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एक टोकरी भर मिट्टी

माधवराव सप्रे

परिचय : जन्म 1871 में दमोह जिले के पथरिया ग्राम में हुआ था। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई, मैट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से। 1899 में कलकत्ता विष्वविद्यालय से बीए करने के बाद उन्हें तहसीलदार की नौकरी मिली, लेकिन देशभक्ति के आगे नौकरी की परवाह न की। 1900 में इन्होंने बिलासपुर के एक छोटे से गांव पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नामक मासिक पत्रिका निकाली। यह पत्रिका सिर्फ तीन साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को हिन्दी केसरी के रूप में छापना प्रारंभ किया। साथ ही नागपुर से हिन्दी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई। 1920 में उन्होंने जबलपुर में हिन्दी मंदिर की स्थापना की। 1924 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे। 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना और रायपुर में ही जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनों विद्यालय आज भी चल रहे हैं। 1926 में स्वर्गवास।

किसी श्रीमान जमीनदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपड़ी थी। जमीनदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी। उसका प्रिय पति और एकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्व स्थिति की याद आ जाती, तो मारे दुःख के फूट-फूट कर रोने लगती थी, और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तबसे तो वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोपड़ी में उसका ऐसा कुछ मन लग गया था कि बिना मरे वहां से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमीनदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से उस झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही। पांड़ा-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एकदिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहां से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ा कर बोली, ‘‘महाराज ! अब तो झोपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूं। महाराज, छिमा करें तो एक विनती है।’’

जमीनदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ‘‘जबसे यह झोपड़ी छूटी है, तबसे पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया, पर एक नहीं मानती। कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊंगी। अब मैंने सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिये तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।’’ श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोपड़ी के भीतर गई। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दुःख को किसी तरह सम्हाल कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, ‘‘महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगायें जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूं।’’
जमीनदार साहब पहिले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बारबार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे, त्योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान में टोकरी रखी थी, वहां से वह एक हाथ भर भी ऊंची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे, ‘‘नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।’’
यह सुनकर विधवा ने कहा, ‘‘महाराज, नाराज न हों। आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी उठाई नहीं जाती और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जनम भर क्यों कर उठा सकेंगे ! आप ही इस बात का विचार कीजिये।’’
जमीनदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उपरोक्त वचन सुनते ही उनकी आंखें खुल गईं। कृतकर्म का पश्चात्ताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोपड़ी वापस दे दी।

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