आत्म-संतोष
‘नये पल्लव 13’ से

रतिकान्त पाठक ‘बाबा’
सुबह उठा ही था कि साधुशरण जी का संवाद आया कि वे काफी बीमार हैं और मुझसे मिलना चाहते हैं। सारी बातों से अवगत हो शाम में आने को कह उनके आदमी को लौटा दिया।
साधुजी मुझसे सेवा में सीनियर थे और पांच साल पहले ही अवकाश प्राप्त कर चुके थे। जबतक साथ रहे, मुझसे काफी दोस्ती थी। इनके पिताजी का देहान्त दो-तीन वर्ष पहले हो चुका था। साधुजी ने अपनी जिन्दगी में काफी कुछ किया। कहना न होगा कि घर की नींव इन्होंने ही रखी। सभी भाइयों को पढ़ाने-लिखाने एवं आदमी बनाने में अपनी अल्प आय में सामर्थ्य भर करने में कभी कोताही नहीं की। सभी जिम्मेदारियों को संभालते हुए आज अंतिम सांसें लेने के कगार पर पहुंच गए थे।
शाम मैं उनके यहां पहुंचा। सारी स्थिति की जानकारी हुई। बीमारी से अधिक किसी गूढ़़ चिन्तन से ग्रसित महसूस हुए। मैंने काफी ढाढस बंधाया एवं दीर्धजीवी होने हेतु आशीष दिया। संतोष और चैन से रहने की सलाह दी। अंत में उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की कि पिताजी ने मरने के समय कहा था कि सभी भाई मिलजुलकर रहें। आपस का दुख-दर्द एक-दूसरे में बांटें… इत्यादि-इत्यादि।
मैंने उन्हें बताया कि आज के जमाने में भरत-सा भाई मिलना बहुत ही कठिन है। अब तो बड़े-छोटे का ज्ञान लुप्त हो रहा है। लोग अहंकार से भरे हैं और सब अपने में मस्त हैं। दूसरों की चिंता करने का सोचते ही नहीं। साक्षात कलयुग आ गया है। ऐसे समय में आप क्या कर सकते हैं ?
आखिर साधुजी, जिन्होंने अपनी जिन्दगी में अदम्य उत्साह से घर को बनाने में… सभी भाइयों को बनाने में कभी उत्साह की कमी नहीं की, उन्हें चिंता मात्र अपने भाइयों में प्रेम की कमी व एक दूसरे के प्रति सम्मान की कमी की थी। उनमें प्रेम, एकता एवं उत्सर्ग की भावना दिल में उतारने के लिए वही पुरानी तरकीब, जो हमने पंचतंत्र में पढ़ा है, आजमाने का प्रयास किया।
पंचतंत्र की कहानी की वही पुरानी तरकीब, जिसे सबों ने सुनी या पढ़ी है – कोई बाप मृत्यु शय्या पर पड़ा था। उसने चार लकड़ियां मंगवाया। उन्हें एक जगह बांध कर अपने लड़कों से बारी-बारी से तोड़ने को कहा। बारी-बारी से सबों ने काफी कोशिश की, लेकिन टूट न पाई, तो उसने गठ्ठर खोलकर एक-एक लकड़ी तोड़ने को दिया। सबों ने लकड़ी तोड़ दी तो बाप ने कहा कि देखो, चारो लकड़ियां इकठ्ठी थीं तो शक्ति थी, अलग होते ही निर्बल हो गईं और सबों ने तोड़ दिया। अतः तुमलोग मिलकर रहो, यही आखिरी निवेदन है और यह कहकर वे स्वर्ग सिधार गए।
साधुजी सात भाई थे। सभी अपने-अपने कार्य से बाहर थे। अतः कुछ समय उन्हें इकठ्ठा करने में लग गया। जब सभी पहुंचे, तो उन्होंने सबों को अपने पास बुलाया और कहा कि सब जाओ और एक-एक लकड़ी लेते आओ। इसपर एक ने कहा, आप लकड़ी लेकर क्या करेंगे। जमाना बदल गया है। वह जमाना और था, जब बड़ों ने कहा और छोटे ले आते थे।
दूसरे ने कहा – लकड़ी… लकड़ी लेकर आप क्या करेंगे।
तीसरे ने कहा – लकड़ी नहीं, शायद ककड़ी मांग रहे हैं। बुढ़ापे में शायद ककड़ी खाने को जी करता होगा।
चौथे ने कहा – शायद ठंड के कारण आग जलाने के लिए लकड़ी मांग रहे हैं।
पांचवें ने कहा – कोयला ही ला देता हूं।
इसपर छठे ने कहा – क्यों न रूम हीटर ही मंगवा दिया जाए।
इसपर साधुजी ने बिगड़ते हुए कहा – अरे नासमझों, जो मैं कहता हूं, वही करो।
उन्हें तो एक सिद्धान्त को सिद्ध करना था, जो कोयला और रूम हीटर से होने वाला था ही नहीं। कहानी की बात भी नहीं कहनी थी, नहीं तो मतलब ही खत्म हो जाता।
उन्होंने भाइयों पर बिगड़ते हुए कहा कि कहीं से लकड़ी लाओ, जंगल से ही सही।
इसपर उनके भाई भी कहां चुप रहने वाले थे। एक ने फिर कहा – यह भी अच्छी रही … जंगल यहां है ही कहां …और महकमा जंगलात वाले भी कहां लकड़ी काटने देते हैं। सजा दिलवाने की इच्छा है क्या आपको।
तो दूसरे ने कहा – अपने आप में हैं ही नहीं। जुनून में ऊल-जलूल बक रहे हैं।
तीसरे ने कहा – लकड़ी वाली बात तो मेरी समझ में बिल्कुल ही नहीं आती।
चौथे ने कहा – बुढ़ापे में लोग अनाप-शनाप बकते ही हैं।
पांचवें ने कहा – शायद दौरे के मरीज हो गए हैं।
छठे ने कहा – अब यहां भी इलाज होता है। बख्शी साहब हर शनिवार-रविवार को यहां आते हैं। …लेकिन उम्र भर में एक ही तो ख्वाहिश की है। उसे पूरा करने में हर्ज ही क्या है। मैं कहीं से लकड़ी ले आता हूं, देखें उसका क्या करेंगे ?
