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सुजाता के बुद्ध

अनुजीत

प्रचंड हवाओं में कितने संस्मरण, कितने स्वप्न, कितने घटनाक्रम तैर जाते हैं और इन सब के बोझ से भारी हवाएं जब हांफने लगती हैं, तो मन शून्य की अवस्था में पहुंच जाता है।
‘धम्म’ !
कुछ गिरा, मैं चैंक गई। मुड़ कर देखा, तो तेज हवा के कारण मेरी कोठरी की झाड़ से बनी कपाटी गिर गई थी। आज मौसम भी मेरे मन की तरह ज्यादा ही व्यग्र और उद्विग्न हो रहा है। रात का तीसरा पहर चल रहा है और मैं गाछ के पास खड़ी बाहर आकाश मंडल को देख रही हूं। पानी बरस रहा है और मेघ शोभायमान होकर चंद्रमा के साथ अनिर्वचनीय केली कर रहे हैं। मेरी कोठरी में पानी आ रहा है। जोर से बिजली की गर्जना हुई और मैं घबरा गई। अस्सी साल की वृद्धावस्था में ऐसी घबराहट स्वाभाविक है। कोई है भी तो नहीं इस जीवन में अब। यह बादलों का क्रंदन, यह कोलाहल, यह दृष्टि, चारों तरफ पर बिखरा पानी, दम तोड़ चुकी युवावस्था, बुझा हुआ मन, रुके हुए कदम, तम के प्रेतायन, समाप्त हो चुका आलोक और कराहता हुआ क्षितिज, मुझे अतीत की स्मृतियों में ले गए। वह भी एक ऐसी ही रात थी, लगभग पचास वर्ष पहले।मैं सुजाता के कक्ष में बैठी हुई थी और बाहर तेज बारिश हो रही थी। कहने को उसकी दासी थी, लेकिन हमारा संबंध सखियों से कम न था। प्रायः गांव के लोग इस बात को विस्मय की दृष्टि से देखते, क्योंकि उनकी समझ से सुजाता ने मुझे ज्यादा ही स्वतंत्रता दे रखी थी। आखिर वह उरुवेला प्रदेश के सबसे संपन्न यदुवंशीय साहूकार अनाथपिंडिक की पुत्रवधू थी और मैं एक क्षुद्र कन्या। मेरा और सुजाता का संबंध इतना प्रगाढ़ क्यों था, यह मैं और वह ही समझ सकते थे और जो नहीं समझ सकते थे, उनके लिए इससे अंगीकार करना कठिन थउन दिनों सुजाता को मां बने हुए लगभग चालीस दिन हुए थे। बड़ी ही दुसाध्य तपस्या की थी उसने। व्रताचरण, यज्ञादि कर्म, उग्र नियम पालन एवं जटिल धार्मिक अनुष्ठान। किंतु अंत में, सुप्पतीत्य नदी के किनारे लगे वटवृक्ष की पूजा अर्चना से उसे मातृत्व प्राप्त हुआ।
सुजाता खिड़की से बाहर देख रही थी। सहसा वह मुड़कर मेरी ओर देखने लगी। मैं उसके सो रहे पुत्र के पालने के पास बैठी थी।
“पूर्णा, यह चंद्र देख रही हो ! कल पूर्णिमा है और यह पूर्णता प्राप्त कर लेगा, किंतु कुछ जीवन ऐसे होते हैं, जिनमें कभी पूर्णता नहीं आती।“ वह धीरे से बोली। उसके कहने का तात्पर्य मैं समझ रही थी।
फिर गहरी सांस लेकर वह बोली, ”सखी पूर्णा, प्रेम में तिरस्कृत मनुष्य जब बंधन की मर्यादा भूल जाता है, तो वह प्रतिहिंसा का शिकार हो जाता है। मेरी भी यही व्यथा है। स्वामी मुझसे इस स्तर तक विमुख हो गए हैं कि अब तो कोई सहानुभूति का स्वर भी याद नहीं है मुझे और उनके नेत्रमण्डल से करुणा भी सूख चुकी है।“
सुजाता की क्षुब्ध आत्मा आर्तनाद कर रही थी। वह सदैव ही ऐसी मनोस्थिति में रहती थी।
“अन्नदाता ऐसी मनोवृति को प्रश्रय देंगे कभी, स्वप्न में भी नहीं सोचा था।“ मैंने आतुरता से बोला।
सुजाता पाषाण की भांति खड़ी फिर से बाहर बादलों से घिरे मयंक को निहारने लगी। कुछ क्षण पश्चात उसकी आह लाल पाषाणों से बनी उसके कक्ष की बेजान दीवारों से टकराकर मौन हो गई। मैं स्तब्ध सब देख रही थी। सुजाता अपने पति के लिए प्राचीन अवशेषों की भांति ही थी, सिर्फ देखने भर की वस्तु। उसका अस्तित्व यही था। उसके स्वामी के कठोर व्यवहार के कारण वह जीवन से उदासीन हो चुकी थी। जीवन प्रवाह भी कब अवास्तविक आकांक्षाओं में बांटा जा सकता है ?
