First : व्यंग्य आलेख प्रतियोगिता 2020
जिंदगी का लॉकडाउन
एक समय था कि जब भी कभी शहर में कफ्र्यू लगता था, तो शहर की वीरानी देखने की इच्छा कुलाँचे मारने लगती थी। मगर वो भावना अल्पकालिक होती थी। हम नगर-भ्रमण की योजना बनाते ही रह जाते थे कि कफ्र्यू समाप्त हो जाता था। हमारी इच्छा अंदर-ही-अंदर दम तोड़ देती थी। मगर इस लॉकडाउन ने हम नामुरादों की बरसों पुरानी मुराद ही पूरी कर दी है। कोरोना कालखंड में पहली बार हमें कफ्र्यू के इस विराट स्वरूप के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। सड़कों पर पसरा सन्नाटा देखकर शहर को नजदीक से देखने की इच्छा जोर तो मार रही है, मगर चैक-चैराहों पर चैकस और मुस्तैद पुलिस को देखकर और उनके सैनिटाइज किए हुए डंडों की महिमा सुनकर पाँव ठिठक जाते हैं। बाप-दादाओं से सुना था कि युद्ध के समय ब्लैक आउट हुआ करते थे। मगर लॉकडाउन से हम बिल्कुल अनभिज्ञ थे।
बस तकलीफ इसी बात की है कि इस लॉकडाउन में जिंदगी रेल का डिब्बा बनकर रह गयी है। बर्थ से उठना, बाथरूम जाना … मुँह धोना, फिर बर्थ पर आकर बैठ जाना। चाय पीना … भोजन करना और सो जाना। सोते-सोते थक जाना, तो बैठ जाना, और बैठे-बैठे अगर थक गये, तो सो जाना। इन दोनों से भी अगर ऊबे, तो कमरों के सीमित दायरे में टहल लेना। श्रीमती जी घर रूपी इस पैंट्री कार की मैनेजर बन गयी हैं और बच्चे वेंडर्स। खाने-पीने के विविध प्रकार के आइटम्स आते रहते हैं और लॉकडाउन की यात्रा जारी रहती है। जिंदगी के दरवाजे और खिड़कियाँँ इस कदर बंद हो गयी हैं कि काश्मीर की नजरबंदी भी फेल हो गयी है। बस, अंतर यही है कि हम जहाँ भी, जिस भी हालत में हैं, मोबाइल-इंटरनेट चला पा रहे हैं, और यही हम कोरोनाकालीन निकम्मों के जीने का वास्तविक सहारा भी है। क्योंकि पान-बीड़ी-सिगरेट-खैनी के बहाने बाहर निकलकर हवाबाजी, मटरगश्ती और गप्पबाजी करने की संभावनाएँँ तो ऑलरेडी बंद ही हो चुकी हैं।
एक लालसा यह भी थी कि कभी लंबी छुट्टियाँ मिलतीं, तो जीवन के कई सारे सँजोए हुए अरमान पूरे कर लेते, देश के विभिन्न पर्यटक स्थलों का भ्रमण कर आते। वरना जिंदगी तो टट्टू की तरह काम कर-करके कट ही रही है। सोचा था कि फुरसत से मनचाहा काम करेंगे। किसी की गुलामी नहीं सहेंगे। मौज ही मौज होगी। पर यहाँ तो सारा दाँव ही उल्टा पड़ गया। तोंदियाए पुरुषों का मॉर्निंग वॉक के बहाने सुंदरी-दर्शन के लिए पार्क में जाना बंद हो जाने से वे भयंकर टेंशन में आ गये हैं। टेंशन तो ये भी है कि अब उनका वजन कैसे कम होगा ? मोहल्ले की भाभियों से आते-जाते होने वाली मुलाकातों का वो सिलसिला भी टूट गया है। ‘स्टे होम’ के चलते ‘वर्क फ्रॉम होम’ की सुविधा क्या मिली, कमबख्त यह धीरे-धीरे ‘वर्क फॉर होम’ में बदल गया है। अब घर में ही रोस्टर ड्यूटी निभानी पड़ रही है कि कब झाड़ू-पोंछा लगाना है, कब खाना बनाना है, कब बर्तन धोने हैं और कब कपड़े साफ करने हैं। रात को सोने से पहले मेन गेट और दरवाजे बंद करने की जिम्मेदारी तो पहले से चली ही आ रही थी, अब तो श्रीमती जी का कोई भी आदेश मानने से इंकार भी नहीं कर सकते, क्योंकि यह सुनते देर नहीं लगने वाली है कि ‘आखिर कर ही क्या रहे हो ? बेकार ही तो बैठे हो।’ मगर कुछ भी हो भाई, कामकाजी होकर निकम्मा कहलाने का आनंद ही कुछ और है।
