पगली
‘नये पल्लव 13’ से

आशा दिनकर ‘आस’
आज जल्दी में घर से ऑफिस के लिए निकली थी। ऑफिस में काम की अधिकता थी, इसलिए समय पर पूरा करने का दबाव बना हुआ था। जल्दी-जल्दी बस स्टैंड से रिक्शा कर लिया, ताकि समय व्यर्थ न हो। अभी रिक्शा ऑफिस के पास पहुंचा ही था कि सब लोग मुझे बाहर ही खड़े मिल गये। सबने मुझे घेर लिया और हिदायत दी कि आप भी अंदर मत जाइये, नहीं तो वह पगली आपके पीछे भी पड़ जाएगी।
मैंने पूछा, ‘‘कौन पगली ? किसकी बात कर रहे हो तुम लोग ?’’
‘‘अरे वही पगली, जो ऑफिस के कॉरिडोर में डेरा जमाए रहती है। आज बहुत उत्पात मचाया है उसने।’’
‘‘लेकिन ऐसा क्या हुआ आज कि वह इस तरह व्यवहार कर रही है ?’’
‘‘यह तो सच में हमें भी नहीं पता, लेकिन पता नहीं क्या परेशानी है।’’
मैं जबसे आई हूं, उसे ऑफिस के कॉरिडोर में ही डेरा डाले देखा है। वो कई साल से यहां रहती है। आंखों पर मोटा चश्मा लगा होता है। उसे सही से रास्ता भी नहीं दिखाई देता है। चलती है तो राह के छोटे से पत्थर से भी ठोकर खा जाती है। दिन में सामने मार्केट से कुछ भी मांगकर खा लेती है। पेट भर जाता है तो रात को यहीं पर सो जाती है। यही दिनचर्या है उसकी। किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती। पेट भर जाता है तो फिर कॉरिडोर में ही आकर आराम से बैठ जाती है। सारी चहल-पहल से बेगानी सारी दुनिया से अलग उसकी दुनिया है। अपनी दुनिया में किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं और वो किसी की दुनिया में कोई दखल नहीं देती है। इसलिए लोग उसे ‘पगली’ कहते हैं।
एक दिन मेरे पास भी मांगने आई थी। खाना खाने के पैसे मांग रही थी। मैं उसके बारे में नहीं जानती थी, इसलिए सोचा कि आज पूछ लेती हूं, ‘‘अम्मा तुम यहां क्यों रहती हो ? तुम्हारा कोई घर नहीं है ? बाल-बच्चे, परिवार या रिश्तेदार कोई तो होगा ? तो उनके साथ क्यों नहीं रहती ?’’
मेरा पूछना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। लगभग बिफरते हुए जबाव दिया, ‘‘सब हैं मेरे घर-परिवार में। बहू-बेटा, नाती-पोते, सब हैं। भरा पूरा परिवार है। पर मेरी बहू खराब निकल गई। बेटा शराब के ऐब में पड़ गया और रोज घर में लड़ता है और मारपीट मचा देता है। मैं तो बर्दाश्त कर लेती थी, पर बहू नहीं बर्दाश्त करती। एक दिन बेटे को पुलिस से शिकायत करके जेल में बंद करवा दिया। मुझे भी बेटे ने घर से निकाल दिया, तब से यहीं कॉरिडोर में पड़ी रहती हूं। लोगों ने पगली नाम रख दिया है और बच्चे भी पगली-पगली कहते रहते हैं। कभी कोई अच्छी चीज खाने को मिल जाती है, तब बच्चों की याद आती है और मैं गली के बच्चों को ही खाने की चीज दे आती हूं। मन नहीं मानता उन्हें देखे बिना। जबतक जान में जान है, मन का मोह नहीं टूटता। क्या करूं ?’’
… लेकिन आज किसी ने अम्मा को निपूती कह दिया था, तो उसके सब्र का बांध टूट गया। बिफरकर चिल्लाने लगी, ‘‘तुम होगे निपूते, मेरा बेटा भी है और पोता भी।’’ इसी बात पर सबसे लड़ रही है।
मेरा मन भर आया, कैसे मोह में पड़ी हुई है अम्मा, कोई बच्चा नहीं पूछता, घर से बेघर कर दिया। दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर है, पर उनकी बुराई नहीं सुन सकती। उनके होते हुए खुद को निपूती नहीं कह सकती। तभी तो ममता में मां ‘पगली’ होती है। …बिल्कुल ‘पगली’ होती है।