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दूसरी नाक

यशपाल

रिचय : जन्म 3 दिसम्बर, 1903 में फिरोजपुर छावनी के एक खत्री परिवार में हुआ था। पिता हीरालाल एवं माता प्रेमा देवी आर्यसमाजी थे। पंजाब के क्रन्तिकारी नेता लाला लाजपतराय से संपर्क हुआ, तो वे बड़े होकर स्वाधीनता आंदोलन से भी जुड़े। भगतसिंह से यशपाल की घनिष्ठता थी। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज से बीए किया तथा नाटककार उदयशंकर से उन्हें लेखन की प्रेरणा मिली। देशभक्त क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव से प्रेरित होकर इन्होंने क्रन्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। जेल गये और वहां बरेली जेल में प्रकाशवती से विवाह किया। वे एक सफल कहानीकार, निबंधकार, नाटककार रहे हैं। यशपाल मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित रहे हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित यषपाल को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1970 में पद्म भूषण से सम्मान से भी नवाजा गया।

लड़के पर जवानी आती देख जब्बार के बाप ने पड़ोस के गांव में एक लड़की तजवीज कर ली। लेकिन जब्बार ने हस्बा की लड़की शब्बू को, जो पानी भरकर लौटते देखा, तो उसकी सुध-बुध जाती रही।
जैसे कथा कहानी में कहा जाता है कि शाहजादा नदी में बहता हुआ सोने का एक बाल देख सोने के केशधारी सुंदरी के प्रेम से आहत महल की अटारी में उपवास कर लेट गया था; बहुत कुछ वैसा ही हाल जब्बार का भी हुआ। मुंह से तो कुछ कह न सका, पर शिथिल शरीर, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, कुछ खोया-खोया सा वह रहने लगा।
मां-बाप ने उसकी हालत देखकर सलाह की। मुंह-दर-मुंह नहीं, पर उसे सुना दिया कि ब्याह जल्दी ही उसका हो जाएगा। लड़की भी बच्चा नहीं, बिलकुल जवान है। शमसल की बड़ी बेटी जहुन्ना आसपास के चार गांवों में एक ही लड़की है। पानी का बड़ा मटका सिर पर उठाकर धमकती दो मील चली जाती है। घर भर का काम संभालती है अभी से ! यहां आ जाएगी तो जब्बार की मां को भी चैन मिलेगा। बूढ़ी हो गई बेचारी। पर जब्बार को इससे कुछ तसल्ली न हुई। वह अक्सर लंबी-लंबी आहे खींचकर चुपचाप पड़ा रहता।
एक रोज मां ने आंखों में आंसू भर अपनी कसम घराकर पूछा, तो उसने सच कह दिया। जहुन्ना की बात सुनने से भी उसने इनकार करके कहा, ‘‘या तो हस्बा की बेटी शब्बू, नहीं तो बस ! .कुछ नहीं।’’
मां-बाप ने बहुत समझाया। उसे सुनता देखते तो आपस में जहुन्ना की तारीफ और शब्बू की निंदा करने लगते। फिर जो लोग ऐसी बेशर्मी से ब्याह करते हैं, उनकी कितनी निंदा होती है, यह सब वे लड़के को काकोक्ति, अलंकार और रूपक द्वारा समझाकर हार गए। पर धुन का पक्का जब्बार न माना तो न माना।
बेटे की जिद्द से हार मान बूढ़ा गफ्फार एक रोज हस्बा से बात करने गया। जब बह लौटकर आया, तो क्रोध से उसकी आंखें लाल और ग्लानि से चेहरा विरूप हो रहा था। बंदूक कोने में रख, कंधे की चादर जमीन पर फेंक वह जमीन पर ही बैठ गया।

जब्बार की मां ऊंटों को बेरी की पत्तियां खिला रही थी। तुरंत बूढ़े के समीप दौड़ी आई। जब्बार दूर से ही उत्सुक कान लगाए था। बूढ़ा मानो फट पड़ा, ‘‘ऐसे नालायक बेटे से बेऔलाद भला !’’
जब्बार की मां ने घबराकर बेटे की बलाएं अपने सिर लेते हुए नाक पर हाथ रखकर पूछा, ‘‘हाय-हाय ! हुआ क्या ?’’
बूढ़े ने कहा, ‘‘होगा क्या ? ऐसे बे-शर्म बे-गैरत लड़के से और होगा क्या ? तमाम इज्जत खाक में मिल गई और घर मिट्टी में मिल जाएगा।’’
मां ने फिर बलाएं लेकर पूछा, ‘‘हाय हुआ क्या ? ऐसा क्यों कहते हो !’’
