एक सच ये भी
‘‘ममता अपने गाँव चलने की तैयारी कर लो, कब तक यहाँ बिना रोजी-रोटी के रहेंगे।’’ हरि ने अपनी पत्नी से कहा।
‘‘गाँव कैसे जायेंगे ? रेलगाड़ी, बस, जाने के सब साधन तो बंद हैं।’’ ममता रुआँसी-सी बोली। ‘‘…और फिर ये भी तो देखो कि हम अपने दुधमुँहे बच्चे को लेकर कैसे जा पाएंगे ? इतनी दूर।’’
‘‘हमको कुछ नहीं पता, कब तक भूखे-प्यासे यहाँ पड़े रहेंगे। काम-धंधा कुछ नहीं, गाँव जाकर अपनों के बीच साथ तो रहेंगे। वरना यहीं कुछ हो गया हमें या तुम्हें तो किसी को हमारी शकल भी देखने को नहीं मिलेगी।’’
ममता ने थोड़ा बहुत खाने-पीने का और रास्ते के लिए जरूरत का सामान बाँधा और अपने पति के साथ चल पड़ी अपने दो महीने के बच्चे को गोद में लेकर।
गाँव बहुत दूर … जाने का कोई साधन नहीं … साथ लाये खाने-पीने का सामान की खत्म होने के कगार पर। ममता की चिंता बढ़ती जा रही थी कि कैसे इतना लंबा सफर तय होगा।
पैदल चलते-चलते पैरों में छाले पड़ गए, खाना खत्म हो गया, भूख से बच्चे का भी बुरा हाल था। ममता की हिम्मत जवाब दे रही थी। भूख से चलने तक की हिम्मत भी नहीं थी। रास्ते में किसी से भी मदद नहीं मिल रही थी। बच्चा भूख से बिलख रहा था, पानी से भी उसकी भूख शांत नहीं हो रही थी।
‘‘हे भगवान ! ये कैसी परीक्षा ले रहे हो ? हम गरीबों की।’’ ममता मन ही मन भगवान से गुहार लगा रही थी।
ममता और हरि ही नहीं, बहुत से परिवार इस आर्थिक तंगी से अपने घरों की ओर पलायन कर रहे थे। भीषण गर्मी, सूरज के तपते तेवर सभी के हौसलों को भरकस तोड़ने की कोशिश कर रहे थे।
लम्बा रास्ता … शासन से कोई मदद मिलने की आस और लोगों से सहायता की उम्मीद में सभी अपना सफर तय करते जा रहे थे। ममता कभी रास्ते में किसी पेड़ के नीचे सुस्ता लेती, तो कभी अपने बच्चे को दुःखी मन से निहार लेती, जो भूख से बेहाल था। हरि और ममता को अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था।
चिलचिलाती धूप, अंगारे बरसाती सड़क, उन दोनों के पैरों में घाव का काम कर रही थी।
कुछ लोग रास्ते में मददगार भी मिले। यथासंभव उन लोगों ने बेबस लोगों की सहायता भी की। किसी ने गाड़ी से थोड़ी दूर पहुँचा दिया, किसी ने थोड़ा बहुत जरूरत का सामान दिया। इन सब के बावजूद अपने गंतव्य तक पहुँचना आसान नहीं था उन जैसे मजदूरों के लिए। कोई सड़क के सहारे जा रहा था, कोई पटरी-पटरी जा रहा था। थकान होने पर पटरी ही कुछ लोगों की आरामगाह बन जाती। कुछ पटरी पर सोने के कारण मृत्यु का ग्रास भी बन गए। ऐसे लोगों के परिवारों को उनके अंतिम दर्शन और शवदाह करना भी नसीब नहीं हुआ।
इन सब परेशानियों का सामना करते हुए हरि और ममता अपने बच्चे के साथ चले जा रहे थे अपनी मंजिल की ओर।
‘‘सुनो ! अब मुझसे और नहीं चला जा रहा है।’’ ममता ने हरि को अपनी पीड़ा बताई।
‘‘थोड़ी हिम्मत कर ले ममता, शाम होने को है, जगह मिलने पर रात कहीं रुक जाएंगे।’’ हरि ममता को हिम्मत बंधा रहा था।
‘‘नहीं… मुझसे अब नहीं चला जा रहा, कितने दिनों से खाना तक नसीब नहीं हुआ, पानी पीकर कब तक चल पाएँगे ?’’
‘‘बस, थोड़ी हिम्मत और दिखा ले, शायद आगे कोई मदद मिल जाए।’’
ममता अपने पति के पीछे-पीछे शरीर में थोड़ी-बहुत बची-खुची शक्ति के साथ चल पड़ी।
कई दिनों से भूखे होने के कारण ममता ने बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया। ममता का शव सड़क किनारे पड़ा था। हरि सदमे से सन्न था और वो नन्हा बच्चा अपनी माँ के शव से दुग्धपान कर रहा था।
उस अबोध को क्या पता कि उसकी माँ का दूध अब उससे हमेशा के लिए छिन गया है।
पता : जी/91, बिरला ग्राम, नागदा, उज्जैन (मध्य प्रदेश)