गर्व से कहो हम ‘कुत्ता’ हैं
राजीव मणि
एक जंगल था। काफी बड़ा। यहां हर तरह के फलदार और जंगली वृक्ष थे। झाडि़यां, लताएं और कैक्टस के पौधे इस जंगल का शृंगार करते थे। बीच से एक नदी बहती थी। और इस नदी से लगे ही पहाडि़यां थीं। पशु-पक्षियों के लिए तो जैसे स्वर्ग ही था। खाने की यहां कोई कमी न थी। आपसी प्रेम व भाईचारा ऐसा कि कहीं और देखने को न मिले। इस जंगल से बाहर चारो ओर नगर बसे थे। लेकिन, नगर और जंगल के बीच एक ऐसी सीमा-रेखा थी, जिससे टपकर कोई इधर से उधर आता-जाता न था।
एक दिन आसपास के नगरों से भागकर कुछ कुत्ते जंगल में प्रवेश कर गये। काफी घबराये हुए। चेहरे पर उदासी साफ दिखती थी। जंगल पहुंचते ही पहले तो इन सभी ने आसपास के क्षेत्र का मुआयना किया और फिर जो कुछ मिला, खाते गये। पेट भर जाने पर इधर-उधर घुमना शुरू किया। और फिर एक घने वृक्ष के पास आकर सभी एक दूसरे को देखने लगे, जैसे वे एक-दूसरे के स्वभाव को पढ़ना चाहते हों।
एक बोला – जगह तो काफी अच्छी है भाइयों। यहां किसी चीज की कमी नहीं है। नगर में यह सुख कहां !
दूसरा – मित्र ! ठीक कहते हो। नगर तो जैसे हम कुत्तों के लिए रह ही नहीं गया है। हमारी वफादारी पर भी अब आदमजातों ने शक करना शुरू कर दिया है। रात-दिन की पहरेदारी का पुरस्कार हमें मिलता ही क्या है ? सूखी रोटियां। मालिकों के जूठन। हम मालिक के तलवे चाटते हैं और वे हमें लात-जूते दिखाते हैं।
तभी एक कुतिया बोल पड़ी – भाइयों, मेरी स्थिति तो वहां और खराब थी। मेरे पैर देखो, जानते हो कैसे टूटे ? मालिक की एक बेटी थी। वह एक लड़के से प्यार करती थी। हालांकि वह लड़का उससे कतई प्यार न करता था। उसकी आंखें ही बता देती थी कि वह गलत इरादे से वहां आता था। वह उस लड़की की इज्जत से खेलता था, बस। मैं इसका विरोध करती थी। खूब शोर मचाती थी। एक बार तो उसके पैर को मैंने अपने दांतों से पकड़ लिया। फिर क्या था, दोनों मुझपर लाठी लेकर टूट पड़े। किसी तरह जान बचाकर भागी।
तभी एक दूसरा कुत्ता बोला – बहन, रहने दो। मैं इन लोगों की शराफत को अच्छी तरह जानता हूं। यूं ही भागकर यहां नहीं आया। मैं भी एक बंगले का रखवाला था। उस बड़े बंगले में सिर्फ वह गोरी मैडम रहती थी। रहने, खाने, सैर-सपाटे, किसी भी चीज की मुझे कमी न थी। कार में अपनी गोद में बिठाये लिये घुमती थी। लेकिन क्या कहूं, कहते भी मुझे शर्म आती है। पर उस गोरी मैडम को शर्म कहां थी ! मुझे अपने बिस्तर पर लेकर सोती थी। और मुझे कुकर्म करने को …….!
