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जबलपुर के महानायक श्री हरिशंकर परसाई

डॉ. गीता पुष्प शॉ

डॉ. गीता पुष्प शॉ की रचनाओं का आकाशवाणी पटना, इलाहाबाद तथा बी.बी.सी. से प्रसारण हो चुका है। ‘हवा महल’ से अनेकों नाटिकाएं प्रसारित। गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, जबलपुर में अध्यापन। सुप्रसिद्ध लेखक राबिन शॉ पुष्प से विवाह के पश्चात् पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में अध्यापन। मैट्रिक से स्नातकोत्तर स्तर तक की पाठ्य पुस्तकों का लेखन। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। तीन बाल-उपन्यास एवं छह हास्य-व्यंग्य संकलन प्रकाशित। राबिन शॉ पुष्प रचनावली (छः खंड) का सम्पादन। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित एवं पुरस्कृत। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से शताब्दी सम्मान एवं साहित्य के लिए काशीनाथ पाण्डेय शिखर सम्मान प्राप्त।

संस्मरण
डॉ. गीता पुष्प शॉ

मैं गीता पुष्प शॉ, परसाई जी, मेरा बेटा सुमित, बहन मंजू, उसके बच्चे और सीता मौसी (परसाईजी की बहन)। फोटो ली है मेरे बड़े बेटे संजय ने

