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दीपक की महत्ता

शिमला पाण्डेय

बुझ गया गर मैं, तिमिर छा कर रहेगा,
इसलिए जलना जरूरी है उमर भर।
जल सकूं मैं आंधियों में हे प्रभु,
इतना तो साहस जरुरी है उमर भर।
शक्ति का संचार तुम करते रहोगे,
यह अटल विश्वास हमको है उमर भर।
है मेरा संकल्प तम को ही मिटाना,
कर सकूं यह पूर्ण बस आगे उमर भर।
आप प्रभु स्नेह से वंचित न करना,
इससे ही पावन उजाला आयेगा।
गर सदा स्नेह से मैं हूं लबालब,
तो तिमिर न पास आने पायेगा।
जिन्दगी होगी हमारी सार्थक यूं,
बस इसी का मान रखना है उमर भर।

बेटी का दर्द

बाबुल आपके सीने में मैं, सिर रख कर रोई क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

बाबुल आपके आंगन की, चिड़िया परदेश को जाती।
कौन कहां कैसे हैं उनको, समझ नहीं है पाती।।
बदल गये सब रिश्ते नाते, आज पराई है क्यों ?
बाबुल आपके सीने में मैं, सिर रख कर रोई क्यों ?

इन्सानों की सूरत बदली, बदल गये चौबारे।
पर घर के कोने-कोने से, मिलते बड़े इशारे।।
पग पग पर है संभल के चलना, बाबुल ऐसा है क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

हर सूरत के भाव को पढ़ना, पढ़ कर आगे चलना।
हर पग पर जब रोक लगी हो, कैसे आगे बढ़ना।।
कहते हैं घर अपना लेकिन, भाव पराया है क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

छोटी थी बाबुल सुनती थी, ये तो पराया धन है।
जिस घर में भेजा है आपने, वहां परायापन है।।
लगता है यह रैन बसेरा, आपने भेजा है क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

दर्द छुपा कर सीने में मैं, सहम सहम रह जाती।
किससे बोलूं क्या मैं बोलूं, सोच के यह रह जाती।।
अपनी खुशियों की चाहत में, इतना दर्द दिया क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

जीवन जिसको सौंप दिया, उसको परवाह नहीं है।
अपने जीवन साथी के प्रति, कोई चाह नहीं है।।
केवल है कर्तव्य यहां, कोई अधिकार नहीं क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

बाबुल मेरा जन्म हुआ, क्या मेरा अपराध।
क्या अस्तित्व यहां बेटी का, समझ सके न आज।।
बाबुल बेटी के संग गैरों सा, व्यवहार हुआ क्यों ?
समझ सके क्या आप वेदना, अन्तर मन में है क्यों ?

बाबुल, बेटी आपके घर की शान,
आप में है बेटी की जान,
यह परिवार की है मुस्कान,
यही सजाती बागवान,
करती है परिवार सृजन,
विकसित करती घर आंगन,
बाबुल फिर बेटी को, है अन्जान समझते क्यों ?
बाबुल आपके सीने में मैं, सिर रख कर रोई क्यों ?

कवि के मन का

कविता कवि की कल्याणी है।
ये विमल भाव की वाणी है।।

जब मन में भाव प्रखर आयें।
अनगिनत शब्द गुंथ जाते हैं।।
तब शब्दों की माला बनती।
हर शब्द मोती बन जाते हैं।।
शब्दों को स्वर में ढाल के यूं।
वाणी से सम्प्रेषित हो जाये।
वह भाव ही कविता बन जाये।।

जब होकर व्यथित हृदय अपना।
अपनों से कुछ न कह पाये।।
एक खालीपन सा भाव जगे।
ओठों पर शब्द नहीं आये।।
मन के तारों को झंकृत कर,
वाणी के स्वर में मिल जाये।
वह भाव ही कविता बन जाये।।

आशायें जब बढ़ जाती हैं।
वह पूरी नहीं हो पाती हैं।।
प्यासा पनघट पर जैसे खड़ा।
वैसे ही वह तड़पाती हैं।।
तब विकल निराशा कवि मन को
अपनी तड़पन से तड़पाये।
वह भाव ही कविता बन जाये।।

मन का सूनापन मिट जाता।
जब मुखर शब्द हो जाते हैं।।
गीतों की लय और ताल बने।
वाणी में विलय हो जाते हैं।।
तब होकर प्रखर राग अपना,
स्वर से आनन्दित कर जाये।
वह भाव ही कविता बन जाये।।

कविता कवि की, साधना।
कविता कवि की, आराधना।।
कविता कवि का ध्यान है।
कविता कवि का मान है।।
कविता कवि की शान है।
कविता कवि का मनमंथन कर,
मन में नव भाव जगा जाये।
वह भाव ही कविता बन जाये।।

पता : अखिल विश्व गायत्री परिवार, राजाजीपुरम, लखनऊ, उ.प्र.

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