सभी कुत्ते बीच में ही बोल पड़े – रहने दो, रहने दो। हम फिर भी कुत्ते हैं, ऐसी नीच हरकत सुन नहीं सकते।
पहला – भाइयों और बहनों, अब हम यहीं रहेंगे। भूलकर भी नगर की ओर न देखेंगे। आज से यही हमारा घर है। समझ लो हमारा नया नगर, प्रेमनगर। यहां किसी तरह का भेदभाव नहीं। कोई धर्म-जाति की दीवार नहीं। अमीर-गरीब नहीं। कोई राजा-रंक नहीं। हमारा धर्म, जाति, पहचान जो कुछ भी होगा, वह सिर्फ कुत्ता ही होगा। हम कुत्ता हैं और कुत्ता ही रहेंगे। ……….. तो गर्व से कहो कि हम कुत्ता हैं। सभी बोलो – कुत्ता जिन्दाबाद ! कुत्ता जिन्दाबाद !! ………. दोस्तों, अब हमें आराम करना चाहिए। कल इसी वृक्ष के नीचे हम सभा करेंगे और आगे क्या करना है, तय करेंगे।
कहते हैं न कि बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। सो बात निकली और पूरे जंगल में फैल गयी। अगले दिन शाम को फिर उसी वृक्ष के नीचे सभा लगी। दूसरे जानवर व पक्षी भी जमा हुए। यहां किसी के आने पर प्रतिबंध न था। जिसे जहां जगह मिलती, बैठता गया। वातावरण शांत, मगर हवा में गरमी थी। नदी का बहना साफ सुनाई देता था। बंदर, भालू ने खाने की ढेर सारी चीजें जमा कर रखी थी। सभा शुरू हुई।
एक कुत्ता – मित्रों, आप सब को भी पता चल गया होगा कि हम यहां भागकर क्यों आए हैं। दरअसल नगर हमारे रहने लायक न रह गया था। हम जानवर हैं और जंगल में ही आप सब के बीच सहज महसूस करते हैं। नगर की आवोहवा काफी बदल चुकी है। जाति, धर्म, ऊंच, नीच, अमीर, गरीब और न जाने क्या-क्या वहां मनुष्यों ने बना रखे हैं। यह हमारे स्वभाव व संस्कार में नहीं। इसके अलावा बहुत सारी ऐसी बातें भी वहां होने लगी हैं, जो आपसबों ने सुना न होगा। नगर में चुनाव होते हैं। जनता जिन्हें अपने हित व मान-सम्मान की रक्षा के लिए चुनती है, वह ही उन गरीबों की जान लेने में लगा है। अपराधी वहां चुनाव जीत रहे हैं। अनपढ़ों की लाॅटरी लग गयी है। वहां ऐसों का ही शासन है ! सभ्य और पढ़े-लिखे उनके गुलाम। आईएएस, आईपीएस जैसे वहां पद हैं। काफी पढ़ने और कठोर परीक्षा के बाद यह किसी-किसी को नसीब होता है। उनकी यह गति है कि अपराधी और अनपढ़ नेताओं के पीछे सेवा-सत्कार में लगे हैं। आवाम तो बस भगवान भरोसे है। कहीं कोई सुरक्षित नहीं। आए दिन बलात्कार होते हैं। चोरी, डकैती, राहजनी, हत्या आम बात है। दफ्तरों में रिश्वत का बाजार गरम है। फाइलें जंगली बेलों की तरह बढ़ती चली जाती हैं। बाबू लोग मोटे होते जाते हैं। गरीब सूखता जाता है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। क्या यह विकास है ? क्या इसे सभ्य समाज कहा जा सकता है ? सभ्यता का क्या मतलब कि बहू-बेटियां अधनंगी रहने लगें। और उसपर कोई सवाल खड़ा करे तो नारियों की आजादी पर हमला कहा जाये। भाइयों, नंगे को नंगा न कहोगे तो क्या कहोगे ? अंधे को अंधा न कहोगे तो क्या कहोगे ? सच को स्वीकारने में भी लज्जा आती हो, वह कैसी शिक्षा, कैसी सभ्यता ? मित्रों, इनसे अच्छे तो हम हैं। आज हम प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं। सुना हूं, नगरों से काफी दूर जंगलों में आदिवासी रहते हैं। ये नगर से कटे हुए हैं। प्रकृति की गोद में। हमारी तरह कपड़े नहीं पहनते। लेकिन, क्या मजाल कि इनकी बहू-बेटियों की तरफ कोई गंदी नजर से देखे। बलात्कार जैसे कुकृत्य तो ये जानते भी नहीं। अब आप ही तय करें कि हमने नगरों से भागकर क्या गुनाह किया। क्या आप चाहेंगे कि आपका कोई भाई उस नरक में रहे। नहीं। तो आइए, हमसब मिलकर यहीं रहेंगे। यहीं हमारा घर, हमारा नगर होगा – हमारा प्रेमनगर। क्या कहते हो भाइयो !