व्यंग्य लेखन के बेताज बादशाह श्री हरिशंकर परसाई जबलपुर में हमारे पड़ोसी थे। बचपन से मैं उन्हें परसाई मामा कहती आई हूं। मैंने उनके बूढ़े पिताजी को भी देखा है, जिन्हें सब परसाई दद्दा कहते थे। वह दिन भर घर के बाहर डली खटिया पर लेटे या बैठे तंबाकू खाया करते थे। मैं बचपन में उनके तंबाकू खाने की नकल किया करती थी। सबका मनोरंजन होता और सब बार-बार मुझसे उनके तंबाकू खाने की एक्टिंग करवाते थे।
परसाई मामा की मां पहले ही गुजर चुकी थीं। पिता और पांच भाई-बहन, इतना बड़ा परिवार होने के कारण परसाई जी को मैट्रिक पास करते ही नौकरी करनी पड़ी। जब वे हाफ पैंट पहनते थे, तब खंडवा के स्कूल में पढ़ाते थे। यहां उन्होंने फिल्म अभिनेता, गायक किशोर कुमार को छठी कक्षा में पढ़ाया था। परसाई मामा बताते थे कि किशोर अपने बड़े भाई अशोक कुमार के गाने गाकर सुनाया करता था।
परसाई जी ने प्राइवेट स्कूलों में भी पढ़ाया। उन्हें वन विभाग में सरकारी नौकरी भी मिली थी। सारिका पत्रिका में प्रकाशित गर्दिश के दिन कॉलम में उन्होंने लिखा था कि उस नौकरी के दौरान वे जंगल में सरकारी टपरे में रहते थे। ईंटों पर पटरा बिछाकर उस पर बिस्तर डालकर सोते थे। रात भर पटरे के नीचे मिट्टी के गड्ढे में से चूहे निकलकर उनके ऊपर उछल कूद करते रहते थे। बाद में उन्होंने सरकारी नौकरी भी छोड़ दी। गर्दिश के दिन खत्म कहां होते हैं, उनकी सीरीज चलती रहती है। परसाई जी के साथ भी ऐसा ही हुआ।
अचानक पिता की मृत्यु होने के बाद व बड़े भाई होने के कारण घर-परिवार संभालने की जिम्मेदारी उनके सर पर आ गई। उन्होंने परिवार को संभाला। साथ में पढ़ाई की, बहनों की शादी की। परसाई मांस्साब से स्वतंत्र लेखक बन गए। उस ज़माने में लेखकों को पारिश्रमिक मिलता था, जिससे जीविका चलाई जा सकती थी। बशर्ते लेखन में मेहनत बहुत करनी पड़ती थी, पर आजकल तो पहले टीवी, फिर मोबाइल फोन आने के कारण पाठक कम हो गए हैं और कई नामी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है। जो पत्र-पत्रिकाएं चल रही हैं, उनमें से कइयों ने लेखकों को पारिश्रमिक देना बंद कर दिया है।
परसाई जी के संघर्षों के बीच ही उनकी बहन सीता के पति का निधन हो गया। वे अपने पांच बच्चों सहित फिर घर लौट आईं। अब परसाई जी पर इन सबके पालन पोषण की जिम्मेदारी भी आ गई थी। पर उन्होंने हार नहीं मानी और कमर कसकर कलम चलाने लगे। इसी कारण उन्होंने अपनी शादी नहीं रचाई और आजीवन कुंवारे रहे। याद आता है, तब होली के समय अखबारों में नामी लोगों को टाइटल दिया जाता था या उन पर शब्दों के रंगों की पिचकरिया छोड़ी जाती थी। ऐसे ही एक अखबार ने परसाई जी के कुंवारेपन को छेड़ते हुए टाइटल दिया था – रुकोगी नहीं राधिका।
परसाई जी ने हर विधा में लिखा… कहानियां, उपन्यास, संस्मरण, निबंध आदि। उन्होंने वसुधा नामक पत्रिका भी निकाली थी, पर वह ज्यादा दिन चली नहीं। बाद में उन्होंने मूल रूप से राजनीतिक, सामाजिक विषम परिस्थितियों पर व्यंग्य लेखन किया। अपने लेखन में आम जनता के दर्द को व्यंग्य विनोद के माध्यम से व्यक्त किया। कई समाचार पत्रों में परसाई जी नियमित कॉलम लिखते थे। उनके शीर्षक होते ‘कहत कबीर’, ‘सुनो भाई साधु’, ‘पांचवा कॉलम’, ‘पूछो परसाई से’ आदि आदि। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और पद्मश्री भी। लेखन में अपनी सहज सरल भाषा के कारण वे लोकप्रिय हुए। उनके व्यंग्य वाक्य के पोस्टर बने। उद्धरण (कोटेशन) के रूप में वे वाक्य प्रयुक्त हुए।
परसाई जी ने अपने व्यंग्य के माध्यम से लोगों में वैचारिक क्रांति लाने का प्रयास किया। साहित्य में व्यंग्य को महत्वपूर्ण विधा का दर्जा दिलाया, यही उनका सबसे बड़ा योगदान है।
लेखन मात्र जीविका का साधन होने के कारण और बड़ा परिवार चलाने के कारण वे कभी ठाट-बाट से नहीं रहे। हमेशा कुर्ते-पजामे में, विशेष अवसरों पर काली शेरवानी या बंडी पहने देखे गए। अपने पारिश्रमिक के प्रति वे सजग रहते थे। सुनते हैं, वे भाषण देने के भी पैसे वसूल लेते थे, जैसे आजकल के फिल्म अभिनेता शादी-विवाह में उपस्थित होकर फोटो खिंचवाने के। अभिनेता-गायक किशोर कुमार भी इसीलिए बदनाम थे। जब तक उनका सेक्रेटरी इशारा ना करता कि कोका-कोला यानी रुपया मिल गया है, तब तक वे गाने की रिकॉर्डिंग नहीं करते थे। इशारा न मिलने पर वे बिना गाए गाड़ी में बैठकर फुर्र हो जाते थे। लता मंगेशकर ने भी अपने एक इंटरव्यू में कहा था (उन्हीं के शब्दों में), ‘‘मेरे पैसे बहुत खाए लोगों ने शुरू शुरू में, क्योंकि मुझे मालूम नहीं था, समझ में नहीं आता था कि इंडस्ट्री में कैसे बात करनी चाहिए, कैसे क्या होता है, अगर किसी ने पैसे दिए तो दिए नहीं तो गए।
एक समारोह में परसाई जी को पुरस्कृत एवं सम्मानित होना था। जब आयोजक ने मंच पर से साहित्य में परसाई जी के योगदान का गुणगान करके उन्हें प्रशस्ति पत्र दिया, तो वे पूछ बैठे कि असली चीज कहां है अर्थात पुरस्कार की राशि। बात भी सही थी। केवल सम्मान और प्रशंसा से किसी लेखक या कलाकार का पेट नहीं भरता, पैसा भी जरूरी है। परसाई जी भी अपने हक के लिए आवाज उठाना जानते थे। उनकी स्पष्टवादिता के कारण आयोजक उन्हें सरकारी कार्यक्रमों में बुलाने से डरते थे। फिर भी परसाई जी अपने लेखन में सच का चेहरा दिखाने से पीछे नहीं हटे।
जो व्यक्ति जितना प्रसिद्ध होता है, उतने ही उसके दुश्मन भी पैदा हो जाते हैं। अपने तीखे व्यंग्य दिखाई, आलोचना और खरी-खरी बातें कहने का परिणाम परसाई जी को भी भुगतना पड़ा। एक बार होली के समय कुछ बदमाश लड़कों ने उनके घर पर लगी लकड़ी की नेम प्लेट, जिस पर ‘हरिशंकर परसाई’ लिखा था, उखाड़ कर होली की आग में झोंक दी। दूसरी बार उनके लेखन से खार खाए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ लड़कों ने उनके घर में घुसकर उन्हें हॉकी स्टिक से पीटा, जिस कारण परसाई जी की टांग टूट गई। शीघ्र ही इस घटना की चर्चा सब जगह होने लगी। परसाई जी इस पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूके। बोले – ‘‘अगर पीटने से इतना यश मिलता है, यह बात मुझे मालूम होती तो मैं बहुत पहले से कोशिश करता।’’
और फिर एक के बाद एक शारीरिक व्याधियां झेलते हुए जीवन के अंत काल तक परसाई जी सदा बिस्तर पर ही रहे। इसके बावजूद उनका लिखना निरंतर चलता रहा। वे स्वतंत्र अभिव्यक्ति के खतरे उठाते रहे।

