दूध से भागने वाली बिल्ली
कहानी
मिथिला में एकबार चूहों की संख्या इतनी बढ़ गई कि लोगों का जीना हराम हो गया। चूहे खेत-खलिहान में उत्पात मचाते। धान की कोठियों में बिल बनाते। चौका में उछल-कूद करते। राजमहल भी चूहों की आमद का शिकार हो गया था। एक रात चूहे ने महाराज की पगड़ी कुतर डाली और सुबह जब महाराज ने अपनी पगड़ी की हालत देखी, तो उन्हें बहुत गुस्सा आया।
उसी दिन महाराज ने बड़ी तादाद में बिल्लियां मंगाईं। अपने राज्य के समस्त परिवार को एक-एक बिल्ली पालने का हुक्म दिया। गरीब प्रजा इस फरमान के विरुद्ध खड़ी हो गई। दरबार में इस समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। महराज की चिन्ता का विषय था कि मिथिला के लोग मृदुभाषी होते हैं। विरोध या विद्रोह से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर बिल्ली पालने के राजाज्ञा का उल्लंघन करने पर वे कैसे आमादा हो गए ?
निष्कर्ष निकला कि लोग अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण बहुत मुश्किल से कर पाते हैं। ऐसे में वे बिल्ली पालने के लिए दूध कहां से लाएंगे ?
मूल बात महाराज को भी समझ में आ गई और उन्होंने नया फरमान जारी किया कि जिन लोगों को बिल्लियां दी गई हैं, वे उन बिल्लियों के लालन-पालन के लिए राज्य गौशाला से एक-एक गाय ले जाएं।
प्रजा तक जब यह बात पहुंची, तो उनमें खुशी की लहर दौड़ गई। महाराज को प्रजावत्सल कहा जाने लगा। महाराज ने खुद अपनी देखरेख में गायों का वितरण किया। प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को, जिसे वे गाय की रस्सी थमाते, यह निर्देश भी देते कि बिल्ली को दूध देने में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। अगले साल राज्य में बिल्लियों की प्रतियोगिता कराई जाएगी। जिसकी बिल्ली बहुत मजबूत होगी, मोटी और सुन्दर, उस व्यक्ति को पारितोषिक प्रदान किया जाएगा। इसके विपरीत जिस व्यक्ति की बिल्ली कमजोर होगी, उसे दंडित किया जाएगा।
गोनू झा को भी बिल्ली दी गई थी। गोनू झा भी अपने साथ गाय लेकर घर पहुंचे। शाम को गाय दूहकर उन्होंने भरी बाल्टी अपनी पत्नी को थमाई और कहा कि एक कटोरा दूध खूब गर्म करके लाओ।
पंडिताइन ने दूध उबालकर कटोरा में भरा और आंचल से कटोरा पकड़े हुए गोनू झा के पास आई और उनके पास कटोरा रख दिया।
गोनू झा बिल्ली के बच्चे को गोद में लिए बैठे थे। दूध की गंध पाकर बिल्ली के बच्चे ने उनकी गोद से निकलने की कोशिश की। गोनू झा ने बिल्ली के बच्चे का सिर अपनी अंगुलियों से पकड़ लिया और बोले – ‘‘दूध पीओ।’’ इतना कहकर उन्होंने बिल्ली के बच्चे का मुंह दूध से भरे कटोरे में सटा दिया। बिल्ली गर्म दूध होने के कारण छटपटाकर गोनू झा के हाथ से निकलने की कोशिश करने लगी। गोनू झा ने बिल्ली के बच्चे को पुचकारकर शान्त किया और फिर ‘दूध पीओ’ कहकर उसका मुंह गर्म दूध में डुबोकर निकाल लिया। इस बार बिल्ली का बच्चा अपनी पूरी ताकत से गोनू झा के हाथ से निकलने की कोशिश करने लगा। उसके पंजों से गोनू झा के हाथ में कई स्थानों पर खरोंचे भी आ गईं। गोनू झा ने बिल्ली के बच्चे को अपने हाथ से निकल जाने दिया।
एक हफ्ते तक गोनू झा अपने ढंग से बिल्ली के बच्चे को दूध पिलाने के लिए खूब गर्म दूध मंगाते और वही क्रिया दुहराते। स्थिति यह हो गई कि बिल्ली का बच्चा ’दूध’ शब्द सुनते ही डरकर दुबक जाता। दूध की कटोरी पड़ी रहती, मगर उसकी ओर देखता तक नहीं।
थोड़े ही दिनों में गोनू झा ने अपनी बिल्ली को चूहों के शिकार के लिए प्रेरित करना शुरू किया। स्थिति यह हुई कि चूहा देखते ही गोनू झा की बिल्ली उस पर झपट पड़ती और अपने पंजों में दबोचकर उसके साथ खिलवाड़ करती और अंततः उससे अपनी क्षुधापूर्ति करती। दूध की ओर जाना तो दूर, उसकी ओर देखना तक इस बिल्ली को गंवारा न था।
