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कछुआ

डॉ. शुभंकर मुखर्जी

मुझे कोई बात आसानी से समझ नहीं आती,
मैं हर काम धीरे-धीरे करता हूं।
शिक्षक से कोई विषय दुबारा समझाने को कहता हूं,
तो वो झिड़क देते हैं।
सहपाठी मुझे देखकर हंसते हैं,
जैसे उन्हें भूगोल, इतिहास, गणित, विज्ञान, सब समझ में आता है।
सड़क से धीरे-धीरे जाता हूं तो
पीछे से एक्सयूवी वाला मां-बहन की गालियां देकर हटने को कहता है।
मैं कुछ डरकर और कुछ उसकी जल्दबाज़ी के कारण का
अनुमान लगाकर एक तरफ हट जाता हूं।
जिन्हें मंजिल पर पहुंचने की जल्दी है,
उन्हें जगह दे देनी चाहिए।
मैं कछुए सा मन्थर गति से आगे बढ़ रहा हूं।
किसी प्रतियोगिता में अब कछुआ नहीं जीतता।
खरगोश, घोड़ा, चीता एक दौड़ समाप्त कर दूसरी शुरू कर देते हैं।
पर लोग मुझे ताना क्यों देते हैं ?
मैं तो दौड़ में हूं ही नहीं।
शायद इसलिए कि मैं प्रगति की राह में रुकावट हूं।
तानों से बचने के लिए मैं कछुआ बन गया हूं।
मन से तो पहले ही था, अब तन से भी।
एक मोटी खाल समाज की तरफ तान दी है,
जो ढाल की तरह हर वार से बचा लेती है।
और अपना कोमल शरीर, अपनी नाकामी, अपनी निष्क्रियता
नीचे की तरफ छुपाकर चलता हूं, धरती से सटाकर रखता हूं।
धरती तो मां होती है ना, तिरस्कार नहीं करती,
उसके लिए कछुआ, घोड़ा, खरगोश सब एक बराबर हैं।

तुलना

मैं दो हूं, अर्थात शून्य से दो ज़्यादा,
वो चार है यानी शून्य से चार और मुझसे दो ज़्यादा।
चार को बहुत सुकून मिलता है
जब वो दो से मिलता है।
दो को बहुत ख़ुशी होती है
जब वो शून्य से मिलता है।
शून्य के होने से दो और चार को
अपने बड़प्पन का एहसास होता है।
इन्हीं दो, चार, छह की प्रेरणा
सौ, दो सौ, चार सौ हैं।
ये मन्त्रमुग्ध से उनको देखते रहते हैं,
उन जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं।
वहीं सौ, दो सौ, चार सौ इन्हें कुछ नहीं समझते,
ऐ हट-हट कहकर इनको रास्ते से हटा देते हैं।
लेकिन दो, चार, छह इससे विचलित नहीं होते,
वे इस फटकार को प्रसाद समझ सहर्ष ग्रहण करते हैं
और दो सौ, चार सौ के व्यवहार का अनुकरण कर
शून्य के साथ वही बर्ताव करते हैं।
शून्य और गिर नहीं सकता तो एक छोर से सुरक्षित रहता है।
इस सीढ़ी की सबसे ऊपर की पायदान पर कौन है
ये कोई नहीं जानता,
लेकिन सभी उसे पूजते भी हैं
और उससे ईर्ष्या भी करते हैं।
बचपन में तीन, चार, पांच, छह सब मेरे दोस्त थे,
अब वो बीस, तीस, चालीस बन गए हैं
तो अपने गोत्र में ही मेल-मिलाप पसन्द करते हैं।
हारकर मैंने शून्य और एक से मैत्री स्थापित की है
क्योंकि गर्दन ऊपर करने से मुझे चक्कर आते हैं
और सीढ़ियां चढ़ने से सीढ़ियां उतरना आसान होता है।

असमाप्त

हृदय में कुछ रिक्त स्थान हैं
जो तुम्हारी अनुपस्थिति से बने हैं।
वो पौधे जो जड़ पकड़ रहे थे,
उनके छोटे-छोटे मुड़े हुए पत्ते
फैल रहे थे धीरे-धीरे,
बातें करने लगे थे अपने आसपास की हवा से,
सूरज की किरणों से,
उन्मूलित किए गए तुम्हारे द्वारा एक दिन।
वहां रह गए गहरे घाव,
वहां रह गए तुम्हारे प्रेम के अवशेष।
मैंने मिट्टी से ढक दी वो सारी जगह,
समतल कर दिया सब।
बसन्त उसके बाद भी आया किसी और के साथ।
प्रेम के बीज अंकुरित हुए, नई कोपलें फूटीं।
मैंने तुम्हारे दिए रिक्त स्थान भरे
एक नूतन प्रेम के साथ।
पर मैं अपने मन को कुरेदूं तो आज भी पाती हूं
कि जो शून्य तुमने दिया
उसे किसी और ने भरा अवश्य
लेकिन उस शून्यता की छाया आज भी जीवन्त है।
वो सूनापन कोई और नहीं भर सकता।
एक नयी चादर बिछा दी है ऊपर से,
ढक दिया है सब अतीत।
पर हां तुम्हारा अस्तित्व है, रहेगा, जब तक मैं रहूंगी।
प्रथम प्रेम पूर्णतः धूमिल नहीं होता।
अवचेतन में रहता है कहीं, एक ही आस लिए,
कभी तो, कभी तो तुम मुझे पुकारोगे,
बहुत दूर से शायद या बहुत करीब से।

दो पल किसी के साथ

दूर से देखना चांद को रात भर,
चांद तुम्हारा तो होता नहीं।
लिपटकर याद से हम कब तक जिएं,
ऐसे गुज़ारा तो होता नहीं।
ढूंढ़ते-ढूंढ़ते तेरे दिल का पता,
हम रिश्ता कोई जोड़ने आ गए।
बेतकल्लुफ़ से तुम, उस दिन क्या सोचकर,
गली के मोड़ तक छोड़ने आ गए।
एक पल का सुकूं, ज़िन्दगी भर का यूं,
सहारा तो होता नहीं।
लिपटकर याद से हम कब तक जिएं,
ऐसे गुज़ारा तो होता नहीं।
भूलकर मैं तुम्हें किस सफ़र पे चलूं,
मन तो अटका हुआ है उसी छोर पे।
स्वप्न के वो प्रहर, इस लहर, उस लहर,
डोलते दो बदन प्रेम हिल्लोल पे।
ख़्वाब में क्या हुआ, मुझको किसने छुआ,
वैसा दोबारा तो होता नहीं।
लिपटकर याद से हम कब तक जिएं,
ऐसे गुज़ारा तो होता नहीं।
अक्सर बहल जाया करता है दिल,
तुम मेरे बन भी सकते थे ये सोचकर।
तुमको अच्छा लगेगा जो मैं साथ दूं,
तुमने क्यों कह दिया था मुझे रोककर ?
मैं अगर कुछ नहीं, तुमने दुख में सही,
मुझको पुकारा तो होता नहीं।
लिपटकर याद से हम कब तक जिएं,
ऐसे गुज़ारा तो होता नहीं।

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