बाप ने कहा, ‘‘अगर इसके ऐसे ही मिजाज थे तो यह कलात के खान के यहां पैदा क्यों नहीं हुआ ? जानती है, हस्बा ने क्या कहा ? सीधे मुंह से बात भी न की। कहती है, शब्बू की बात तुम मत सोचो। उसे वह ब्याहेगा जो अढ़ाई सौ रुपए की गठरी बांधकर लाएगा।’’
अढ़ाई सौ रुपए की बात सुन जब्बार की मां की आंखें ऊपर चढ़ गई। बूढ़ा बोला, ‘‘तू भी बूढ़ी हो गई। तू ही बता, तूने कभी ऐसा तूफान सुना है; उमर में ? …अढ़ाई सौ रुपए ! …कोई चीज ही नहीं होती ? … शमसल से मैंने जहुन्ना के लिए बात की थी। उसने लड़की के अस्सी मांगे थे, आखिर साठ पर तैयार है। उसकी लड़की भी एक आदमी है। और वह बदजात मांगता है अढ़ाई सौ। और फिर तू बूढ़ी हो गई; तू ही बत्ता, रंग जरा मैला हुआ तो क्या, और जरा साझ हुआ तो क्या ? औरत औरत सब एक। तुझे अपने काम से मतलब कि रंग से ? अभी छः महीने नहीं हुए, इसके लिए बंदूक खरीदी थी तो वह ऊंट बेचा था। अड़ाई सौ रुपए उमर भर में कमा तो पाएगा नहीं और शान यह है ! अच्छा तू ही बता, इतनी बूढ़ी हुई, अढ़ाई सौ रुपए कभी औरत के दाम सुने हैं ? …अढ़ाई सौ रुपए में तो फिरंगी की तोप खरीदी जाती है।’’
जब्बार ने सुना और आह को सीने में दबाकर करवट बदल ली।
… … … …
एकलौते बेटे का यूं दिन-रात बिसूरना मां-बाप से देखा न गया। बूढ़े ने कहा, ‘‘मेरा क्या है ? पका फल हूं ! कब टपक पड़ूं ? जो कुछ है इसी के लिए है। रोजी का सहारा ये दो ऊंट हैं, ये भी जाएंगे तो फिर ख़ुद ही फिरंगियों की सड़क पर रोड़ी कूटने की मजदूरी करेगा। लोग यही कहेंगे कि गफ्फार का बेटा मजदूरी करने लगा, सो इसकी किसमत ! मैं क्या सदा बैठा रहूंगा ?’’
आखिर दोनों ऊंट भी बन्नू के बाजार में बेच दिए गए और शब्बू जब्बार की बहू बनके घर आ गई।
शब्बू को इस बात का कम गर्व नहीं था कि उसकी कीमत गिन कर अढ़ाई सौ रुपए चुकाई गई है। पानी भरने जाती तो आधा ही घड़ा लेकर लौटती, वह भी लचकती, बल खाती। पड़ोस की मीरन ने समझाया, ‘‘ऐसा नखरा ठीक नहीं। मर्दों को काम प्यारा होता है। किसी रोज ऐसी मार पड़ेगी कि कमर सदा को लचक जाएगी।’’
अपनी कान तक फैली आंखें मटकाकर और हाथ का अंगूठा दिखाकर शब्बू ने कहा, ‘‘ओहो ! मेरे बाप ने बारह बीसे और दस रुपए गिन कर मुझे मार खाने को ही तो यहां भेजा है ? कोई मुझे हाथ तो लगाए ? तेरा क्या है ? तेरे मर्द ने तीन बीसे में तुझे लिया है। …लंगड़ी लूली हो जाएगी तो एक और सही।’’
गजब की शोख और शौकीन थी शब्बू ! वह काले मखमल की वास्कट पहरती, जिसकी सिलाइयों पर सीप के तीन सौ बटन टंके थे। अपने बालों में मक्खन लगाती और बाहर जाने से पहले पानी का हाथ लगाकर उन्हें सवार लेती। महीने में दो-दो बेर अपने बाल धोती।
जब्बार की मां यह सब देखती और नाक पर हाथ रख पड़ोसिन से कहती, ‘‘देखो तो, अढ़ाई सौ रुपए देकर ब्याह किया, पर मुझे क्या आराम मिला ? इसे तो अपने नखरों से ही छुट्टी नहीं।’’
… … … …
बूढ़े ने बेटे को समझाया, ‘‘जवानी की तेरी उमर है। कुछ कमाई अब नहीं करेगा तो कैसे निबाह होगा। यूं घर बैठा रहना क्या तुझे सोहाता है ! रोजी का एक जरिया मेरे ऊंट थे, सो तेरे ब्याह में खतम हो गए। अब भी तू कुछ नहीं करेगा तो क्या मैं परदेस जाकर मजदूरी करूंगा ?’’