सुजाता की आहें अब अश्रु धारा में परिवर्तित हो चुकी थीं। वर्षों से छिपी व्यथा सहस्त्र आवरणों को चीरकर निर्धुम अग्नि की तरह सुलग रही थी। वह मूर्तिवत खड़ी गाछ से दूर-दूर तक फैले सन्नाटे का अनिमेष दृष्टि से अवलोकन कर रही थी।
फिर अस्थिर स्वर में बोली, ”मेरे प्रेम और समर्पण पर आघात हुआ है और मैं जर्जर हो चुकी हूं। दम तोड़ती आशा के साए में घुट रही हूं, पूर्णा। जीवनपर्यंत आत्मा की परतों में छिपा घाव फूटकर बहता रहेगा।“
मुझे लगा जैसे उसकी आत्मा के रुदन का स्वर उसके भवन, चरागाहों और बाहर झील में खिले नीलकमलों से पछाड़ खाकर वापस उसी के पास आ रहा है। बाहर वर्षा का जल तरंग अब धीमा हो रहा था।
मैंने बात बदलते हुए बोला, ”याद है ना कल पूर्णिमा है ? खीर-अर्पण करने वटवृक्ष के स्थान पर जाना है।“
“हां, याद है। तुम प्रातःकालीन प्रबंध कर आना वहां जाकर। फिर मैं तुम्हारे साथ खीर लेकर चलूंगी।“
मैं उससे आज्ञा लेकर उसके कक्ष के बाहर जाने ही वाली थी कि उसका पुत्र नींद से जाग गया। सुजाता जैसे स्वप्नलोक से बाहर आ गई। तेज कदमों से वह उसके पालने की तरफ बढ़ी और उसपर वात्सल्य की वर्षा करने लगी।
मैंने आगे बढ़कर उसका हाथ थामा और बोली, ”मैं प्रयास करूंगी सुजाता कि तुम सदा प्रसन्न रहो।“
“इतने असंभव को संभव करोगी ?”
“आशा बहुत बड़ी चीज है।“
“जिस आशा को अंधकार लील चुका है, उस आशा की आस रखना भी व्यर्थ है।“ अपने पुत्र को सहलाते हुई वह बोली।
मैं भारी मन से वापस मुड़ी और अपनी कोठरी की तरफ चल दी। सुजाता के भवन की बाहरी दीवार के साथ हम सब दास, दासियों की कोठड़ियां पंक्तिबद्ध बनी थीं।
अगली सुबह मैं सूर्योदय के पूर्व ही उठ गई। क्योंकि अपनी स्वामिनी एवं सखी के कार्यसाधन को मैंने अंगीकार किया हुआ था, फिर शिथिलता कैसी ? आकाश साफ था एवं मेघ छंट चुके थे। अरुणोदय काल में देव निमित्त कार्य करने का आनंद ही अपूर्व है। मैं स्नानादि से निवृत होकर तैयारी में लग गई। भवन के अंदर ही बने सरोवर से मैंने एक नीलकमल लिया और झाड़ लेकर जंगल की तरफ निकल गई। वह जंगल विशाल क्षेत्र में फैला था और हमारे गांव एवं सुप्पतीत्य नदी को विभाजित करता था। रास्ते के दोनों ओर घने वृक्ष खंड थे। रात को वर्षा की वजह से गड्ढों में पानी भरा हुआ था। उस दिन एक अलग-सी ताजगी थी हवा में। एक शीतल हवा का झोंका मुझे दुलारता, सहलाता हुआ आगे निकल गया। प्रकृति अपने आप में मौखिक है। मुझे आश्चर्य हुआ कि मनुष्य प्रकृति के वार्तालाप से इतना अनभिज्ञ कैसे रह सकता है ? मैंने यूं ही विस्तृत आकाश की ओर देखा, तो सुंदर मेघ विलक्षण रूप-रेखा धारण किए हुए थे, मानो हंस नदी में क्रीड़ा कर रहे हो जैसे। पेड़-पौधे उन्मत्त खुमारी में झूम रहे थे और उनसे लिपटी लताएं जैसे अलसा रही हों। दूर से कोयल की आवाज आ रही थी – कुहू… कुहू, वह एक उदासीन ही सही, लेकिन अत्यंत सुखप्रद ध्वनि थी। बूढ़ी कोयलें कितना अच्छा गाती हैं। रास्ते की सारी शिलाएं कस्तूरी मृगों के बैठने के कारण सुगंधित थीं।
अंततोगत्वा, मैं स्थान तक पहुंच गई, जहां वटवृक्ष का टीला था। मैंने नदी के शीतल जल से पात्र भरा और टीले के ऊपर चढ़ गई, लेकिन यह क्या ? वहां कोई ध्यानस्थ देव पहले से ही विराजमान था। कृषकाय शरीर, श्वेत वर्ण, घुंघराले बाल, मानो साक्षात देवराज बैठे हों। उनका स्कंदरूप तेज सूर्य से भी प्रबल था। मेरी समझ से वह वृक्ष-देव थे। ऐसा रूप यौवन या तो किसी राजकुमार का हो सकता था या फिर किसी देव का।
मैं इतनी भयभीत हो गई कि जल का पात्र, नीलकमल एवं झाड़ मेरे हाथों से गिर गए। कांपते हुए पैरों से मैं वापस भागी। गिरती और संभलती मैं सुजाता तक पहुंची। मेरा बदन थरथरा रहा था। कंपकंपी छूट रही थी। मुझे इस अवस्था में देखकर सुजाता भी अचंभित हो गई।
“क्या हुआ पूर्णा ? तैयारी कर आई ?”
