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आदिवासी सभ्यता एवं संस्कृति के उत्थान में आदिवासी महिलाओं का योगदान

डाॅ. ममता झा

किसी भी क्षेत्र की संस्कृति की पहचान उस क्षेत्र के लोकजीवन से होती है। लोकजीवन से तात्पर्य उस अतीत की खोज से है जिसकी परम्पराएं, प्रेरणाएं एवं प्रतीक ने आज भी उस संस्कृति को न केवल जिंदा रखा है, बल्कि उसे निरंतर गति भी प्रदान कर रही है। आदिवासी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान के लिए उसके जीवन शैली एवं रीति-रिवाज को जानना आवश्यक है।
आदिवासी समाज की एक प्रमुख विशेषता है कि उनमें समष्टिगत भावना होती है और वे नृत्य भी सामूहिक ही करते हैं। प्रत्येक आदिवासी गाँव में एक सामुदायिक नृत्य स्थल होता है, जिसे ‘अखरा’ कहा जाता है। विभिन्न पर्व-त्योहारों में सभी आदिवासी पुरुष एवं महिलाएं मिलकर अखरा में नृत्य करते हैं।

आदिवासी समाज में एक कब्रगाह होती है, जहाँ पूर्वजों की स्मृति के रूप में एक महापाषाण रखे जाते हैं। उस स्थान को ‘ससानदीरी’ कहा जाता है। जिस गाँव में एक से अधिक गोत्र होते हैं, वहाँ प्रत्येक गोत्र के लिए अलग-अलग ससानदीरी होते हैं, परंतु एकगोत्रीय गाँव में एकबार पूर्वजों की पूजा होती है एवं बकरी, मुर्गी, भेड़ आदि की बलि दी जाती है।
‘सरना-स्थल’ आदिवासी गाँव की विशेषता होती है। सरना उस स्थान को कहा जाता है, जहाँ जंगल के अवशेष के रूप में चार-पाँच वृक्ष बच जाते हैं। आदिवासी समाज में यह स्थान धार्मिक स्थान होता है। उनके अनुसार इस स्थान में गाँव के सभी देवी-देवताओं का वास होता है। मुंडा तथा उरांव जनजाति के लोग इस स्थान को सरना कहते हैं, जबकि संथाल, हो, खड़िया आदि इसे ‘जाहेर-थान’ कहते हैं।
युवागृह गाँव से सटा एक ऐसा घर होता ह,ै जहाँ गाँव की युवक-युवतियाँ एक वरिष्ठ सदस्य के नियंत्रण में रहकर अपनी संस्कृति को ग्रहण करते हैं। युवगृह में विवाह एवं पारंपरिक जीवन, नृत्य-संगीत, अस्त्र-शस्त्र चलाने की विधि तथा ग्राम की सुरक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती है। युवागृह को अलग-अलग जनजाति में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। उरांव जनजाति के लोग इसे धूमखुरिया के नाम से जानते हैं, तो मुंडा इसे ‘गितियोरा‘ कहते हैं।
आदिवासी समाज में मौखिक परंपरा की भी संस्कृति है। गीत-संगीत, नृत्य, कथा, मुहावरा आदि मौखिक परंपरा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में हस्तांतरित होते रहते हैं।
आदिवासी संस्कृति की विशेषता उसकी दस्तकारी में निहित होती है। इस समाज के लोग चटाई, झाड़ू, टोकरी, सूप, लकड़ी के सामान, रस्सी, मिट्टी के बर्तन, घर की लिपाई-पोताई, बालों की सजावट आदि में निपुण होते हैं एवं इसका निर्माण बड़े ही कलात्मक ढंग से करते हैं। गोदना, सुरमा, फूल-पत्ती, काजल आदि से पर्व-त्योहार पर आदिवासी महिलायें खुद को तो सजाती ही हैं, साथ ही घर की दीवारों पर भी फूल-पत्ती, पौधा, पशु-पक्षी, आदि के चित्र बड़े ही कलात्मक ढंग से बनाती हैं।
यों तो किसी भी समाज में स्त्री और पुरुष दोनों का स्थान समान होता है, परंतु आदिवासी समाज प्रारंभ से ही समानता और सहभागिता के आधार पर चलता है। इस समाज में औरत को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। आदिवासी संस्कृति में चित्रकला का विशेष स्थान है, जिसका श्रेय आदिवासी महिला को जाता है। आदिवासी महिलायें इस कार्य में विशेष दक्ष होती हैं। इन महिलाओं के पारंपरिक हुनर के कारण ही आज यह विधा इस समाज में जिंदा है। इसके अलावा आदिवासी महिला अपने जंगल और जमीन की रक्षा में भी कोई कसर नहीं छोड़ती। अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा में आदिवासी पुरुष का जितना योगदान है, उससे कहीं ज्यादा महिलाओं का योगदान है। वासवी ने अपनी पुस्तक ‘उलगुलन की औरतें’ में लिखा है –
‘‘इतना ही नहीं, अंग्रेजी हुकूमत को भगाने में और अपनी परंपरागत संस्कृति को बचाये रखने में इन महिलाओं ने जो अपनी वीरता का परिचय दिया, उसे याद कर आदिवासी समाज के साथ-साथ गैर आदिवासी समाज भी गौरवान्वित महसूस करता है।’’ वासवी ने अपनी पुस्तक ‘उलगुलान की औरतें’ में लिखा है – ‘‘विद्रोहों की कड़ी में 1855-56 का संथाल हुल आदिवासी संघर्ष का ऐसा उदाहरण है, जिसमें आत्म गौरव और आत्म सम्मान के लिए दस हजार से ज्यादा लोगों ने अपनी कुर्बानी दी। संथाल औरतों का अपहरण और कुकर्म, सिदो की हत्या, अंग्रेजों, महाजनों एवं जमींदारों के जुल्म से आदिवासी त्रस्त हो उठे और औरत-मर्द सबों ने हथियार थाम लिया। संथाल हुल के नायकों – सिदो-कान्हू, चाँद-भैरव के साथ उनकी दो बहनें फूनों और झानो ने योद्धा की भांति अंग्रेज शत्रुओं से मुकाबला किया। रात को तलवार लेकर निकली फूनों और झानो ने अंग्रेजों के शिविर पर धावा बोलकर 21 सिपाहियों की हत्या कर दी। संथाल लोकगीतों में आज भी इन बहादुर औरतों को याद कर आत्म गौरव से यह समाज भर उठता है। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए उलगुलान में भी हजारों की संख्या में इन औरतों ने हिस्सा लिया।’’

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