मन मारकर जब्बार को कमाई करने बन्नू जाना पड़ा, लेकिन मन उसका गांव में ही रहता। पूरा सप्ताह जब्बार को बन्नू गए नहीं हुआ था कि वह शब्बू की याद से बेकल हो एकदिन आधी रात में उठ अपने गांव को चल दिया।
सोलह मील चलकर जब उसे ऊषा की अस्पष्ट लाल आभा में पहाड़ी पर अपने गांव की छतें दिखाई दीं, तो वह ठिठक गया। अपने गांव की क्रुद्ध मूर्ति और पड़ोसियों की लांछना के विचार ने उसके पैरों में बेड़ियां डाल दीं। वह एक चट्टान पर बैठ अपने घर के दरवाजे की ओर देखने लगा। उसने सोचा, पानी भरने शब्बू निकलेगी तब वह उसे एक आंख देख सकेगा। बावड़ी पर चलकर बैठू, शब्बू पानी भरने आएगी, तो उससे दो बातें करके लौट जाऊंगा।
शब्बू पानी लेने आई तो दो सहेलियों के साथ। जब्बार तीस कदम पर एक पत्थर की ओट में बैठ धड़कते हुए दिल से देखता रहा, पर एक शब्द बोल न सका। बोलता कैसे ? वह दोनों पड़ोसिने बदनाम कर देतीं। दिल पर पत्थर रखे जब्बार देखता रहा, शब्बू सहेलियों से चुहल करती, मटकती लौट गई। जब्बार आहें भरता बन्न लौट गया।
जब्बार के विरह की आग में ईर्ष्या का घी पड़ गया। उसने सोचा, देखो, मैं यहां परदेश में अकेला मर रहा हूं और वह मौज करती है। उसे मेरा जरा भी गम नहीं। औरत की जात में वफा नहीं होती।
आठ दस दिन बाद यह फिर रातों रात सफर कर शब्बू को एक पलक देख सकने और एक चुंबन पा सकने की आशा में गांव की बावली पर आकर बैठ गया। परंतु वह अकेली नहीं आई। पड़ोस की तीन सहेलियों के साथ अठखेलियां करती आई। जब्बार उनकी बात को कान लगाकर सुन रहा था।
मीरन ने शब्बू की ठोड़ी छूकर कहा, ‘‘हाय रे तेरा नखरा। गांव के छैले तुझ पर जान दे रहे हैं, कसम तेरे सिर की !’’
शब्बू के चेहरे पर गर्व से सुरूर छा गया। वे पानी लेकर लौट गईं। जब्बार की छाती पर मानो सौ मन का पत्थर आ गिरा, पर बेबस था।
अब उसके मन में संदेह का अंकुर और जमा। संदेह मनुष्य के हृदय में आकाश बेल की तरह बढ़ता है। उसके लिए जड़ या बुनियाद की भी जरूरत नहीं। वह कल्पना के आकाश में ही पुष्ट होता है। संदेह को निश्चय का रूप लेते भी देर नहीं लगती।
गांव में ऐसे कई लौंडे लुगाड़े थे, जिन्हें फितूर के अलावा कुछ काम न था। रहमान और अब्बास से हर एक बात की आशा रखी जा सकती थी। और फिर यदि कुछ दाल में काला नहीं है, तो मीरन ऐसी चर्चा क्यों कर रही थी ? और शब्बू की यह चटक-मटक किसके लिए है ? देखो, उसे मेरा जरा भी गम नहीं ! और मैं मरा जा रहा हूं ! जब्बार लहू के घूंट पी-पीकर रह जाता।
उसने सोचा, रुपया कमाने के लिए ही तो वह घर से दूर यहां पड़ा है। यूं आठ आने-दस आने रोज में रुपया नहीं कमाया जा सकता। घर लौटने की आग ने उसे बावला कर दिया। एकदिन मौका देख उसने एक हाथ मार ही दिया। किसमत अच्छी थी। वह पकड़ा भी नहीं गया और डेढ़ सौ रुपया कमाकर डेढ़ महीने में घर लौट आया। जब्बार के बाप को हौसला हो गया, बेटा भूखा नहीं मरेगा।
… … … …
जैसे नील का दाग कपड़े को नहीं छोड़ता, वैसे ही जिस मन में संदेह एकबार प्रवेश कर जाता है, उसे छोड़ता नहीं। जब्बार ने शब्बू से पूछा, ‘‘क्यों ? जब मैं बन्नू में था तो ख़ूब मजे उड़ते थे ?’’
