हिंदी उपन्यासों में मुस्लिम वर्ग के आर्थिक जीवन का चित्रण
मो. इस्माईल
इस्लाम में ईमानदारी से जीविका कमाने पर बहुत बल दिया गया है। इस्लाम एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था होने की वजह से हर मनुष्य को अपना जीवन जीने के लिए एक नियमबद्ध आचार-संहिता प्रदान करता है; जिसके अंतर्गत जीवन का उचित मार्गदर्शन है। इस्लाम संपत्ति इकट्ठा करने वालों का विरोध करता है और आदेश देता है कि जितना धन आवश्यकता के अनुसार उपयोग में लाकर बाकी धन गरीब, लाचार, तथा अनाथों में बांटा जाए। छल, कपट तथा किसी अनाथ का माल हड़प करके तथा अवैध तरीके से कमाया हुआ माल इस्लाम कदापि कबूल नहीं करता। साथ में चोरी, शराब एवं मादक द्रव्यों के व्यापार से कमाये हुए माल का इस्लाम निषेध करता है। इस तरह इस्लामी आर्थिक नीति में सच्चाई और ईमानदारी पर जोर दिया गया है।
इस तरह भारतीय मुस्लिमों का उपन्यासों के माध्यम से आर्थिक जीवन देखने का प्रयास किया गया है।
सल्तनतकाल में मुस्लिमों का आर्थिक जीवन
भारत में मुस्लिमों की पहली सल्तनत करने तथा दिल्ली पर आधिपत्य प्राप्त करने की विशेषता सुल्तान शहाबुद्दीन मुईजउद्दीन साम को प्राप्त है, जो सुल्तान मुहम्मद गोरी के नाम से जाने जाते हैं, जिनके सेनानायक कुतबउद्दीन ऐबक थे। उस समय से गुलामवंश का प्रारंभ होता है। दास परिवार का शासन 84 वर्षों (ई.स. 1206 से ई.स. 1290 तक) स्थापित रहा। उसके बाद खिलजी, तुगलक, सय्यद, लोदी तथा दखन में सुल्तानों का राज्य रहा। इस प्रकार सल्तनत शासन रहा।
भारत में मुस्लिमों के आगमन से भारतीय व्यापार तथा उद्योग-धंधों में परिवर्तन आने लगा। भारत तथा अरबों का व्यापारी संबंध प्राचीन काल से ही था। लेकिन भारत में मुस्लिम शासन स्थापित होने पर यह संबंध और भी मजबूत हुआ। भारत की गद्दी पर बैठने वाले सुल्तानों ने भारत देश को अपना देश मानकर यहां की सीमाओं को बढ़ाकर दरबारी खजाने को बढ़ाने की कोशिश करने लगे। उस समय अनेक भारतीय लोग मुस्लिम बन गए। कुछ लोग अमीर घराने से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने इस्लाम कबूल करने के बाद इस्ला सिद्धांतों के मुताबिक गरीब तथा लाचार मुसलमानों की आर्थिक मदद की।
उस समय व्यापार हेतु मुस्लिम एक देश से दूसरे देश जाया करते थे। उनका व्यापार ईमानदारी पर निर्भर होता था। इस तरह का चित्रण कमल शुक्ल के ‘रज़िया’ उपन्यास में वर्णित है। इसमें जमालद्दीन एक प्रसिद्ध गुलामों का व्यापार करने वाला है। जिसका चित्रण उपन्यास में पाया गया है जैसे,
बादशाह ने मुस्कुराते हुए कहा – ‘‘अबकी बार गुलाम नहीं ले आए जमालुद्दीन ?’’
