के लिए कम प्रयत्न नहीं किया; पर वह था पक्का जुआरी और शराबी। यह अवगुण तो सभी धोबियों में मिलते हैं; पर सीमातीत न होने पर उन्हें स्वाभाविक मान लिया जाता है।
रमई पहले ही दिन बहुत रात गए नशे में धुत घर लौटा। घर में दूसरी स्त्री न होने के कारण नवागत बिबिया को ही रोटी बनानी पड़ी। वह विशेष यत्न से दाल, तरकारी बनाकर रोटी सेंकने के लिए आटा साने उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। रमई लड़खड़ाता हुआ घुसा और उसे देख ऐसी घृणास्पद बातें बकने लगा कि वह धीरज खो बैठी। एक तो उसके मिजाज में वैसे ही तेजी अधिक थी, दूसरे यह तो अपने घर अपने पति से मिला अपमान था। बस वह जलकर कह उठी ‘‘चुल्लू भर पानी मां डूब मरी। ब्याहता मेहरारू से अस बतियात हौ जानौ बसवा के आये होयं छी-छी।’’
नशे में बेसुध होने पर भी पति ने अपने आपको अपमानित अनुभव किया, दांत निपोर और आंखें चढ़ाकर उसने अवज्ञा से कहा ‘‘ब्याहता ! एक तो भच्छ लिहिन अब दूसर के घर आई हैं, सत्ती छीता बनै खातिर धन भाग परनाम पांलागी।’’
क्रोध न रोक सकने के कारण बिबिया ने चिमटा उठाकर उसपर फेंक दिया। बचने के प्रयास में वह लटपटाकर औंधे मुंह गिर पड़ा और पत्नी ने भीतर की अंधेरी कोठरी में घुसकर द्वार बंद कर लिया। सबेरे जब वह बाहर निकली, तब घर वाला बाहर जा चुका था।
फिर यह क्रम प्रतिदिन चलने लगा। शराब के अतिरिक्त उसे जुए का भी शौक था, जो शराब की लत से भी बुरा है। शराबी होश में आने पर मनुष्य बन जाता है; पर जुआरी कभी होश में आता ही नहीं, अतः उसके संबंध में मनुष्य बनने का प्रश्न उठता ही नहीं।
रमई के जुए के साथी अनेक वर्गों से आये थे। कोई काछी था, तो कोई मोची; कोई जुलाहा था, तो कोई तेली।
हार-जीत की वस्तुएं भी विचित्र होती थीं। कपड़ा, जूता, रुपया-पैसा, बर्तन आदि में से जो हाथ में आया, वही दांव पर रख दिया जाता था। कोई किसी की घरवाली की हंसुली जीत लेता और कोई किसी की पतोहू के झुमके। कोई अपनी बहन की पहुंची हार जाता था और कोई नातिन के कड़े। सारांश यह कि जुए के पहले चोरी-डकैती की आवश्यकता भी पड़ जाती थी।
एकबार रमई के जुए के साथी मियां करीम ने गुलाबी आंखें तरेरकर कहा ‘‘अरे दोस्त, तुम तो अच्छी छोकरी हथिया लाये हो। उसी को दांव पर क्यों नहीं रखते ? किस्मतवर होंगे, तो तुम्हारे सामने रुपये-पैसे का ढेर लग जायेगा, ढेर !’’ इस प्रस्ताव का सबने मुक्तकण्ठ से समर्थन किया। रमई बिबिया को रखने के लिए प्रस्तुत भी हो गया; पर न जाने उसे चिमटा स्मरण हो आया या लुआठी कि वह रुक गया। बहाना बनाया आज तो रुपया गांठ में है, न होगा तो मेहरारू और किस दिन के लिए होती है।
बिबिया तक यह समाचार पहुंचते देर न लगी। उस जैसी अभिमानिनी स्त्री के लिए यह समाचार पलीते में आग के समान हो गया। दुर्भाग्य से उसने एकदिन करीम मियां को अपने द्वार पर देख लिया। बस फिर क्या था, भीतर से तरकारी काटने का बड़ा चाकू निकालकर और भौंहें टेढ़ीकर उसने उन्हें बता दिया कि रमई के ऐसी हरकत करने पर वह उन दोनों के पेट में यही चाकू भोंक देगी। फिर चाहे उसे कितना ही कठोर दण्ड क्यों न मिले; पर वह ऐसा करेगी अवश्य। वह ऐसी गाय-बछिया नहीं है, जिसे चाहे कसाई के हाथ बेच दिया जावे, चाहे वैतरणी पार उतरने के लिए महाब्राह्मण को दान कर दिया जावे।
करीम मियां तो सन्न रह गए; पर दूसरे दिन जुए के साथियों के सामने उन्होंने रमई से कहा ‘‘लाहौल बिला कूबत, शरीफ आदमी के घर ऐसी औरत ! मुई बिलोचिन की तरह बात-बात पर छूरा-चाकू दिखाती है। किसी दिन वह तुम पर भी वार करेगी बच्चू ! संभले रहना। घर में कजा को बैठाकर चैन की नींद ले रहे हो !’’