शब्बू भी निरी मजदूरिन न थी। चमककर उसने पूछा, ‘‘कैसे मजे ? किससे मजे उड़ते थे।’’
जब्बार ने कहा, ‘‘क्यों गांव में क्या कम आदमी हैं ! रहमान है, अब्बास है। ख़ूब बनाव-सिंगार से पानी लेने जाना होता था, क्यों ?’’
शब्बू ने कहा, ‘‘मैंने कभी किसी सिर की तरफ आंख उठाकर देखा हो तो मैं मर जाऊं, नहीं तो मुझ पर झूठा इलजाम लगाने वाला मर जाए !’’
जब्बार ने तड़पकर पूछा, ‘‘तू बन ठनकर अपना हुस्न दिखाने नहीं जाती थी ?’’
शब्बू ने उत्तर दिया, ‘‘मैं क्यों जाऊंगी दिखाने किसी को ? …कोई मरा घूरा करे तो मेरा क्या कसूर ?’’
जब्बार ने चुटिया कर पूछा, ‘‘तो तू यूं बन ठनकर दिखाने को निकलती क्यों है ?’’
अपने सौंदर्य के अभिमान में सिर ऊंचा कर शब्बू ने कहा, ‘‘मैं क्या करती हूं ? … क्या मुंह काला कर लूं ? …मैं जैसी हूं वैसी हूं।’’
जब्बार बड़े यत्न से शब्बू की चौकसी करने लगा। वह शब्बू से सौ कदम दूर पर भी आदमी देख पाता तो उसे यही संदेह होता कि वह उससे आंख लड़ा रहा है। कुछ दिन में उसका खाना-पीना हराम हो गया। किसी मुसाफिर को गांव से गुजरते देखकर भी उसे यह शंका होती कि संभव है शब्बू के रूप की ख्याति सुनकर ही यह आदमी बहाने से इधर आया है। सारा गांव उसे शब्बू के पीछे पागल दिखाई पड़ने लगा।
एक रात जब्बार ने शब्बू से पूछा, ‘‘आज तू बाहर से लौट रही थी तब राह में मुस्कुरा क्यों रही थी ?’’
उत्तर में शब्बू ने पूछा, ‘‘मैं कहां मुस्कुरा रही थी ?’’
जब्बार ने कहा, ‘‘और वे सब आदमी खड़े हुए क्यों देख रहे थे ?’’
अपने रूप की महिमा के संकेत से पुलकित होकर शब्बू ने उपेक्षा से उत्तर दिया, ‘‘मैं कया जानूं ?’’
होंठ काटकर जब्बार ने कहा, ‘‘बहुत घमंड होगा हुसन का ! …नाक काट लूंगा ?’’
शब्बू का मन गुदगुदा उठा। उसने कह दिया, ‘‘बारह बीसे और दस रुपए की नाक है ! और मन-मन मुस्कुराने लगी।’’
शब्बू सो गई। परंतु जब्बार की आंखों में नींद कहां। उसने पुकारा, ‘‘सुन तो !’’ उत्तर नदारद।
जब्बार ने सोचा, देखो तो घमंड इसका ! …मैं बेचैन पड़ा हूं और यह मजे में सो रही है। यह सब घमंड हुस्न का है। इसी हुस्न के पीछे गांव के बदमाश पागल हैं। मेरी क्या आबरू है ? अगर यह हुस्न न होता तो क्या मेरी आबरू यूं मिट्टी में मिलती ? …ऐसे हुस्न से क्या फायदा ?
गंभीर होकर इस समस्या पर विचार कर उसने सोचा, आबरू नहीं तो कुछ नहीं। और यह हुस्न तो सब लोग देखते हैं। मेरा इस पर क्या कब्जा ? जबतक यह हुस्न रहेगा, तबतक मुझे आबरू और चैन कहां मिल सकता है ?
