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बनना है स्वयंसिद्धा

प्रो. डॉ. सुधा सिन्हा

तेरी कोई औकात नहीं,
प्यार पाने की काबिलियत नहीं,
बनके रह गया तू तो शिकारी,
थोड़ी भी तुममें शराफत नहीं।

पत्नी बनाके मुहर लगाया,
पर पति नहीं तू बन पाया,
पांच पांडवों की पत्नी दौपदी,
पति बनके रक्षा न कर पाया।

दुर्याधन उसे घसीटता ले गया,
भरी सभा में उसे जिल्लत दिया,
नपुंसक पांच पति बनके,
चुपचाप तमाशा देखता रहा।

वस्तु बनाने की जुर्रत क्यों की ?
जुए में उसे क्यों हार गया ?
कैसी अनूठी अजब दास्तां,
इतिहास को भी तूने थर्रा दिया।

तेरी क्या वह जागीरदारी थी,
बन न सकी वह सहधर्मिणी,
तूने उससे कैसा प्यार किया,
हाड़-मांस से पाषाण बना डाला।

सारा कुकर्म तो तूने किया,
अंगूठी को ही पहचान बनाया,
कैसा बेवफा तू कुकर्मी,
नहीं बन सकेगा किसी का प्रेमी।

दो रोटी देकर उसे नचाया,
बंधवा मजदूर उसको बनाया,
सांस भी अपनी वह ले न सके,
उसपे भी अपनी मुहर लगाया।

नहीं चलेगी तेरी दादागिरी,
तूने तो उसकी की सौदागरी,
जंगल में लेजा खूंटे में बाधा,
झूठा उसपे लांछन लगाया।

सारे रक्षक तो भक्षक बन गये,
नहीं चाहिये हमें संरक्षक,
हमको तो बनना है स्वयंसिद्धा,
बनके नहीं रहना है सीता।

विदा दो हजार तेईस

दूर गगन के पार क्षितिज से,
हलो-हलो कोई करता है,
धीरे-धीरे कदम बढ़ाकर,
धरा की ओर मुड़ जाता है।

तेईस जाने को खड़ा है,
चौबीस खड़ा मुस्कुराता है,
धीरे-धीरे दस्तक देकर,
दरवाजा खुलवाता है।

तेईस ने नया इतिहास रचा है,
संसद नया बनाया है,
इसके गलियारे में झांककर,
चौबीस खिल-खिल करता है।

बहुत कुछ इसको अब करना है,
नये देश को गढ़ना है,
तेईस को विदाई देकर,
विश्वगुरु भारत बनाना है।

किसी ने जो कुछ नहीं किया है,
इसे ही सबकुछ अब करना,
आज चांद पर उतर गया,
कल सूर्य के करीब जाना है।

प्रत्येक ग्रह पर जाकर इसको,
विजय पताका फहराना है,
धरती से अम्बर तक इसको,
भारत का डंका बजाना है।

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