चदर-बदर या चादर-बदोनी आदिवासियों की कठपुतली लोककला
नये पल्लव 11 अंक से
रोचक जानकारी
कठपुतली नृत्य अत्यंत प्राचीन एवं लोकप्रिय मनोरंजक लोककला है। प्राचीन समय में कठपुतली नृत्य सुदूरवर्ती गाँव के हाट एवं मेलों में सावन से अश्विन महीने तक बड़े ही चाव से देखा जाता था। यह जीविका का साधन भी हुआ करता था। परंतु जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीक का विकास होता गया, हमारे परंपरागत कलाओं का हृस होता गया। ऐसी ही अत्यंत प्राचीन कला है आदिवासी समुदाय की चदर-बदर या चादर-बदोनी लोककला। इस कला की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें बाँस के खाँचे में बनी लकड़ी की दर्जनों कठपुतलियाँ मात्र एक ही धागे से संचालित होने के बावजूद विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करती हैं।
कठपुतलियों की मुखाकृति से लेकर उनके रंग-रूप, गतिविधि, यहाँ तक की उससे संबंधित गीत-संगीत में भी आदिवासी समुदाय की संस्कृति एवं जीवन-दर्शन परिलक्षित होते हैं। उसकी बनावट एवं संचालन व्यवस्था में उस समुदाय की परंपरागत देशज एवं तकनीकी ज्ञान भी दृष्टिगोचर होता है।
कठपुतली प्राचीनतम रंगमंच पर खेला जाने वाला अत्यंत लोकप्रिय मनोरंजन के साधनों में से एक था, परन्तु उपेक्षा की वजह से धीरे-धीरे विलुप्त होती चली गई। अब लंबे समय के बाद कुछ कला विशेषज्ञों एवं संस्थाओं के प्रयास से इस पर शोध अध्ययन, प्रशिक्षण एवं निर्माण प्रदर्शन को लेकर कुछ काम शुरू हुआ है, जिसके फलस्वरूप हाल के कुछ वर्षों से इसका प्रदर्शन मेले एवं अन्य उत्सवों में देखा जाने लगा। राष्ट्रीय शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली, अंतरराष्ट्रीय कठपुतली महोत्सव, बैंगलुरू इत्यादि प्रदर्शनी मुख्य हैं। इसके बावजूद चादर-बदोनी लोककला के कुछ ही हस्तशिल्पी वर्तमान में कार्यरत हैं।
इस लोककला के विकास एवं संवर्द्धन के लिए संबंधित सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं को विशेष कोशिश करनी होगी। इन कलाकारों की शिक्षा पर भी विशेष जोर देना होगा। वर्तमान में वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार की इकाई हस्तशिल्प सेवा केन्द्र, देवघर द्वारा इस कला के संरक्षण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। इस कला को बांग्ला में ‘पुटूल’ और हिंदी में ‘कठपुतली’ के नाम से जाना जाता है।
पता : एम.जी. महाविद्यालय, रानीश्वर, दुमका-814101 झारखण्ड