दूसरे कुत्ता ने समर्थन किया – ठीक कहते हो भाई। बिल्कुल ठीक। जो शिक्षा समाज को चैपट करे, वहां रहने लायक नहीं। जहां सबके सब उलटी दिशा में बह रहे हों, पूरा वातावरण दूषित हो चुका हो, वहां रहने लायक नहीं। अब देखो न, नगरों में तो सांस लेना भी मुश्किल हो गया है। पर्यावरण का नाश कर रखा है लोगों ने। विकास के नाम पर पेड़ काटे जा रहे हैं। तालाब, पोखर, जलाशय, नदियां, सभी सूख गये। कहीं पानी दिखता भी है, तो पीने लायक नहीं। जमीन में पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। लोग प्यासे मर रहे हैं। खेती-बारी चैपट है। जमीन का पानी बचाना छोड़कर लोग चांद और तारों पर पानी खोज रहे हैं। क्या उसे भी चैपट कर देने की कसम खा रखी है ? दोस्तों, मैं तो कहता हूं कि जहां आदमजात पहुंच जाये, वहां का नाश होना तय है। इतने पर भी लोग अपना गुनाह मानने को तैयार नहीं। सभी एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। कई जंगलों का सफाया कर दिया। हमारे भाई-बंधु मारे गये। लेकिन, हमने कभी कुछ नहीं कहा। भाइयों, अब समय आ गया है अपने जंगल को बचाने का। इस जंगल में हम आदमजात को घुसने न देंगे। क्या हम जानवरों ने कभी प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया ? कभी पेड़ काटे ? हम तो उतना ही फल, पत्तियां तोड़ते हैं, जितनी हमारी आवश्यकता है। हमारा अस्तित्व संकट में है। अगर अब भी इसी तरह सहते आये, तो हम पशु धरती पर न रह ………..
तभी एक कुत्ता चिल्लाया – प्रेमनगर की जय ! कुत्ता जिन्दाबाद ! पशु जिन्दाबाद !!
शांत मित्र, हमारे समाज की एक अच्छी बात है कि यहां कोई नेता नहीं। अफसर, चपरासी, डाॅक्टर, अभियंता, वैज्ञानिक नहीं, वैसे शिक्षक भी नहीं जो संस्कार न सिखा सके। साधु, संत, औघड़, फकीर भी नहीं। जितना इन सभी ने धरती का नाश किया, उतना गांव के गरीबों ने न किया होगा। जंगलों में रहने वाले आदिवासी ने भी नहीं। अलग-अलग कारणों से अब ऐसे शहरी जेल भेजे जाते हैं। कोई गबन का आरोपी ठहराया जाता है, कोई बलात्कार का। किसी के ठिकाने से लाशें निकलती हैं, किसी के ठिकाने से असलहें। कोई नशीली चीजें बेचता पकड़ा जाता है। भाइयों, मैं तो कहता हूं कि अपने अन्य भाई-बंधुओं को भी आदमजात से छुड़ाना चाहिए। वे वहां भूखों मर रहे हैं। उनके बच्चों का संस्कार खराब हुआ जाता है। उनका चारा कोई और खाकर मजे से घुम रहा है। कोई काले हिरण को मारकर ऐश करता है। कोई बाघ, शेर का शिकार कर खुद को महान समझता है। हम कबतक चुप बैठे रहेंगे ?
यह संकट का समय था। जानवर तो जानवर, लाचार, गरीब, मजदूर भी संकट में एकजुट को जाते हैं। हां, सभ्य समाज इस स्थिति में बंटा दिखाई देता है। यह गरीब, बेबस, अनाथ, मजदूरों का सबसे बड़ा हथियार है। आत्मबल से तो कई जंग जीत लिये गये। कभी-कभी जो मजा अभाव में दिखता है, संपन्नता में नहीं। सभी पशु-पक्षी इस सूत्र को अच्छी तरह जानते हैं। या कह लेें, विरासत में उन्हें यह मिलता रहा है। और देखते ही देखते सभा की चुप्पी टूटी। एक शेर निकलकर बीच में आ बैठा, बोला – दोस्तों, अब कहीं और जाने की जरूरत नहीं। आप सब हमारे परिवार के सदस्य हैं। यहीं हमारे साथ रहें।
सभी कुत्ते एकसाथ बोल पड़े – जंगल जिन्दाबाद ! प्रेमनगर की जय ! कुत्ते अमर रहें !! जानवर अमर रहें !!
कुत्तों को चिल्लाता देख अन्य सभी पशु-पक्षी सुर में सुर मिलाने लगें – प्रेमनगर की जय ! जंगल जिन्दाबाद !! जंगल जिन्दाबाद !!!