लखना अहीर सिर हिला-हिलाकर गंभीर भाव से बोला ‘‘मेहररुअन अब मनसेधुअन का मारै बरे घूमती हैं, राम राम। अब जानौ कलजुग परगट दिखाय लागा !’’ महंगू काछी शास्त्राज्ञान का परिचय देने लगा ‘‘ऊ देखौ छीता रानी कस रहीं। उइ निकार दिहिन तऊ न बोलीं। बिचारिउ बेटवन का लै के झारखंड मां परी रहीं।’’ खिलावन तेली ने समर्थन किया ‘‘उहै तो सत्ती सतवन्ती कही गई हैं ! उनके बरे तो धरती माता फाटि जाती रहीं। ई सब का खाय कै सत्ती हुई हैं !’’
रमई बेचारा कुछ बोल ही न सका। उसकी पत्नी की गणना सतियों में नहीं हो सकती, यह क्या कुछ कम लज्जा की बात थी। इस लज्जा और ग्लानि का भार वह उठा भी लेता, पर रात-दिन भय की छाया में रहना तो दुर्वह था। जो स्त्री चाकू निकालते हुए नहीं डरती, वह क्या उसके उपयोग में डरेगी। रमई बेचारा सचमुच इतना डर गया कि पत्नी की छाया से बचने लगा। इसी प्रकार कुछ दिन बीते; पर अंत में रमई ने साफ-साफ कह दिया कि वह बिबिया को घर में नहीं रखेगा। पंच-परमेश्वर भी उसी के पक्ष में हो गए। क्योंकि वे सभी रमई के समानधर्मी थे। यदि उनके घर में ऐसी विकट स्त्री होती, जिसके सामने वे न शराब पीकर जा सकते थे, न जुआ खेलकर, तो उन्हें भी यही करना पड़ता।
निरुपाय बिबिया घर लौट आई और सदा के समान रहने लगी। भौजाई के व्यंग्य उसे चुभते नहीं थे, यह कहना मिथ्या होगा; पर दादी के आंचल में आंसू पोंछने भर के लिए स्थान था। वह पहले से चौगुना काम करती। सबसे पहले उठती और सबके सो जाने पर सोती। न अच्छे कपड़े पहनती, न गहने। न गाती-बजाती, न किसी नाच-रंग में शामिल होती। पति के अपमान ने उसे मर्माहत कर दिया था; पर जात-बिरादरी में फैली बदनामी उसका जीना ही मुश्किल किये दे रही थी। ऐसी सुन्दर और मेहनती स्त्री को छोड़ना सहज नहीं है, इसी से सबने अनुमान लगा लिया कि उसमें गुणों से भारी कोई दोष होगा।
कन्हई ने एकबार फिर उसका घर बसा देने का प्रयत्न किया।
इसबार उसने निकटवर्ती गांव में रहने वाले एक विधुर अधेड़ और पांच बच्चों के बाप को बहनोई-पद के लिए चुना।
पर बिबिया ने बड़ा कोलाहल मचाया। कई दिन अनशन किया। कई घंटे रोती रही। ‘दादा, अब हम न जाब। चाहे मूड़ फोरि कै मर जाब, मुदा माई-बाबा कर देहरिया न छांड़ब’ आदि-आदि कहकर उसने कन्हई को निश्चय से विचलित करना चाहा; पर उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गए। भाई के विचार में युवती बहिन को घर में रखना, आपत्ति मोल लेना था। कहीं उसका पैर ऊंचे-नीचे पड़ गया, तो भाई का हुक्का-पानी बंद हो जाना स्वाभाविक था। उसके पास इतना रुपया भी नहीं कि जिससे पंचदेवताओं की पेट-पूजा करके जात-बिरादरी में मिल सके।
अंत में बिबिया की स्वीकृति उदासीनता के रूप में प्रकट हुई। किसी ने उसे गुलाबी धोती पहना दी, किसी ने आंखों में काजल की रेखा खींच दी और किसी ने परलोकवासिनी सपत्नी के कड़े-पछेली से हाथ-पांव सजा दिये। इस प्रकार बिबिया ने फिर ससुराल की ओर प्रस्थान किया।
जब एक वर्ष तक मुझे उसका कोई समाचार न मिला, तब मैंने आश्वस्त होकर सोचा कि वह जंगली लड़की अब पालतू हो गई।
मैं ही नहीं, उसके भाई, भौजाई, दादी आदि संबंधी भी जब कुछ निश्चिंत हो चुके, तब एकदिन अचानक सुना कि वह फिर नैहर लौट आई है। इतना ही नहीं, इसबार उसके कलंक की कालिमा और अधिक गहरी हो गई थी; पर मेरे पास वह कुछ कहने-सुनने नहीं आई। पता चला, वह न घर का ही कोई काम करती थी और न बाहर ही निकलती। घर की उसी अंधेरी कोठरी में, जिसके एक कोने में गधे के लिए घास भरी थी और दूसरे में ईंधन-कोयले का ढेर लगा था, वह मुंह लपेटे पड़ी रहती थी। बहुत कहने-सुनने पर दो कौर खा लेती, नहीं तो उसे खाने-पीने की भी चिंता नहीं रहती।
यह सब सुनकर चिंतित होना स्वाभाविक ही कहा जायेगा। मन के किसी अज्ञान कोने से बार-बार संदेह का एक छोटा-सा मेघ-खण्ड उठता था। और धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते विश्वास की सब रेखाओं पर फैल जाता था। बिबिया क्या वास्तव में चरित्रहीन है ? यदि नहीं, तो वह किसी घर में आदर का स्थान क्यों नहीं बना पाती ? उससे रूप-गुण में बहुत तुच्छ लड़कियां भी अपना-अपना संसार बसाये बैठी हैं। इस अभागी में ही ऐसा कौन-सा दोष है, जिसके कारण इसे कहीं हाथ-भर जगह तक नहीं मिल सकती ?