रात के सन्नाटे में जो विचार उठते हैं, वे बहुत उग्र होते हैं। दिन की तरह उस समय विचारों को बाधित करने वाली सैंकड़ों उलझनें नहीं रहती। इसलिए भक्त समाधि रात में लगाते हैं, कातिल कत्ल रात में करते हैं और चोर चोरी रात में करते हैं और विरही भी रात में ही पागल हो उठते हैं।
जब्बार अंधेरे में आंख खोले शब्बू के रूप के कारण होने वाले सब अनर्थ पर विचार कर रहा था। वह अनर्थ उसे अपरिमेय जान पड़ा। उसे सहन करना बिलकुल संभव न था।
उसने सिरहाने से पैना छुरा उठाया और अंधेरे में टटोलकर शब्बू की नाक पकड़ ली। एक ही झटके में नाक काटकर उसने फेंक दी।
शब्बू चीख उठी। जब्बार की मां उठकर दौड़ी। रौशनी जलाई गई। पड़ोस के लोग दौड़ आए। जब्बार का बाप ग़ुस्से में गालियां दे रहा था और दूसरे लोग इलाज बता रहे थे। एक बुढ़िया ने चिल्लाकर कहा, ‘‘अरे जल्दी से कोई भेड़ बकरी का ताजा, गर्म-गर्म, जिंदा गोश्त का टुकड़ा काटकर नाक पर रखो, नहीं तो लड़की मर जाएगी !’’
जब्बार की मां ने घबराकर कहा, ‘‘इस वक्त भेड़-बकरी कहां ?’’ बुढ़िया ने उत्तर दिया, ‘‘तो तुम जानो।’’
जब्बार खड़ा सुन रहा था। शब्बू की नाक उसने इसलिए काटी थी कि वह केवल उसी की होकर रहे। दूसरों की आंख उस पर पड़ना भी उसे सुहाता न था। वह शब्बू को केवल अपने ही लिए रखना चाहता था। दूसरे की आंख उस पर पड़ने से उसके दिल पर घाव लगता था। उसके मर जाने की संभावना सुन उसका दिल दहल गया।
जिंदा गरम गोश्त नहीं मिलेगा तो क्या…! उसने वही पैना छुरा उठाया और अपनी जांघ से जिंदा गरम गोश्त का टुकड़ा काटकर शब्बू की नाक पर धर दिया। जब्बार के मां और बाप बिलकुल पागल हो बैठे और दूसरे लोग हैरान रह गए।
… … … …
शब्बू चेहरे पर घाव के दर्द के मारे खाट पर पड़ी कराहती रहती और जब्बार जांघ में पट्टी बांधे खाट की पटिया पर बैठा शब्बू के चेहरे पर से मक्खियां हांका करता। जख्म के कारण शब्बू का तमाम चेहरा सूझ गया। पानी का घूंट तक निगलना उसके लिए दूभर हो गया, तिस पर बुखार ! यह हालत देखी तो जब्बार ने उसका इलाज बन्नू के फिरंगी डॉक्टर वाले अस्पताल में कराने का निश्चय किया। स्वयं बड़ी कठिनाई से वह चल पाता था, परंतु एक रात जब सब लोग सो रहे थे, उसने शब्बू को कंधे पर उठा लिया और बगल में लाठी ले वह बन्नू को लिए चल पड़ा।
वह कुछ दूर चलता और सुस्ता लेता। कपड़ा भिगोकर पानी की बूंदें शब्बू के मुंह में टपकाता जाता। पांचवें दिन वे लोग बन्नू के अस्पताल में पहुंच गए। बीस रोज में शब्बू का जख्म भर पाया और उसकी तबीअत ठिकाने पाई।
… … … …
नाक न रहने पर हवा होठों की अपेक्षा नाक के छेद से अधिक निकल जाती है और स्वर बिलकुल नक्की हो जाता है। उसी स्वर में मिनमिना कर शब्बू ने कहा, ‘‘मेम साहब कहती हैं विलायत से रबड़ की नाक मंगवाई जा सकती है।’’
जब्बार ने घबराकर उत्तर दिया, ‘‘बस रहने दे। हमें नाक नहीं चाहिए। मुझे तू बिना नाक के ही भली मालूम होती है। मुझे क्या नाक औरों को दिखानी है ?’’
शब्बू उदास हो गई। उसने खाना खाने से इनकार कर दिया। जब्बार के लिए बड़ी भयंकर समस्या आ पड़ी। उसने सोचा, बुरा हो इस मेम का। मैंने एक नाक काटी थी, वह दूसरी बनाने को तैयार है।
जब दो दिन शब्बू ने खाना नहीं खाया, तो जब्बार ने रबड़ की नाक की कीमत चालीस रुपए डॉक्टर के यहां जमा करा दी। पर शर्त एक रही कि शब्बू नाक लगाएगी जरूर, लेकिन गैर मर्द अगर उसे घूरने लगे तो झट नाक उतारकर जेब में डाल ले।

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