पूर्णमयी व अन्य कविता
राजेश कुमार द्विवेदी
पूर्णमयी
देखो तो किसलय मुलुक उठी
किरनों सी सुंदर प्राची में
कोई सुंदर झरना फूट पड़ा
पत्थर की बीहड़ घाटी में
कहीं सुंदर तान कंठ से उठ
झकझोर गई सब वाद्य यंत्र
तो कहीं सभ्यता सजग हुई
दे मानवता का मूल मंत्र
आ, बुद्धि विवेक दया लेकर
सन्मानुष का शृंगार करें
हो पहुंच हमारी पूर्णमयी
जन, निर्जन का उपकार करें
‘यह परिवेश हमारा’ सोंचे हम
इसका न संतुलन होवे भंग
स्थापित हो शुभ तादात्म्य
जगे सरल अविरल तरंग।
कुछ तो ऐसा हो
दुनिया में
कुछ तो ऐसा हो
जो दुनिया के
न जैसा हो !
दुनिया को
समझने को
जड़ तो ढूंढ़नी होगी
दुनियादारी की
लता गुल्में
फिर उनमें गूंथनी होंगी !
अगर इतनी भी
नहीं फुरसत
तोे दुनिया में न आना था
कहीं तुमने कभी देखा
कोई गूंगा तराना था !
जैसे यह वनस्पति है
या जीते जानवर जैसे
नभचर क्या, सभी थलचर
नहीं आजाद हैं वैसे
कि जैसे तुम हो,
अरे मानव !
अतः इन सबसे
इसकर ही
अलग हो तुम !
तुम्हें इनको बचाना है
तुम्हें धरती बचानी है
तुम्हें खुद को बचाना है
ये आजादी बचानी है !
कहीं ऐसा न हो
कि अपनी
अक्ल की रस्सियां बट के
अपनी मुश्कें ही कसवा दो
नई तरह की गुलामी से !
संभल, संज्ञान में
तू ले अपने
सभी पक्षों को,
हे मानव !
इनका तू बचावनहार
इनका तू ही खेवनहार
अतः भलाई के चिंतन का
तुम्हारा रुख हमेशा हो !
दुनिया में कुछ
तो ऐसा हो
जो दुनिया के
न जैसा हो !