मदद
डाॅ. सरला सिंह
‘‘मैम शीनू मैम आपको बुला रही हैं।’’ एक बच्चे ने आकर कहा।
‘‘ठीक है, मैं आ रही हूं।’’ प्रभा ने कहा।
बच्चों को काम देकर जब वे शीनू के पास पहुंची, तो वे कोई फाॅर्म भर रही थीं।
‘‘अरे प्रभा, आओ… आओ। तुमसे कुछ जरूरी काम था।’’
‘‘जी, क्या काम है, बताइए।’’
‘‘तुम रितेश का श्योरिटी कर दो। मैं भी कर रही हूं। और अपने नाम कुछ लोन लेकर दे दो। मैं भी दे रही हूं। कुछ और लोग भी दे रहे हैं। वह बहुत ही ज्यादा कर्ज में दब चुका है। उसकी मदद करनी चाहिए।’’ शीनू मैम रितेश की तरफ से पूरा भरोसा दे रही थीं।
रितेश भी वहां आ गया और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘दीदी, मेरी बड़ी बहन जैसी हो आप। मैं एक-एक पैसा लौटा दूंगा। मैं इस समय बहुत परेशान हूं।’’ उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे और उन आंसुओं ने प्रभा को और भी भावुक कर दिया।
‘‘ठीक है, मैं घर में बात करके बताऊंगी।’’
छुट्टी के बाद जब वह घर पहुंची, तो पता चला कि रितेश पहले से ही वहां आकर उसके पति का पैर पकड़कर मिन्नतें कर चुका है और उसके पति भी उसकी बात मान चुके हैं।
‘‘अगर उसने पैसे नहीं लौटाए, तो क्या होगा ?’’ प्रभा ने अपनी चिंता जाहिर की।
‘‘अरे नहीं, वह सीधा-सीधा बन्दा है, पैसे लौटा देगा, हड़पेगा नहीं। बिचारा बहुत अधिक कर्ज में डूब गया है।’’
दोनों ने मिलकर श्योरिटी भी दी और अपने-अपने नाम लोन लेकर भी दिया। केवल इसी उम्मीद पर कि आज इसका भला होना चाहिए। कल की कल देखी जायेगी।
धीरे-धीरे समय बीतता रहा, पर रितेश ने पैसे लौटाने का नाम तक नहीं लिया। इधर प्रभा और उसके पति दोनों बुरी तरह फंस चुके थे। उन्होंने अपने लिए भी लोन ले रखा था और रितेश के लिए लिये लोन के कारण उनका बजट बिल्कुल असंतुलित हो गया। कभी सोसायटी का पैसा बाकी रह जाता, कभी दूसरे का। डिफाल्टर की नोटिस आती रहती। इन सबके बावजूद रितेश ने उन लोगों का पैसा नहीं लौटाया।
धीरे-धीरे कई साल गुजर गए, किन्तु रितेश ने उन लोगों का पैसा नहीं लौटाया। उसकी नीयत में खोट आ चुका था। फोन करने पर वह फोन नहीं उठाता और घर जाने पर कहला देता कि वह घर पर नहीं है। स्कूल जाने पर एक तो
मिलता नहीं और मिलता भी तो बस एक ही लाइन बोलता, ‘लौटा दूंगा।’ पर पैसे लौटाने का नाम ही नहीं लिया।
प्रभा को मन में यही लगता कि कभी किसी की मदद नहीं करनी चाहिए। मदद करने का यही खामियाजा भुगतना पड़ता है।