निर्मम मन की बीन
राजेश कुमार द्विवेदी
विमर्श बदल दो
मुंह फेर के चल दो
सत्यमार्ग पर
भूख-प्यास की राखें मल दो
उपाधियां, पैसे, रोटियां
बस इनका हो गुणगान
जबकि सगरा जीवन
इन सबसे कहीं महान
गांव कुचल दो
जल के आधानों में
भर कीचड़ मल दो
पशु-पक्षी खाओ
निर्मम मन की बीन बजाओ
श्वेत रंग से इतर मनुज को
वैधानिक गुलामी की दलदल दो
फैक्टर ऑफ प्रोडक्शन
हुआ मनुष्य इन्हीं के जाले में
पंचभूतों का कोई संतुलन
न दिखता इनके पाले में
नाजी शोषक और कसाई
इन्हीं पनों में ढले हुए ये
मूर्ख बनाओ झूठ बोलकर
केवल उनके नाम बदल दो।
आत्महंता रोग है
न सोच, न विचार
बहुत हुआ तो कर लिया
हिंदुत्व का शृंगार
भारत की तभी तो
दरक गई दीवार
दुष्ट दल होते गए
सत्ता पर सवार
न्यूनतम होती गई
राष्ट्रभावना की धार
ज्ञान विस्मृत हो गया
हुआ दीनता का वार
वीरत्व कुंठित हो चला
खा हीनता की मार
वेद परंपरा छोड़कर
अंग्रेजियत का उधार
संभव नहीं कि हो सके
भारत का उभार
अतः जड़ को देखिए
ज्ञानत्व जहां अपार
अभिषिक्त वहीं होइए
समझिए सकल संसार
आत्महंता एक रोग है
जिसका करें उपचार।
झूठ का निर्माण
नाजियों का प्रमुख हथियार है
झूठ का निर्माण
फिर झूठ का प्रचार
और झूठ का गुणगान
इसके द्वारा सत्य को ओझल कीजिए
बेतुकी बातों को सर माथे लीजिए
रंगभेद और उपनिवेशों के दम पर
कानूनी शोषण तंत्र से दमन कर
किसने मौज ही मारी सदा !
उनके ध्येय में समत्व नहीं है
सत्य नहीं है, मनुजत्व नहीं है
बल्कि है संस्कृति-सभ्यता समेत
सारे नैसर्गिक आधानों का
क्रूरतम विनाश कर देना !
यह खोखली शब्दावली नहीं
दुष्ट इतिहास की कहानियां हैं !
आप सब भी जांच लें, जान लें
इनका परिष्करण करते चलें !
बदलाव का कोलाहल
अवश्यमेव है आंकना
कि बदलना किस ओर है ?
समय के साथ बदलने का अर्थ
क्या आयुष्य बढ़ जाना हुआ ?
या कि पुरखों को पिछड़ा समझ
अंग्रेजियत में ढल जाना हुआ ?
या बदलना-बदलना गुनगुनाना
सिर्फ शौकिया गाना हुआ ?
या आ रही विसंगतियों को
समझने-बूझने की जगह
पूरा पचा जाना हुआ ?
यह जानना भी है जरूरी
कि कदाचित हम
व्यक्ति रचना में,
समाज रचना में
राज्य रचना में,
राष्ट्र रचना में
संविधान रचना में न जुटे हों
सात्विकता का परित्याग कर
और क्वचित् गोरों जैसा
तामसिकता के दुष्प्रभावों का
अनुगमन तो नहीं करने लगे,
‘बदलाव को स्वीकारना होगा’
ऐसे कोलाहल के मध्य ?
विवेक की वल्लरियां
भीड़ बना कर मार देना
‘मार देना’ भर नहीं है !
ये दुर्धुष दृश्य अकस्मात नहीं
वह भीड़ सभ्य संभ्रांत नहीं !
दुष्ट व्यूह की रचना करती
साथ न देने पर वह चिढ़ती
हर शुभत्व से रहती कुढ़ती
विकृतियों की ये खलसेना !
घनघोर हताशा, यूं फंस लेना
इकट्ठा हुई गुप्त भीड़ को
कुलिश कुटिल आदेशों से
घेर-घेर किसी को डंस लेना !
इन महत् बिंदु अपमानों को
क्या अक्षम अपंग विधानों को
तमोगुणी कोटि पहचानें कर
समूल उखाड़ना नहीं उचित ?
उद्भ्रांत मुखौटों के कुचक्र ने
हर कहीं इसी घेराबंदी से
घनघोर तमस पाला-पोसा
अकरणीय को दिया बढ़ावा
करणीयों का सबकुछ नोचा !
पालघर की सामूहिक हत्याएं
करें मीमांसा कितनी जघन्य ?
विष, दंश, भ्रंश, जुगुप्साजन्य
तामसिकता की अधम कोटि
तभी समझ में आ पावेगी
तभी विवेक की वल्लरियां भी
आघातों से अवरोहेंगी, आरोहेंगी !