इसी तर्क-वितर्क के बीच में बिबिया की दादी आ पहुंची और धुंधली आंखों को फटे आंचल के कोने से रगड़-रगड़कर पोती के दुर्भाग्य की कथा सुना गई।
बिबिया के नवीन पति की दो पत्नियां मर चुकी थीं। पहली अपनी स्मृति के रूप में एक-एक पुत्र छोड़ गई थी, जो नई विमाता के बराबर या उससे चार-छः मास बड़ा ही होगा। दूसरी की धरोहर तीन लड़कियां हैं, जिनमें बड़ी नौ वर्ष की और सबसे छोटी तीन वर्ष की होगी।
झनकू ने छोटे बच्चों के लिए ही तीसरी बार घर बसाया था। वधू के प्रति भी उसका कोई विशेष अनुराग है, यह उसके व्यवहार से प्रकट नहीं होता था। वह सबेरे ही लादी लेकर और रोटी बांधकर घाट चला जाता और संध्या समय लौटता। फिर शाम को गठरी उतारकर और गधे को चरने के लिए छोड़कर घर से निकलता, तो ग्यारह बजे से पहले लौटने का नाम न लेता।
सुना जाता था कि उसका अधिकांश समय उसी पासी-परिवार में बीतता है, जिसके साथ उसकी घनिष्ठता के संबंध में विविध मत थे।
जाति-भेद के कारण वह उस परिवार के साथ किसी स्थायी संबंध में नहीं बंध सका था और अपनी अभियोगहीन पत्नियों और अपने अच्छे स्वभाव के कारण पंच-परमेश्वर के दण्ड-विधान की सीमा से बाहर रह गया था।
पासी शहर में किसी संपन्न गृहस्थ का साईस हो गया था; पर उसकी घरवाली के हृदय में सास-ससुर के घर के प्रति अचानक ऐसी ममता उमड़ आई कि वह उस देहरी को छोड़कर जाना अधर्म की पराकाष्ठा मानने लगी।
झनकू को अपने लिए न सही; पर अपनी संतान की देख-रेख के लिए तो एक सजातीय गृहिणी की आवश्यकता थी ही, किन्तु कोई धोबन उसकी संगिनी बनने का साहस न कर सकी। रजक-समाज में बिबिया की स्थिति कुछ भिन्न थी। वह बेचारी अपकीर्ति के समुद्र में इस तरह आकण्ठ मग्न थी कि झनकू का प्रस्ताव उसके लिए जहाज बन गया।
इस प्रकार अपने मन को मुक्त रखकर भी झनकू ने बिबिया को दाम्पत्य- बंधन में बांध लिया। यह सत्य है कि वह नई पत्नी को कोई कष्ट नहीं देता था। उसे घाट ले जाना तक झनकू को पसंद नहीं था, इसी से कूटना, पीसना, रोटी-पानी, बच्चों की देखभाल में ही गृहिणी के कौशल की परीक्षा होने लगी।
बिबिया पति के उदासीन आदर-भाव से प्रसन्न थी या अप्रसन्न, यह कोई कभी न जान सका, क्योंकि उसने घर और बच्चों में तन-मन से रमकर अन्य किसी भाव के आने का मार्ग ही बंद कर दिया था। सवेरे से आधी रात तक वह काम में जुटी रहती। फिर छोटी बालिकाओं में से एक को दाहिनी और दूसरी को बाईं ओर लिटाकर टूटी खटिया पर पड़ते ही संसार की चिंताओं से मुक्त हो जाती। सवेरा होने पर कर्तव्य की पुरानी पुस्तक का नया पृष्ठ खुला ही रहता था।
कच्चे घर में दो कोठरियां थीं, जिनके द्वार ओसारे में खुलते थे। इन कोठरियों को भीतर से मिलानेवाला द्वार कपाटहीन था। झनकू एक कोठरी में ताला लगा जाता था, जिससे रात में बिना किसी को जगाये भीतर आ सके।
पत्नी उसके लिए रोटियां रखकर सो जाती थी। भूखा लौटने पर वह खा लेता था, अन्यथा उन्हीं को बांधकर सवेरे घाट की ओर चल देता था।
बिबिया के स्नेह के भूखे हृदय ने मानो अबोध बालकों की ममता से अपने-आपको भर लिया। नहलाना, चोटी करना, खिलाना, सुलाना आदि बच्चों के कार्य वह इतने स्नेह और यत्न से करती थी कि अपरिचित व्यक्ति उसे माता नहीं, परम ममतामयी माता समझ लेता था।
संतान के पालन की सुचारु व्यवस्था देखकर झनकू घर की ओर से और भी अधिक निश्चिन्त हो गया। नाज के घड़े खाली न होने देने की उसे जितनी चिंता थी, उतनी पत्नी के जीवन की रिक्तता भरने की नहीं।