हरिशंकर परसाई के साथ रॉबिन शॉ पुष्प

मैं जब भी अपने मायके जबलपुर जाती, तो अपने पति लेखक रॉबिन शॉ पुष्प के साथ परसाई मामा से मिलने उनके घर जरूर जाती। मेरी मां पद्मा पटरथ भी लेखिका थीं। हम सब जब मिल बैठते तो साहित्य की कम, घर-परिवार की बातें अधिक करते। एक बात कई लोगों को नहीं मालूम होगी कि परसाई जी फुटबॉल भी खेलते थे अपनी युवावस्था में। मेरे पति भी स्पोर्ट्समैन थे। कैरम के डिस्ट्रिक्ट चैंपियन के अलावा वे फुटबॉल के बढ़िया खिलाड़ी थे। उन्हें टीम से बौरो करके भी ले जाया जाता था। पुष्प जी ने एक बार परसाई जी से उनके फुटबॉल प्रेम के बारे में जानना चाहा, तो परसाई मामा उदास होकर बोले – ‘‘अब कहां पुष्प जी। अब तो मेरे फुटबॉल में जीते हुए कपों में कामवाली बर्तन मांजने की राख रखती है।
परसाई जी ने किसी को नहीं छोड़ा। एक फोटो में कथा सम्राट प्रेमचंद के फटे जूते देखे, तो उस पर भी व्यंग्य लिख दिया। उनकी लिखी एक और रचना है ‘टॉर्च बेचने वाला’। कहा जाता है यह व्यंग्य उन्होंने जबलपुर के दूसरे महानायक ओशो पर लिखा है। वही चंद्र प्रकाश जैन जो दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर से आचार्य रजनीश, फिर भगवान और फिर ओशो के नाम से प्रसिद्ध हुए, अर्थात प्रोफेसरी छोड़कर आध्यात्म का दामन थामा और फिर उसी में डूब गए। देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए। विचारों के धनी ओशो पर लक्ष्मी की कृपा भी अपरम्पार रही। इधर परसाई जी सरस्वती को पूजते रह गए। एक शहर में दो महानायक, एक म्यान में दो तलवारें भला कैसे रह सकती हैं ! नोकझोंक हो जाती है, सो परसाई जी ने उन पर ‘टॉर्च बेचने वाला’ लिख दिया, जो लोगों को अपने भीतर के अहंकार का भय दिखाकर आत्मा की ज्योति जलाने की बात करता है। ‘टॉर्च बेचने वाला’ कथा स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी शामिल है।
एक बार मैंने परसाई जी से पूछा कि मामा जी टॉर्च बेचने वाला क्या आपने रजनीश जी पर लिखा है, तो उन्होंने पान का बीड़ा उठाकर मुंह में डाला और मुस्कुराते रहे। कोई जवाब नहीं दिया। वह रहस्य ही रह गया। जो भी हो, परसाई जी की यह रचना जब भी पढ़ी जाएगी, परोक्ष रूप से लोग रजनीश जी को भी याद करेंगे।
अब तो दोनों नहीं रहे। हो सकता है स्वर्ग में दोनों जबलपुरिया महानायकों को एक ही कमरा अलॉट हुआ हो। दोनों एक साथ बैठे गपियाते मुस्कुरा रहे होंगे। यह मेरी अपनी कल्पना है, आप कुछ और कल्पना कर लें। इस पर मेरा सर्वाधिकार सुरक्षित है।
अथ परसाई पुराण समाप्त। इति श्री परसाई कथा।

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