जमालुद्दीन – ‘‘लाया तो हूं हुजूर, हुक्म की देरी है।’’
बादशाह – ‘‘तो उन्हें पेश करो।’’1
इस प्रकार जमालुद्दीन गुलामों के साथ भारत से सूती कपड़े तथा मसाले खरीदकर बाहर के देशों में बेचकर अच्छा खासा माल इकट्ठा करता है। इसका चित्रण इसी उपन्यास में हुआ है, जैसे, ‘‘हिंदुस्थान के अमीरों में उसने अपने करीब-करीब सभी गुलाम बेचे। इसी देश का सूती कपड़ा और मसाला वह अरब और अफगानिस्तान तक बेचकर मालदार बन गया था।’’2 इस प्रकार उपन्यास में उस समय के विदेशी व्यापार का वर्णन मिलता है। उस समय सुल्तानों की आर्थिक दशा धीरे-धीरे बढ़ रही थी। कुछ सल्तान अपनी आर्थिक दशा दिखाने के लिए एक दूसरे को तोहफें देते। ‘रज़िया’ उपन्यास में रज़िया की वर्षगांठ पर लोगों ने रज़िया के नाम पर बढ़िया से बढ़िया तोहफे दिए थे। जब सभी तोहफे दे चुके, तब इल्तुतमिश ने सारी भेट में आयी हुई सामग्री गरीबों में बांट दी थी। जैसे, ‘‘बादशाह ने मंच पर रखी हुई दीनारों का ढेर रज़िया के चारों ओर घुमाकर ‘दल-बादल’ के बाहर खड़े दिल्ली निवासियों पर फेंक दिया।’’3
सल्तनत कालीन शासन व्यवस्था के अंतर्गत अनेक सुधार के प्रयास हुए थे। उस समय सड़कें, नहरें, तालाबों का निर्माण भी हुआ था, जिसकी वजह से अनेक लोगों को काम भी मिला। उसी दौरान अनेक भवनों का भी निर्माण हुआ। खिलजी वंश के अलाउद्दीन खिलजी के काल में अनेक वस्तुओं का निर्माण हुआ। डॉ. असद अली इस संदर्भ में कहते हैं कि, ‘‘इस काल में असंख्य महल, मस्जिदें, पाठशालाएं, हम्माम, मकबरे एवं किले बड़ी द्रुत-गति से बने हैं।’’ इन भवन निर्माण की वजह से लोगों को अच्छी मजदूरी भी मिलती थी।
उस समय दखन में अनेक मुस्लिम राज्य हुए। उनमें ‘हैदराबाद’ तथा ‘बीजापुर’ के सुल्तानों की आर्थिक दशा अच्छी थी। उन्होंने अपनी रियासतों में अनेक ऐसी इमारतें बनवाई जो आज भी देखने लायक हैं। बीजापुर का ‘गोलगुम्मद’ तो दुनिया की सबसे बड़ी गुम्मद है। इसके अतिरिक्त अहमदनगर, गोलकुंडा, मालवा, खानदेश, की छोटी-छोटी मुस्लिम रियासतें अपने आप में निर्भर थीं।
उपर्युक्त विवेचन के उपरांत कहा जा सकता है कि सल्तनत काल में मुस्लिमों का आर्थिक जीवन तथा भारतीय आर्थिक व्यवस्था बहुत अच्छी थी। अनेक क्षेत्रों में उस समय सुधार भी हुआ।
मुगलकाल में मुस्लिमों का आर्थिक जीवन
मुगल साम्राज्य भारतीय मुस्लिमों के राजनीतिक इतिहास में सर्वश्रेष्ठ कालखण्ड रहा है। उसके कई चक्रवर्ती सम्राट भारतीय इतिहास में ही नहीं, बल्कि विश्व इतिहास में अपना स्थान रखते हैं। मुगलकाल अपने समय का सफल काल रहा। मुगलों ने भारत पर कब्जा करने के पश्चात भारत भूमि पर अपनी कार्यकुशलता तथा शौर्य के कारण यहां विराट राज्य का निर्माण किया। मुगलकाल के प्रथम बादशाह