यह क्रम भी बुरा नहीं था, यदि उसका बड़ा लड़का ननसार से लौट न आता। मां के अभाव और पिता के उदासीन भाव के कारण वह एक प्रकार से आवारा हो गया था। तेल लगाना, कान में इत्र का फाहा खोंसना, तीतर लिये घूमना, कुश्ती लड़ना आदि उसके स्वभाव की ऐसी विचित्रताएं थीं, जो रजक-समाज में नहीं मिलतीं।
धोबी जुआ खेलकर या शराब पीकर भी, न भले आदमी की परिभाषा के बाहर जाता है और न अकर्मण्यता या आलस्य को अपनाता है। उसे आजीविका के लिए जो कार्य करना पड़ता है, उसमें आलस्य या बेईमानी के लिए स्थान नहीं रहता। मजदूर, मजदूरी के समय में से कुछ क्षणों का अपव्यय करके या खराब काम करके बच सकता है; पर धोबी ऐसा नहीं कर पाता।
उसे ग्राहक को कपड़े ठीक संख्या में लौटाने होंगे, उजले धोने में पूरा परिश्रम करना पड़ेगा, कलफ-इस्त्री में औचित्य का प्रश्न न भूलना होगा। यदि वह इनसब कामों के लिए आवश्यक समय का अपव्यय करने लगे, तो महीने में चार खेप न दे सकेगा और परिणामतः जीविका की समस्या उग्र हो उठेगी। संभवतः इसी से कर्मतत्परता ऐसी सामान्य विशेषता है, जो सब प्रकार के भले-बुरे धोबियों में मिलती है। उसकी मात्रा में अंतर हो सकता है; पर उसका नितांत अभाव अपवाद है।
झनकू का लड़का भीखन ऐसा ही अपवाद था। पिता ने प्रयत्न करके एक गरीब धोबिन की बालिका से उसका गठबंधन कर दिया था, किंतु जामाता को सुधरते न देख उसने अपनी कन्या के लिए दूसरा कर्मठ पति खोजकर उसी के साथ गौने की प्रथा पूरी कर दी। इस प्रकार भीखन गृहस्थ भी न बन सका, सद्गृहस्थ बनने की बात तो दूर रही। पिता स्वयं इस स्थिति में नहीं था कि पुत्र को उपदेश दे सकता; पर अंत में उसके व्यवहार से थककर उसने उसे निर्वासन का दण्ड दे डाला।
इस प्रकार विमाता के आने के समय वह नाना-नानी के घर रहकर तीतर लड़ाने और पतंग उड़ाने में विशेषज्ञता प्राप्त कर रहा था। पिता ने उसे नहीं बुलाया; पर विमाता की उपस्थिति ने उसे लौटने के लिए आकुल कर दिया।
एकदिन उसने डोरिया का कुरता और नाखूनी किनारे की धोती पहनकर बड़े यत्न से बुलबुलीदार बाल संवारे, तब एक हाथ में तीतर का पिंजड़ा और दूसरे में बहिनों के लिए खरीदी हुई लइया-करारी की पोटली लिये हुए वह द्वार पर आ खड़ा हुआ। पिता घर नहीं था; पर विमाता ने सौतेले बेटे के स्वागत-सत्कार में त्रुटि नहीं होने दी। लोटे भर पानी में खांड़ घोलकर उसे शर्बत पिलाया, दाल के साथ बैंगन का भर्ता बनाकर रोटी खिलाई और दूसरी कोठरी में खटिया बिछाकर उसके विश्राम की व्यवस्था कर दी।
पिता-पुत्र का साक्षात स्नेह-मिलन नहीं हो सका, क्योंकि एक ओर अनिश्चित आशंका थी और दूसरी ओर निश्चित अवज्ञा।
झनकू ने उसे स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि भलेमानस के समान न रहने पर वह उसे तुरंत निकाल बाहर करेगा। भीखन ने ओठ बिचका, आंख मिचका और अवज्ञा से मुख फेरकर पिता का आदेश सुन लिया; पर भलेमानस बनने के संबंध में अपनी कोई स्वीकृति नहीं दी।
चरित्रहीन व्यक्ति दूसरों पर जितना संदेह करता है, उतना सच्चरित्र नहीं। झनकू भी इसका अपवाद नहीं था। अबतक जिस पत्नी के लिए उसने रत्ती भर चिंता कष्ट नहीं उठाया, उसी की पहरेदारी का पहाड़ सा भार वह सुख से ढोने लगा।