इतना कह वह बगल के ही शर्माजी के टाल पर चला गया और कहा – कृपया छः लकड़ियां दे दें। अच्छी और मजबूत होनी चाहिए, पैसा जो भी लगे।
लकड़ी खासी मोटी और मजबूत थी। साधुजी ने देखा तो दिल बैठ गया, क्योंकि लकड़ियां इतनी मजबूत थीं कि एक-एक भी नहीं तोड़ी जा सकती थीं, एकसाथ तोड़ देने का तो सवाल ही नहीं उठता था। उसपर ये बताना तो मतलब के खिलाफ ही था कि लकड़ियां क्यों मंगवायी गईं और उससे क्या नैतिक परिणाम निकालने का मकसद है।
आखिर में भाइयों से कहा कि ले ही आए हो तो सबों को एक साथ गठरी बांधों। इसपर फिर भाइयों में खुसुर-फुसुर होने लगी। गठरी क्यों …अब रस्सी कहां से लाऊं। भाई, बहुत तंग किया इस बूढ़े ने।
आखिर में एक ने अपने पाजामा से डोरी निकाल गठरी बांध दी। साधुजी ने कहा – अब एक-एक आदमी बारी-बारी से इसे तोड़ो।
लो भाई, यह भी अच्छी रही, इसे कैसे तोड़ें। अब कुल्हाड़ी कहां से लाएं। अरे इस बुड्ढे को हुआ क्या है ? अगर मरना ही है तो जल्दी मर जाए, अब हमें अधिक सताना ठीक नहीं।
यह सुनते ही साधुजी ने कहा – कुल्हाड़ी से नहीं, हाथ से तोड़ो … घुटने से तोड़ो।
…देखा, हाथ से टूटने को तो है नहीं, कहानी ही गड़बड़ बना रहा है। अब घुटने को भी जोड़ दिया।
सबों ने बारी-बारी से तोड़ने की कोशिश की, पर गठरी किसी से नहीं टूटी। फिर लकड़ियों को अलग-अलग कर तोड़ने को कहा गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि करना क्या है ? कहानी तो पुरानी थी और बड़े मतलब की थी। मगर बात बदल गई… लोग बदल गए… ढंग बदला और बदल गया सोचने का ढंग।
लकड़ी मोटी और मजबूत थी। बहुत कोशिश के बाद भी नहीं टूटी। आखिर एक ने अपने घुटनों में लगाकर पूरा जोर डाला और तड़ाक की आवाज हुई। साधुजी ने नसीहत देने के लिए अपनी आंखें खोल दीं। आखिर नसीहत देने के लिए एक ही लकड़ी टूटी तो, लेकिन देखते हैं कि भाई बेहोश होकर फर्श पर गिर गया है। लकड़ी तो सही सलामत थी, उसकी टांग ही टूट गई थी।
एक भाई ने कहा – यह बूढ़ा बड़ा जाहिल है।
दूसरे ने कहा – अड़ियल और जिद्दी है। आखिर भाई की टांग तुड़वा ही दी। अब चैन की सांस लेगा।
तीसरे ने कहा – खूसट और सनकी है।
चौथे ने कहा – अक्ल से पैदल और महा बेवकूफ है।
पांचवें ने कहा – सभी बूढ़े ऐसे ही सनकी और बेईमान होते हैं। कमबख्त मरता भी नहीं।
साधुजी ने इत्मीनान की सांस ली कि कम से कम इस बात पर सभी भाइयों के मत एक तो हैं। संतोष हुआ और आंखें बंद कर शांत भाव से सो गए।
महीनों बाद उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने मेरे द्वारा सुझाए पंचतंत्र की कहानी के परिणाम का उल्लेख किया। इसपर मैंने अधिक जानकारी लेनी चाही, तो पता चला कि सभी भाइयों में घर, जमीन, पैसे को लेकर मारपीट, खून-खराबा तक हो गया। आठ-दस केस कोर्ट में ही चल रहे हैं। हवेली कुनबा में बदल गई है। इतना कहते-कहते साधुजी फवक-फवक कर रो पड़े। मैंने उन्हें सांत्वना दी और अपने भविष्य को सोचते हुए वापस लौट आया।