गोनू झा रोज गाय का दूध पीते। दही खाते। मलाई खाते। दूध के तरह-तरह के पकवान उनके घर में बनते रहते थे।
दूसरी तरफ गांव के लोगों में होड़-सी मची थी कि किसकी बिल्ली ज्यादा दमदार दिखती है। अपनी बिल्ली के साज-संवार में ये लोग जितना ध्यान दे रहे थे, कभी उतना ध्यान अपने बच्चों की परवरिश पर भी इन लोगों ने नहीं दिया था।
गांव में प्रायः चर्चा होती रहती थी कि अमुक व्यक्ति की बिल्ली बहुत सुन्दर है। अमुक की बिल्ली के म्याऊं बोलने का अन्दाज बहुत प्यारा है। अमुक की बिल्ली बड़ी ढीठ है, तो अमुक की बिल्ली बड़ी चपल है।
लोग अपनी बिल्ली को नहला-धुलाकर घंटों उसके रोओं को तरह-तरह का उपक्रम करके चमकाने में लगे रहते। उनमें से कुछ तो अपनी बिल्ली को नहलाने के बाद कंघी करने में लगते।
दूध को गाढ़ा होने तक उबाला जाता, ताकि बिल्ली जो दूध पीए, वह ज्यादा पौष्टिक हो। कहने का तात्पर्य यह कि लोग अपना कम और बिल्लियों का खयाल ज्यादा रख रहे थे। ग्रामीणों में इस बात की खुशी थी कि गोनू झा की बिल्ली पिलपिल ही है। बीमार-सी दिखती है। लोग फुसफुसाकर आपस में बातें भी करते थे कि गोनू झा खुद गाय का दूध पी जाते हैं, बिल्ली बेचारी तो इधर-उधर मुंह मारकर गुजारा करती है। ग्रामीणों को विश्वास था कि इस बार गोनू झा इस बिल्ली वाले मसले पर जरूर राजदण्ड के भागी बनेंगे।
इसी तरह एक साल बीत गया।
एक दिन महाराज ने मुनादी करा दी कि शरद पूर्णिमा के दिन सभी ग्रामीण अपनी-अपनी बिल्ली के साथ राज-उद्यान में उपस्थित हों।
देखते-देखते शरद पूर्णिमा का दिन भी आ गया। राज-उद्यान में ग्रामीण अपनी बिल्लियों के साथ उपस्थित हुए। महाराज ने ग्रामीणों के पास जा-जाकर उनकी बिल्लियां देखीं। सहलाईं, प्यार किया और आगे बढ़ते गए। उन्हें प्रसन्नता हो रही थी कि उनके राज्य में अब बिल्लियों की कमी नहीं है। राज्य से चूहों का सफाया होना निश्चित है।
गोनू झा सबसे अलग अपनी बिल्ली के साथ एक किनारे खड़े थे। जब महाराज उनके पास पहुंचे, तो चौंक गए – ‘‘अरे, यह क्या पंडित जी ! बिल्ली बीमार है क्या ?’’ उन्होंने गोनू झा से पूछा।
‘‘नहीं महाराज ! बिल्ली स्वस्थ है, मगर यह दूध नहीं पीती।’’
गोनू झा का यह उत्तर सुनकर महाराज तैश में आ गए। तुरन्त एक कटोरी दूध मंगाई। दूध देखते ही गोनू झा की बिल्ली गोनू झा की गोद से जबरन छटपटाकर निकली और छलांग लगाकर दूसरी ओर महाराज के बैठने के लिए रखे आसन के पास जाकर छुप गई। महाराज को विश्वास हो गया कि गोनू झा की बिल्ली दूध नहीं पीती।
दूसरे ही क्षण गोनू झा ने महाराज से कहा – ‘‘महाराज ! मेरी बिल्ली में वे तमाम गुण हैं जो एक बिल्ली में होने चाहिए। यह चूहे का शिकार करने में बहुत कुशल है। इतनी कुशल कि यहां उसके मुकाबले में कोई बिल्ली नहीं है। महाराज ! मेरी विनती है कि आप सभी सज्जनों से अपनी बिल्ली छोड़ देने के लिए कहें। मेरे पास एक पिंजड़े में कई चूहे बंद हैं, मैं उन्हें खोलता हूं।’’
महाराज ने सबको बिल्लियां छोड़ देने के लिए कहा। सबकी बिल्ली जमीन पर रखी गई। गोनू झा ने चूहेदानी का मुंह खोल दिया। सभी देखते रह गए। बिजली जैसी तेजी से गोनू झा की बिल्ली ने ताबड़-तोड़ सारे चूहे मार डाले। अन्य लोगों की बिल्लियां दूध से अघाई; अपने स्थान पर अलसाई हुई पड़ी रहीं।
गोनू झा ने कहा – ‘‘महाराज ! राज्यहित में यही है कि बिल्ली ऐसी हो जो चूहों को मार सके।’’
महाराज गोनू झा के तर्क से प्रसन्न हो गए और उस वर्ष बिल्ली पालन का पारितोषिक गोनू झा को ही प्राप्त हुआ।