समय पर घर लौट आता, पुत्र पर कड़ी दृष्टि रखता और पत्नी के व्यवहार में परिवर्तन खोजता रहता; पर पिता की सतर्कता की अवज्ञा करके पुत्र विमाता के आसपास मंडराता रहता। जहां वह बर्तन मांजती, वहीं वह तीतर चुगाने बैठ जाता। जब वह कपड़े सुखाती, तभी बाहर नंगे बदन बैठकर मांसल हाथ-पैरों में तेल मलता। जिस समय वह पानी का घड़ा भरकर लौटती, उसी समय वह महुए के छतनार वृक्ष की ओट में छिपकर गाता ‘धीरै-चलौ गगरी छलक ना जाय।’
एकदिन रोटी खाते समय उसकी सरसता इस सीमा तक पहुंच गई कि विमाता जलती लुआठी चूल्हे से खींचकर बोली ‘‘हम तोहार बाप कर मेहरारू अही। अब भाखा-कुभाखा सुनब तो तोहार पिठिया के चमड़ी न बची।’’
विमाता के इस अभूतपूर्व व्यवहार से पुत्र लज्जित न होकर क्रुद्ध हो उठा। इस प्रकार के पुरुषों को अपनी नारी-मोहिनी विद्या का बड़ा गर्व रहता है। किसी स्त्री पर उस विद्या का प्रभाव न देखकर उनके दंभ को ऐसा आघात पहुंचता है कि वे कठोर प्रतिशोध लेने में भी नहीं हिचकते।
विमाता के उपदेश की प्रतिक्रिया ने एक अकारण द्वेष को अंकुरित करके उसे पनपने की सुविधा दे डाली।
जहां तक बिबिया का प्रश्न था, वह पति के व्यवहार से विशेष संतुष्ट न होने पर भी उससे रुष्ट नहीं थी। अभिमानी व्यक्ति अवज्ञा के साथ मिले हुए अधिक स्नेह का तिरस्कार कर वीतरागता के साथ आदर-भाव को स्वीकार कर लेता है। झनकू ने पत्नी में अनुराग न रखने पर भी अन्य धोबियों के समान उसका अनादर नहीं किया। यह विशेषता बिबिया जैसी स्त्रियों के लिए स्नेह से अधिक मूल्य रखती थी, इसी से वह रोम-रोम से कृतज्ञ हो उठी। उसके क्रूर अदृष्ट ने यदि परिहास में ‘यह सौतेला पुत्र’ न भेज दिया होता; तो वह उसी घर में संतोष के साथ शेष जीवन बिता देती; पर उसके लिए इतना सुख भी दुर्लभ हो गया।
भीखन के व्यवहार में अब विमाता के प्रति ऐसा कृत्रिम घनिष्ठ भाव व्यक्त होने लगा कि वह आतंकित हो उठी। घर की शांति न भंग करने के विचार से ही उसने गृहस्वामी के निकट कोई अभियोग नहीं उपस्थित किया; पर अपने मौन के कठोर परिणाम तक उसकी दृष्टि नहीं पहुंच सकी।
पुत्र दूसरों के सामने विमाता की चर्चा चलते ही एक विचित्र लज्जा और मुग्धता का अभिनय करने लगा और उसके साथी उन दोनों के संबंध में दंतकथाएं फैलाने लगे। घरों में धोबिनें, बिबिया के छल-छंद की नीचता और अपने पतिव्रत की उच्चता पर टीका-टिप्पणी करके पतियों से हंसुली-कड़े के रूप में सदाचार के प्रमाण-पत्र मांगने लगीं। घाट पर झनकू की श्रवणसीमा में बैठकर धोबी अपने-आपको त्रियाचरित्र का ज्ञाता प्रमाणित करने लगे।
पत्नी के अनाचार और अपनी कायरता का ढिंढोरा पिटते देखकर झनकू का धैर्य सीमा तक पहुंच गया, तो आश्चर्य नहीं। एकदिन जब वह घाट से भरा हुआ लोटा ला रहा था, तब मार्ग में लड़का मिल गया। बस झनकू ने आव देखा न ताव, गधा हांकने की लकड़ी से ही वह उसकी मरम्मत करने लगा।
पुत्र ने सारा दोष विमाता पर डालकर अपनी विवशता का रोना रोया और अपने दुष्कृत्य पर लज्जित होने का स्वांग रचा। इस प्रकार भीखन का प्रतिशोध-अनुष्ठान पूरा हुआ।
झनकू यदि चाहता, तो पत्नी से उत्तर मांग सकता था; पर उसे उसके दोष इतने स्पष्ट दिखाई देने लगे कि उसने इस शिष्टाचार की आवश्यकता ही नहीं समझी। बिबिया ने एकबार भी गहने-कपड़े के लिए हठ नहीं किया, वह एकदिन भी पति की स्नेहपात्री को द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारने नहीं गई और वह कभी पति की उदासीनता का विरोध करने के लिए कोप-भवन में नहीं बैठी। इन त्रुटियों से प्रमाणित हो जाता था कि वह पति में अनुराग नहीं रखती और जो अनुरक्त नहीं, वह विरक्त माना जायेगा। फिर जो एक ओर विरक्त है, उसके किसी दूसरे ओर अनुरक्त होने को लोग अनिवार्य समझ बैठते हैं। इस तर्क-क्रम से जो दोषी प्रमाणित हो चुका हो, उसे सफाई देने का अवसर देना पुरस्कृत करना है। उसके लिए सबसे उत्तम चेतावनी दण्ड-प्रयोग ही हो सकता है।