बाबर यहां आये तथा उन्होंने यहां के राजपूतों तथा सुल्तानों से युद्ध करके अपना राज्य स्थापित किया। जाफर रजा इस संदर्भ में कहते हैं कि, ‘‘बाबर को भारत में अपनी शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने का अवसर नहीं मिला, परन्तु उसकी आंखों में सुदृढ़ राज्य स्थापित करने का स्वप्न अवश्य था, जिसका आधार धर्मनिरपेक्ष साम्राज्य स्थापित करना था।’’
शेरशाह सूरी ने ई.स. 1540 मई में हुमायूं से दिल्ली का राज सिंहासन छीना था और वह सुल्तान बन गया। शेरशाह सूरी एक योग्य एवं अनुभवी शासक था। जाफर रजा कहते हैं कि, ‘‘उसने बंगाल से सिन्ध के बीच पन्द्रह सौ मील पक्का राजमार्ग बनवाया। हर कोस की दूरी पर एक सराय बनायी। प्रत्येक सराय में दो द्वार होते। एक पर पका हुआ भोजन तथा दूसरे पर भोजनार्थ पदार्थ मुफ्त बांटते रहते। राजमार्ग के दोनों ओर खिरनी, जामुन तथा अन्य फलवाले पेड़ लगाये गये थे, जो सभी जनता के सेवनार्थ थे।’’ उस समय शेरशाह सूरी की आर्थिक दशा अच्छी थी, जैसे ‘‘शेरशाह सूरी की अन्य महिला बीबी फरह मलिका, पत्नी मुस्तफा फरमूली थी, जिसके सहयोग से प्रभावित होकर शेरशाह ने उसे दो परगना की जागीर प्रदान की थी।’’ दो परगना की जागीर भेट स्वरूप देना असाधारण आर्थिक दशा का द्योतक है। उसी तरह मुगल बादशाह अकबर शिकार को जाते तो अपने साथ बहुत बड़ी तादात में अमीर उमराव तथा अन्य लोगों को ले जाते थे। इसका चित्रण बलवंत सिंह के ‘साहिबे-आलम’ उपन्यास में इस तरह से आया है, जैसे, ‘इस बार शिकार पर जाते वक्त जिल्ल-ए-इलाही ने सफर करना पसन्द किया। शहनशाह के पीछे बेगमात, शहजादियों और शाही खानदान के लोगों की सवारियां होती थीं। सवारी के लिए बेगमात की पसन्द भी अलग-अलग होती थी। यानी कारवां के बिल्कुल आखिर में मनसबदार यानी कम दर्जे के अमीर चलते हैं। वह हथियार सजाये उम्दा घोडों पर सवार होते हैं। यह बहुत ज्यादा तादाद में होते हैं।’’4 इससे उस समय की आर्थिक दशा का बोध होता है। क्योंकि अनेक लोगों को शिकार पर ले जाना तथा उनका खर्च चलाना अच्छे आर्थिक दशा का द्योतक है।
प्रेमचंद्र महेश के ‘कलम और तलवार के धनी रहीम’ में सेनापति रहीम जो अकबर बादशाह के नवरत्नों में से एक थे, उन्होंने गुजरात की लड़ाई जीतने की खुशी में अपनी अपार संपत्ति बांट दी थी, जैसे. ‘‘रहीम ने अपनी सारी संपत्ति को, जिसका मूल्य लगभग पचहत्तर लाख रुपया था, सैनिकों में बांट दी।’’ इससे पता चलता है कि एक बादशाह का सेनापति उस समय पचहत्तर लाख रुपया सैनिकों में लुटाने का हैसियत रखता था। तो इस बात से उस समय के बादशाह की आर्थिक दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। डॉ. रविंद्र मोहन भटनागर के ‘महाबानो’5 उपन्यास में भी रहीम के आर्थिक दशा का चित्रण हुआ है, जिसमें रहीम के रंग महल की शान कुछ और ही है, जिसका बैठकखाना अनेक कीमती वस्तुओं से भरा हुआ था। इससे स्पष्ट होता है कि रहीम जैसे एक मनसबदार की आर्थिक स्थिति मजबूत थी।