हो सकता है कि यह लॉकडाउन लोगों की जीवन शैली और लोक-व्यवहार के तौर-तरीकों में भी आमूलचूल बदलाव कर जाये। लोग अब हाथ मिलाना और जादू की झप्पी देना छोड़कर ‘हाय ! हेलो !’ से ही काम चलाने लगेंगे। यार-दोस्त, रिश्तेदार अब एक दूसरे से मिलेंगे जरूर, पर दूरी मेंटेन करते हुए। ऑफिसों, बाजारों, सार्वजनिक स्थलों पर पान-खैनी खाकर थूकने की प्राचीन और शालीन परंपरा तो शायद विलुप्त ही हो जाएगी। बाजारों से भीड़, मेलों की रेलमपेल और बस ट्रेनों की धक्का-मुक्की भी बंद हो जाएगी। महानगरीय अपार्टमेंटवासियों की तरह हम भी पड़ोसियों से अजनबी हो जाएँगे। एक ही मोहल्ले में रहने वाले शर्मा जी, वर्मा जी से और दूबे जी, सिंह साहब से नहीं मिल पाएँगे। बस, अपनी-अपनी बालकनी से ही हाथ हिलाकर काम चलाएँगे। पड़ोसियों के चाय-पकौड़े मिस हो जाएँगे। विदा होने से पहले बेटियाँ माँ-पिता-भाई-बहनों, सगे-संबंधियों से लिपटकर अब रो नहीं पाएँँगी ! डर है कि सोशल डिस्टेंस मेंटेन करने के इस कोरोनाई चक्कर में कहीं इंसान-इंसान के बीच ही न डिस्टेंस बढ़ जाये !
मगर कहते हैं कि जो भी होता है, अच्छे के लिए ही होता है। अच्छा हुआ जो कोरोना का आक्रमण हुआ। वरना हम कहाँ सुधरने वाले थे ? चंद किताबें क्या पढ़ लीं, कुछ अनुसंधान क्या कर लिए, अंतरिक्ष में क्या पहुँच गये, हम खुद को परम शक्तिशाली समझकर इतराने लगे और सकल ब्रह्मांड पर राज करने का दिवास्वप्न देखने लगे ? भला हो इस कोरोना का कि उसने अहं के घोड़े पर सवार मगरूर इंसान को उसकी असली औकात बता दी। बता दिया कि बब्बर शेर बनकर दहाड़ने वालों को तो एक पिद्दी-सा पिल्लू भी घरों में बंद कर रख सकता है। इसे अस्त्र-शस्त्र से डराने की जरूरत थोड़े है ?
इन सबके बावजूद यह लॉकडाउन अनंत संभावनाओं भरा है। यह आशाओं-आकांक्षाओं को पूरा करने, अपने सपनों को सँवारने का, रिश्तों की कड़वाहट को दूर करने का, हँसने-मुस्कुराने-गुनगुनाने का, खुशियाँ बाँटने का और हर फिक्र को धुएँ में उड़ाने का, आत्मविवेचन करने का बेहतरीन अवसर देता है। यह कोरोना के कहर से मानवता को बचाने का, मन से कोरोना का भय भगाने का, नकारात्मक भावों को मन से मिटाकर सकारात्मक विचारों की सत्ता स्थापित करने का लॉकडाउन है। झरनों के कल-कल छल-छल संगीत सुनने का लॉकडाउन है। कोयल की मीठी कूक सुनने का लॉकडाउन है। परिंदों की उड़ान को मापने का लॉकडाउन है। मंद समीर के झोंकों से मन-प्राण हर्षाने का लॉकडाउन है। पत्तियों की सरसराहट में घुली स्वर-लहरियों में डूब जाने का लॉकडाउन है। सन्नाटे में गूँजते जीवन-संगीत को अंतर्मन में उतारने का लॉकडाउन है।
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