उस रात प्रथम बार बिबिया पीटी गई। लात, घूंसा, थप्पड़, लाठी आदि का सुविधानुसार प्रयोग किया गया; पर अपराधिनी ने न दोष स्वीकार किया, न क्षमा मांगी और न रोई-चिल्लाई। इच्छा होने पर बिबिया लात-घूंसे का उत्तर बेलन-चिमटे से देने का सामर्थ्य रखती थी; पर वह झनकू का इतना आदर करने लगी थी कि उसका हाथ न उठ सका।
पत्नी के मौन को भी झनकू ने अपराधों की सूची में रख लिया और मारते-मारते थक जाने पर उसे ओसारे में ढकेल और किवाड़ बंदकर वह हांफता हुआ खाट पर पड़ा रहा।
बिबिया के शरीर पर घूंसों के भारीपन के स्मारक गुम्मड़ उभर आये थे, लकड़ी के आघातों की संख्या बताने वाली नीली रेखाएं खिंच गई थीं और लातों की सीमा नापने वाली पीड़ा जोड़ों में फैल रही थी। उस पर द्वार का बंद हो जाना उसके लिए क्षमा की परिधि से निर्वासित हो जाना था। वह अंधकार में अदृष्ट की रेखा जैसी पगडंडी पर गिरती-पड़ती, रोती-कराहती अपने नैहर की ओर चल पड़ी।
झनकू को पति का कर्तव्य सिखाने के लिए कभी एक पंच-देवता भी आविर्भूत नहीं हुए; पर बिबिया को कर्तव्यच्युत होने का दण्ड देने के लिए पंचायत बैठी।
भीखन ने विमाता के प्रलोभनों की शक्ति और अपनी अबोध दुर्बलता की कल्पित कहानी दोहरा कर क्षमा मांगी। इस क्षमा-याचना में जो कोर-कसर रह गई, उसे उसके मामा, नाना आदि के रुपयों ने पूरा कर दिया।
दूसरे की दुर्बलता के प्रति मनुष्य का ऐसा स्वाभाविक आकर्षण है कि वह सच्चरित्र की त्रुटियों के लिए दुश्चरित्र को भी प्रमाण मान लेता है। चोर ईमानदारी का उपयोग नहीं जानता, झूठा सत्य के प्रयोग से अनभिज्ञ रहता है। किसी गुण से अनभिज्ञ या उसके संबंध में अनास्थावान मनुष्य यदि उस विशेषता से युक्त व्यक्ति का विश्वास न करे, तो स्वाभाविक ही है; पर उसकी भ्रान्त धारणा भी प्रायः समाज में प्रमाण मान ली जाती है; क्योंकि मनुष्य किसी को दोष-रहित नहीं स्वीकार करना चाहता और दोषों के अथक अन्वेषक दोषयुक्तों की श्रेणी में ही मिलते हैं।
बिबिया पर लांछन लगाने वाले भीखन के आचरण के संबंध में किसी को भ्रम नहीं था; पर बिबिया के आचरण में त्रुटि खोजने के लिए उसकी स्वीकारोक्ति को सत्य मानना अनिवार्य हो उठा। वह अपने अभियोग को सफाई देने के लिए नहीं पहुंच सकी। पहुंचने पर उस क्रुद्ध सिंहनी से पंचदेवताओं को कैसा पुजापा प्राप्त होता, इसका अनुमान सहज है।
बिबिया की दादी मर चुकी थी; पर भाई चिर दुःखिनी बहिन को घर से निकाल देने का साहस न कर सका, इसी से बिरादरी में उसका हुक्का-पानी बंद हो गया।
इसी बीच ज्वर के कारण मुझे पहाड़ जाना पड़ा। जब कुछ स्वस्थ होकर लौटी, तब बिबिया की खोज की। पता चला कि वह न जाने कहां चली गई और बहिन की कलंक-कालिमा से लज्जित भाई ने परताबगढ़ जिले में जाकर अपने ससुर के यहां आश्रय लिया। बहिन से छुटकारा पाकर कन्हई खिन्न हुआ या नहीं; इसे कोई नहीं बता सका; पर सरपंच ससुर की कृपा से वह बिरादरी में बैठने का सुख पा सका, इसे सब जानते थे।