मुगल बादशाह शाहजहां का काल आर्थिक दशा से स्वर्ण काल था। उस समय शाहजहां ने भारत भूमि पर अनेक ऐसी अनमोल इमारतें बनवाई जो पूरे दनिया का अजूबा साबित हुई। दिल्ली और आगरे का लालकिला, जामा मस्जिद, ताजमहल, बुलंद दरवाजा इत्यादि इमारते बनवाई, इन सबका चित्रण ‘जहांआरा’ उपन्यास में आया है, जैसे, ‘‘इन सब योजनाओं में शाहजहां का बहुत अधिक धन खर्च हो रहा था, लेकिन उसको तनिक भी परवाह नहीं थी। वह जानता था कि उसके दोनों खजाने खूब भरे हुए हैं।’’6 इससे स्पष्ट होता है कि शाहजहां की आर्थिक स्थिति बहुत ही मजबूत थी। वह अपनी रियाया का ख्याल रखते थे। वह लालची तथा कंजूस नहीं थे। इसलिए उन्होंने दिल खोलकर पैसा खर्च किया था। इसी उपन्यास में एक जगह उनकी आर्थिक दशा का चित्रण इस प्रकार से हुआ है, जैसे, ‘‘शाहजहां ने जो अपना दरबारे-खास बनवाया था, वह श्वेत संगमरमर का भवन था और उसमें दीवारों पर रत्न जड़े थे। रात के अंधेरे में जिनका प्रकाश होता। वही पर रक्खा था तख्ते ताऊस (मयूर सिहांसन) जिसे शाहजहां ने एक लाख तोला सोना लगवाकर बनवाया था। यह सिंहासन बिल्कुल ठोस था। एक करोड़ रुपये का इस पर खर्च आया और यह तखते ताऊस सात साल में बनकर तैयार हो पाया।’’ इससे उनकी आर्थिक दशा तथा वैभव का पता चलता है। शाहजहां ने ‘ताजमहल’ बनवाया। ताजमहल जैसा भवन बनवाने के लिए शाहजहां ने ईरान से शीराजी को बुलवाया तथा उसके नक्शे से खुश होकर उसे इनाम के तौर पर एक लाख रुपये दिये, इसका वर्णन ‘जहांआरा’ उपन्यास में इस प्रकार से आया है, जैसे, ‘‘शिराजी को एक लाख रुपये दो। यह इनाम उसके लिए फिर भी कम है। खजाने से यह रकम अभी दिलवा दो।’’ संक्षेप में शाहजहां की आर्थिक दशा उच्चकोटि की थी। इसलिए उनके काल को स्वर्ण काल कहा जाता था।
औरंगज़ेब के समय लाहौर के राज्यपाल आकिल खां ने लाहौर में औरंगजेब तथा उसकी चहेती बेटी जेबुनिस्सा का भव्य स्वागत किया। इसका चित्रण बी.आर. पद्म के ‘जेबुनिस्सा’ उपन्यास में हुआ है – ‘‘कहते हैं कि युवक आकिल खां ने शहजादी को अपने प्रेम का रूप दिखाने के लिए इस दावत पर अपनी ओर से 30 लाख रुपये खर्च कर डाले थे।’’ इससे स्पष्ट होता है कि एक राज्यपाल सिर्फ दावत पर तीस लाख रुपये खर्च करने कि हैसियत रखता था। खास तौर से अनेक मुगल बादशाह किसी व्यक्ति के गुण, बुद्धिमता पर खुश होकर उसे मालामाल करते थे। यह भी कहा जाता है कि कुछ मुगल बादशाह और शाहजादे भोगविलासी जीवन व्यतीत करते थे। अपने नफ्स को बहलाने वाली कनीजों, वेश्याओं पर बेशकीमती हीरे-माणिक लुटा देते, जिसका उन्हें हिसाब भी न होता। इस तरह का चित्रण वाल्मिकी त्रिपाठी के ‘जहांदाराशाह’ उपन्यास में लालकुंआरी नामक एक तवायफ के पास जहांदाराशाह की तरफ से दी गयी बेशुमार संपत्ति का चित्रण किया गया है। जहांदाराशाह जब बगावत करना चाहते हैं, तब सैन्य के लिए धन की आवश्यकता आ पड़ती है। तब लालकुंआरी अपने भूगर्भ कोठरी में पड़े बेहिसाब धन का दर्शन जुल्फिकार नामक एक अन्य सेनापति को कराती है और सैन्य को आवश्यक धन जहांदाराशाह को अर्पण करने के अपने विचारों को स्पष्ट करती है, जैसे, ‘‘इस कोठरी में भी ऐसी बेशुमार दौलत भरी हुई है। इसके जरिए आप जितनी बड़ी फौज चाहें खड़ी कर सकते हैं।’’7 इससे स्पष्ट होता है कि एक वेश्या को इतनी सारी दौलत का देना उस समय की आर्थिक संपन्नता का बोध होता है। अनेक मुगल शहजादों के भोग विलासी होने से मुगलकाल के अन्त में मुगल सम्राटों तथा सरदारों की आर्थिक दशा अत्यंत बिकट हो गई थी।
मुगल सम्राटों के समकालीन लखनऊ के नवाबों की शानों-शौकत देखने लायक थी। इन नवाबों के आखरी नवाब वाजिदअली शाह रहे, जिसका चित्रण आलोच्य उपन्यासों में मिलता है। ‘बेगम हज़रत महल’ उपन्यास में वाजिदअली शाह के पूर्वजों की छोड़ी हुई संपत्ति का चित्रण किया गया है, जैसे, ‘‘शाही अस्तबल में हजारों तातारी, काठियावाड़ी घोड़े, सैकड़ों ऊंट और सैकड़ों हाथी मौजूद थे। जामदानी, कामदानी, चिकन, अतलस, किमखाब, रेशमी-सूती कपड़े के थानों तथा पश्मीना से तोषाखाना खचाखच भरा हुआ था।’’8 इससे साबित होता है कि नवाबों की आर्थिक दशा किस तरह की थी। फिरंगियों ने वाजिदअली शाह के भलमानसी का फायदा उठाकर उनकी सत्ता हथिया ली। उन्होंने लखनऊ की बेहिसाब दौलत लूट ली। इसका चित्रण इस प्रकार से हुआ है, जैसे, ‘‘लखनऊ के सभी नवाबों-बादशाहों का जमा किया साज-सामान था। उसके अलावा बाईस संदूकचे बेशकीमती नायाब जवाहरातों से भरे थे। तीन शाही ताज जिन में ऐसे-ऐसे बेशबहा हीरे-जवाहरात जड़े हुये थे, जो आज मुल्क की किसी भी सल्तनत-रियासत में ढूंढे नहीं मिल सकते। बेशुमार अशर्फियों के तोड़े, तख्नेशाही, सैकड़ों सोने की मूठों वाली नग जड़ी – तलवारें, पेशकब्ज। तीन संदूकचे, मोतियों की मालाओं के सोने-चांदी के पलंग-मसेहरियां और दीगर सामान का तो कोई हिसाब ही न था।’’ उसी प्रकार ‘गुलफाम मंज़िल’ उपन्यास में भी कई जगहों पर नवाबों के आर्थिक दशा का चित्रण देखने को मिलता है।
उपर्युक्त विवेचन से कहा जा सकता है कि मुगल बादशाहों, सरदारों एवं अमीरों की आर्थिक दशा बहुत ही अच्छी थी। उस समय मुगल बादशाह तथा नवाब अपने साथ अपने रियाया का भी ध्यान रखते थे। वहीं मध्यवर्ग अपनी आय से संतुष्ट थे। सर्वसामान्य लोग दो वक्त की रोटी खाकर अपने बादशाहों से तथा उनके राज्य से खुश थे।