गांव का रजक-समाज बिबिया के संबंध में एकमत नहीं था। कुछ उसके आचरण में विश्वास रखने के कारण उसके प्रति कठोर थे और कुछ उसकी भूलों को भाग्य का अमिट विधान मानकर सहानुभूति के दान में उदार थे। एक वृद्धा ने बताया कि भाई का हुक्का-पानी बंद हो जाने पर वह बहुत खिन्न हुई। फिर बिरादरी में मिलने के लिए दो सौ रुपये खर्च करने पड़ते; पर इतना तो कन्हई जनम भर कमा कर भी नहीं जोड़ सकता था।
इन्हीं कष्ट के दिनों में भतीजे ने जन्म लिया। भौजाई वैसे ही ननद से प्रसन्न नहीं रहती थी। अब तो उसे सुना-सुनाकर अपने दुर्भाग्य और पति की मंदबुद्धि पर खीजने लगी। ‘का हमरेउ फूटे कपार मा पहिल पहिलौठी संतान का उछाह लिखा है ? हम कौन गहरी गंगा मां जौ बोवा है जौन आज चार जात-बिरादर दुवारे मुंह जुठारैं ? पराये पाप बरे हमार घर उजड़िगा। जिनकर न घर न दुवार उनका का दुसरन कै गिरिस्ती बिगारै का चही ? सरमदारन के बरे तौ चिल्लू भर पानी बहुत है।’
इस प्रकार की सांकेतिक भाषा में छिपे व्यंग्य सुनते-सुनते एकदिन बिबिया गायब हो गई।
सबको उसके बुरे आचरण पर इतना अडिग विश्वास था कि उन्होंने उसके इस तरह अंतर्धान हो जाने को भी कलंक मान लिया। वह अच्छी गृहस्थिन नहीं थी, अतः किसी के साथ कहीं चले जाने के अतिरिक्त वह कर ही क्या सकती थी। मरना होता तो पहले पति से परित्यक्त होने पर ही डूब मरती, नहीं तो दूसरे के घर ही फांसी लगा लेती; पर निर्दोष भाई के घर आकर और उसकी गृहस्थी को उजाड़कर वह मर सकती है, यह विचार तर्कपूर्ण नहीं था।
त्रिया-चरित्र जानना वैसे ही कठिन है, फिर जो उसमें विशेषज्ञ हो उसकी गतिविधि का रहस्य समझने में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है ! गांव के किसी पुरुष से वह कोई संपर्क नहीं रखती, इसी एक प्रत्यक्ष ज्ञान के बल पर अनेक अप्रत्यक्ष अनुमानों को कैसे मिथ्या ठहराया जावे ! निश्चय ही बिबिया ने किसी के बिना जाने ही अपनी अज्ञात यात्रा का साथी खोज लिया होगा।
बहुत दिनों के उपरान्त जब मैं एक वृद्ध और रोगी पासी को दवा देने गई, तब बिबिया के यात्रा-संबंधी रहस्य पर कुछ प्रकाश पड़ा। उसने बताया कि भागने के दो दिन पहले बिबिया ने उससे ठर्रे का एक अद्धा मंगवाया था। रुपया धेली गांठ में न होने के कारण उसने मां की दी हुई चांदी की तरकी कान से उतारकर उसके हाथ पर रख दी।
धोबिनों में वही इस लत से अछूती थी, इसी से पासी आश्चर्य में पड़ गया; पर प्रश्न करने पर उसे उत्तर मिला कि भतीजे के नामकरण के दिन वह परिवार वालों की दावत करेगी। भाई को पता चल जाने पर वह पहले ही पी डालेगा, इसी से छिपाकर मंगाना आवश्यक है।
दूसरे दिन पासी ने छन्ने में लपेटा हुआ अद्धा देकर शेष रुपये लौटाये, तब उसने रुपयों को उसी की मुट्ठी में दबाकर अनुनय से कहा कि अभी वही रखे तो अच्छा हो। आवश्यकता पड़ने पर वह स्वयं मांग लेगी।
गांव की सीमा पर खेलती हुई कई बालिकाओं को, उसका मैले कपड़ों की छोटी गठरी लेकर यमुना की ओर जाते-जाते ठिठकना, स्मरण है। एक गड़ेरिये के लड़के ने संध्या समय उसे चुल्लू से कुछ पी-पीकर यमुना के मटमैले पानी से बार-बार कुल्ला करते और पागलों के समान हंसते देखा था।
तब मेरे मन में अज्ञातनामा संदेह उमड़ने लगा। यात्रा का प्रबंध करने के लिए तो कोई बेहोश करने वाले पेय को नहीं खरीदता। यदि इसकी आवश्यकता ही थी, तो क्या वह सहयात्री नहीं मंगा सकती थी, जिसके अस्तित्व के संबंध में गांव भर को विश्वास है ?