मुगल बादशाह हस्तकला तथा वास्तुकला के शौकीन होने से उन्होंने इस जमीन पर अनेक भवन बनाए। इन भवनों की निर्मिति से अनेक गरीबों को रोजगार प्राप्त हुआ। साथ में कलाकारों की अपनी कला की वजह से उनकी रोजी रोटी चलती थी। कभी-कभी बादशाह उनकी कलाओं पर खुश होकर उन्हें मालामाल कर देते थे; जिससे उनकी किस्मत खुल जाती थी। इस प्रकार मुगलकाल की आर्थिक जीवन का चित्रण निहित है।
आधुनिककाल में मुस्लिमों का आर्थिक जीवन
ई.स. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति से मुगलों की सत्ता हथिया ली। अतः भारतीय खजाना लूटकर भारत के लोगों को लाचार बना दिया। उस समय बपौती में मिली संपत्ति का कुछ हिस्सा अधिकतर मुस्लिमों के पास मौजूद था, जिसकी वजह से वह शानो-शौकत से रहने लगे थे। इसका चित्रण आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ‘धर्मपुत्र’ उपन्यास में इस तरह से आया है, जैसे, ‘‘बड़े-बड़े मुसलमान व्यापारी अपनी कोठीनुमा दुकानों में बैठे, अतलस का कुर्ता पहने, पान कचरते, लचकाती दिल्ली की भाषा में अपने को ‘देहलवी’ कहकर अपनी समई आंखों के लाल डोरे सजाए रहते थे।… रईसों के कहार-महरियां सौदा-सुल्फ करते थे।’’ इस प्रकार उस समय के रईसों के ठाठ बांट का चित्रण हुआ है।
उसी उपन्यास में नवाब वजीर खां ने पांच लाख का महर बांधा और नवाब मुश्ताफ अहमद ने अपनी अवशिष्ट समूची जायदाद दहेज में दे दी थी। यहां नवाब साहब शादीशुदा थे। फिर भी उन्होंने हुस्नबानो से अपार पैसा खर्च करके शादी की थी। इसका चित्रण इस प्रकार से आया है, जैसे, ‘‘इस उम्र में शादी करने पर भी नवाब ने धूमधाम में कोई कसर न रखी। हफ्तों तक दावतों, मजलिसों और नजरानों-तोहफों का दौर चलता रहा। खूब जल्से हुए, गाने-बजाने हुए, बोतलें खाली हुईं। नवाब ने दो लाख रुपये शादी पर खर्च कर दिया।’’ इस प्रकार नवाब वजीर अली खां के आर्थिक दशा का चित्रण हुआ है। उस समय दो लाख रुपये कोई मामूली राशि नहीं थी। फिर भी अपनी शादी में खर्च करके नवाब ने अपने नवाबी ठाठ का दर्शन दिखाया है। यज्ञदत शर्मा के ‘बलिदान की बेला’ नामक उपन्यास में मियां सिराजुद्दीन को बपौती में मिली जायदाद का चित्रण बहुत ही स्पष्ट रूप से चित्रित हआ है, जैसे,
‘‘मियां सिराजुद्दीन का परिवार लखनऊ की शान था। पुराना खानदान था। नवाब वाजिदअली शाह के दरबार में उनका बड़ा मान था। लखनऊ की जायदाद के अलावा उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी।’’