बिबिया को अपनी मृत मां का अंतिम स्मृति-चिह्न बेचकर इसे प्राप्त करने की कौन-सी नई आवश्यकता आ पड़ी ? फिर बाहर जाने के लिए क्या उसके पास इतना अधिक धन था कि उसने तरकी बेचकर मिले रुपये भी छोड़ दिये।
कगार तोड़कर हिलोरें लेने वाली भदहीं यमुना मंे तो कोई धोबी कपड़े नहीं धोने जाता। वर्षा की उदारता जिन गड्ढों को भरकर पोखर-तलइया का नाम दे देती है, उन्हीं में धोबी कपड़े पछार लाते हैं। तब बिबिया ही क्यों वहां गई ?
इस प्रकार तर्क की कड़ियां जोड़-तोड़कर मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंची, उसने मुझे कंपा दिया।
आत्मघात, मनुष्य की जीवन से पराजित होने की स्वीकृति है। बिबिया जैसे स्वभाव के व्यक्ति पराजित होने पर भी पराजय स्वीकार नहीं करते। कौन कह सकता है कि उसने सब ओर से निराश होकर अपनी अंतिम पराजय को भूलने के लिए ही यह आयोजन नहीं किया ? संसार ने उसे निर्वासित कर दिया, इसे स्वीकार करके और गरजती हुई तरंगों के सामने आंचल फैलाकर क्या वह अभिमानिनी स्थान की याचना कर सकती थी ?
मैं ऐसी ही स्वभाववाली एक संभ्रान्त कुल की निःसन्तान, अतः उपेक्षित वधू को जानती हूं, जो सारी रात द्रौपदीघाट पर घुटने भर पानी में खड़ी रहने पर भी डूब न सकी और ब्रह्म मुहूर्त में किसी स्नानार्थी वृद्ध के द्वारा घर पहुंचाई गई।
उसने भी बताया था कि जीवन के मोह ने उसके निश्चय को डांवाडोल नहीं किया। ‘कुछ न कर सकी तो मर गई’ दूसरों के इसी विजयोद्गार की कल्पना ने उसके पैरों में पत्थर बांध दिए और वह गहराई की ओर बढ़ न सकी।
फिर बिबिया तो विद्रोह की कभी राख न होने वाली ज्वाला थी। संसार ने उसे अकारण अपमानित किया और वह उसे युद्ध की चुनौती न देकर भाग खड़ी हुई, यह कल्पना-मात्र उसके आत्मघाती संकल्प को, बरसने से पहले आंधी में पड़े हुए बादल के समान कहीं-का-कहीं पहुंचा सकती थी। पर संघर्ष के लिए उसके सभी अस्त्र टूट चुके थे। मूर्छितावस्था में पहाड़-सा साहसी भी कायरता की उपाधि बिना पाये हुए ही संघर्ष से हट सकता है।
संसार ने बिबिया के अंतर्धान होने का जो कारण खोज लिया, वह संसार के ही अनुरूप है; पर मैं उसके निष्कर्ष को निष्कर्ष मानने के लिए बाध्य नहीं।
आज भी जब मेरी नाव, समुद्र का अभिनय करने में बेसुध वर्षा की हरहराती यमुना को पार करने का साहस करती है, तब मुझे वह रजक-बालिका याद आये बिना नहीं रहती। एकदिन वर्षा के श्याम मेघांचल की लहराती हुई छाया के नीचे, इसकी उन्मादिनी लहरों में उसने पतवार फेंककर अपनी जीवन-नइया खोल दी थी।
उस एकाकिनी की वह जर्जर तरी किस अज्ञात तट पर जा लगी, वह कौन बता सकता है !

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