इस प्रकार बपौती में मिले धन संपत्ति का चित्रण ‘गज़ाला’ उपन्यास में भी देखने को मिलता है। नवाब फलक रफअत की नवाबी तथा ‘चांदनी’ उपन्यास में नवाब साहब की जायदाद, हवेली, कारोबार तो ‘निर्लेप’ उपन्यास का पात्र लतीफ अहमद अपनी बपौती से प्राप्त संपत्ति से लखनऊ में अनेक मकान खरीदते हैं। इस प्रकार आलोच्य उपन्यासों में नवाबी ठाठ का चित्रण स्पष्ट रूप से हुआ है।
पश्चिमी सभ्यता के परिणामस्वरूप भारतीय लोगों में भी आधुनिकता आ गयी थी। वह फिरंगियों के तौर तरीके से प्रभावित हुए थे। वे भी कल्बों तथा ऊंचे होटलों में खाना, ठहरना एक रिवाज़ समझने लगे थे। उन्हें यह फैशन लगने लगा था। इसका वर्णन ‘बेगम गुल’ उपन्यास में स्पष्ट रूप से चित्रित हुआ है, जैसे, ‘‘इसलिये दोपहर को वह उनको सोने की सलाह देकर कार लेकर बाहर निकल जाती थी। कभी शांपिंग करतीं, कभी हेयर-ड्रेसर से योग के बाल बनवा लिये, कभी मेकअप की किसी प्रसिद्ध कंपनी की एजेंट औरत से मेकअप करना सीख लिया। शाम को वे उसे क्लब ले जाते, जहां उनकी तबियत पूछने के बहाने अच्छा-खांसा जमघट लग जाता।’’ यहां बेगम गुल ब्रिगेडियर शमसी की पत्नी बन जाने पर शमसी उसे आधुनिक स्त्री बनाना चाहते हैं। शमसी भी आधुनिक किस्म के रईस हैं, उनके घर में अनेक ऐसी व्यर्थ चीजें हैं, जिनकी उन्हें परवाह भी नहीं है, जैसे ‘‘दीवार पर लटका हुआ साठ हजार का यह काशनी कालीन, हजार-हजार की तस्वीरें, जिनको न वह समझती है, न उसका मियां। पांच-पांच सौ के यह वर्मा चांदी के बड़े-बड़े प्याले, जिन पर तस्वीरों में वहां की तारीख खुदी हुई है। फिर कितने बहुत से नौकर, कितने बहुत से बर्तन, कितना बहुत सामान, बिजली का चूल्हा, जिसे उसने कभी इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि खांसामा मिट्टी के तेल के चूल्हे पर खाना बनाता है। कपड़े धोने की मशीन, जिसे आजतक उसने खोल कर नहीं देखा, क्योंकि धोबी उसके कपड़े धोता है। बिजली की इस्त्री जो शुरू से बंद पड़ी है, क्योंकि घोबी उसके कपड़े इस्त्री करता है। रेडियो-ग्राम, रिकॉर्ड चेंजर, टेप रिकॉर्डर, तोबा, किस तरह से चीजों की भर्ती थी कि जो उकताया जा रहा था और कपड़े, बेहद कपड़े। इस महीने उसने कितनी साड़ियां खरीदी थीं। न जाने वह गिनती भी भूल गई थी और मेकअप का सामान।’’9
विवेच्च उपन्यासों में निम्न वर्गीय मुस्लिम वर्ग का चित्रण भी स्पष्ट रूप से हुआ है। ‘पत्थर-अलपत्थ’ उपन्यास का हसनदीन एक ऐसा ही पात्र है, जो निम्नवर्गीय मजदूर है, जो घोड़ों की रखवाली करता है और आये हुए सैलानियों को घोड़े उपलब्ध कराता है और साथ में गाईड का काम भी करता है। उस पर ही उसके घर का गुजारा होता है। इसका चित्रण पूरे उपन्यास में स्पष्ट रूप से हुआ है। हसनदीन बार-बार अल्लाह से रोजी के रास्ते खोलने की दुआं मांगता है। यहां हसनदीन अपने अल्लाह से अपनी गरीबी दूर करने तथा रोजी मिलने की दुआ करता है। यहां उसकी गरीबी के दर्शन होते हैं। गरीबी की वजह से हसनदीन की बीवी यासमीन परिश्रम, भूख और मैल ने उसे अधेड़ बना दिया है।
‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास की कथा का हर पात्र गरीबी से जूझता हुआ दिखाई देता है। यहां मतीन तथा अलीमून का जीवन बहुत ही खस्ता और अपार है, यहां अलीमून को टी.बी. बीमारी हो गयी है। दिन भर काम करने पर भी वह दो वक्त की रोटी ठीक से जुटा नहीं पाते, दवा तो दूर। पूरा उपन्यास बनारस के बुनकरों के आर्थिक दशा पर प्रकाश डालता है। इलियास अहमद गद्दी के ‘फायर एरिया’ उपन्यास में रहमत तथा उसकी बीवी खतुनिया के लाचार जीवन और आर्थिक दशा का चित्रण स्पष्ट रूप से है। अपने पति के गुजरने पर खतुनिया अपना और अपने बेटे का गुजारा करने के लिए दिन भर कोयला बेचती है। डॉ. गौरीशंकर राजहंस के ‘सलमा’ उपन्यास की सलमा एक कश्मीरी युवती है और हाऊस बोट चलाती है, जैसे, ‘‘लम्बी सांस खींचते हुए सलमा ने कहा, ‘‘एक हाऊस-बोट की आमदनी से गुजारा नहीं हो पाता है। साल में पांच-छह महीने तो बर्फ ही ढकी रहती है। बाकी पांच-छह महीनों में टूरिस्ट आते हैं और कभी नहीं भी। कभी तो बहुत पैसे पास में आ जाते हैं और कभी अल्लाह का नाम लेना पड़ता है। ’’3 यहां सलमा अपनी आर्थिक दशा का वर्णन करती हुई नजर आती है। इस तरह आलोच्य उपन्यासों में निम्न वर्गों के आर्थिक दशा का वर्णन हुआ है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आधुनिक युग में मुस्लिमों के आर्थिक पतन की एक वजह यह भी थी कि धन कुछ सीमित लोगों में ही विभाजित होता गया; जिससे समाज दो तबकों में बांटा गया। अमीर ज्यादा अमीर बनते गये तथा गरीब ज्यादा गरीब ही रह गये। व्यवसाय तथा उद्योग-धंधों पर कुछ लोगों का ही कब्जा रहा, जिसके परिणामस्वरूप गरीब तथा निम्नवर्ग खस्ता हालत की जिंदगी व्यतीत करता रहा। इसका वर्णन उपरोक्त उपन्यासों में मिलता है।
संदर्भ :
- धर्मेंद्र एम.ए., ‘रज़िया’ (इलाहाबाद, किताब महल), पृ.सं. 4
- धर्मेंद्र एम.ए., ‘रज़िया’ (इलाहाबाद, किताब महल), पृ.सं. 136
- धर्मेंद्र एम.ए., ‘रज़िया’ (इलाहाबाद, किताब महल), पृ.सं. 4
- प्रेमचंद्र महेश, ‘कलम और तलवार के धनी रहीम’ (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन; 2005), पृ. 25
- डॉ. राजेंद्र मोहन भटनागर, ‘महाबानो’ (दिल्ली, किताब घर; 1980), पृ. 27
- कमल शुक्ल, ‘जहांआरा’, (दिल्ली, दिनमान प्रकाशन; 1978), पृ. 24
- वाल्मिकी त्रिपाठी, ‘जहांदाराशाह’ (कानपुर, ग्रन्थम प्रकाशन; 1976), पृ. 46
- इकबाल बहादुर देवसरे, ‘बेगम हज़रत महल’ (इलाहाबाद, साहित्य भवन; 1973), पृ. 122
- जाया फसाह अहमद, ‘बेगम गुल’ (इलाहाबाद, रचना प्रकाशन; 1973), पृ. 139
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