“वहां मत जाना… वटवृक्ष के पास… मेरा कहना मानो…” मैं घबराहट में बोल रही थी।
सुजाता का मन आशंका से भर गया।
“किन्तु हुआ क्या ?” वह व्याकुल होकर बोली।
मैंने सारा वृत्तांत उसको सुनाया, किंतु डरने की बजाय वह मुस्कुराई और बोली, ”पगली, इसमें भयभीत होने की क्या बात है ? वृक्ष-देव स्वयं मेरे संकल्प की पूर्ति के लिए आविर्भूत हुए हैं। मेरे उपास्य के प्रति मेरा अनुराग सार्थक हुआ है। चल… चल… अति शीघ्र चल। कहीं विलंब ना हो जाए।“
सुजाता ने खीर से भरा स्वर्ण-पात्र एक बड़े से थाल में रखा जिसमें फूल, फल, अक्षत और विभिन्न द्रव्य जो पूजा निमित्त तैयार किए हुए थे और बहुत सावधानी से उसने यह सब उठाया। अपने पुत्र को कुंडलकेसि नाम की दासी के संरक्षण में छोड़ वह मेरे साथ चल पड़ी। सारा रास्ता हमनें कोई बात नहीं की। सुजाता शीघ्रातिशीघ्र वहां पहुंच जाना चाहती थी।
जंगल को पार कर हम दोनों उसी स्थान पर पहुंच गईं, जहां वह देव अभी भी आंखें बंद किए बैठा था। सुजाता की दृष्टि उस पर पड़ी और उसके कदम वहीं रुक गए। वह निरंतर उसको देख रही थी। उसकी दृष्टि में थोड़ा प्रेम, थोड़ी श्रद्धा, थोड़ी व्यग्रता, थोड़ी विस्मयता एवं थोड़ा वात्सल्य नजर आ रहा था। मुझे सुजाता के मुख पर अनेक भाव एकसाथ नजर आ रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे वह उस परम देव को देख अपने जीवन के किसी विस्मृत छोर का अवलोकन कर रही थी। उस देव का रूप ही इतना मनोग्राही था।
सहसा, कुछ क्षणों के बाद वह धीरे-धीरे पग बढ़ाती उस देव के समीप चली गई। मैं विस्मित-सी वहीं कुछ दूरी पर खड़ी सब देख रही थी। सुजाता उसके समक्ष बैठ गई और उसको पुष्पांजलि दी। वह देव ध्यानमग्न थे।
सुजाता कुछ रुककर बोली, ”आर्य, प्रणाम स्वीकार करें।“
उस देव ने अपने नेत्र खोलें और सुजाता की और दृष्टिपात किया। उन नेत्रों की प्रखरता एवं दीप्तता का बखान करना शब्दों से बाहर था। ऐसा लग रहा था, जैसे सहस्त्र-दल कमल खिलें हो। उन नेत्रों में दोनों लोकों की स्थिरता एवं विरक्ति थी।
मेरी व्याकुलता बंध नहीं रही थी। एक बात तो स्पष्ट हो चुकी थी, वह कोई देव नहीं, मनुष्य ही था। सुजाता भी निर्भीक होकर उसके समक्ष आसीन थी और उसके नेत्रों में झांक रही थी। फिर धीरे से सुजाता ने खीर का पात्र उस तेजस्वी के समक्ष अर्पण किया।
“इसको ग्रहण करें आर्य।“
उस परम तेजस्वी ने अपनी दृष्टि पात्र पर डाली और कुछ क्षण केवल उसका अवलोकन किया। अंत में, हाथ बढ़ाकर पात्र सुजाता से ले लिया और खीर खाना शुरू कर दिया। ज्यों-ज्यों वह खा रहा था, उसके चेहरे पर तृप्ति के भाव आ रहे थे। शायद वह कई दिन से भूखा था। खीर समाप्त करके उस तेजस्वी ने पात्र सुजाता को दिया और विरक्त भाव से उसको देखने लगा।
चुप्पी तोड़ते हुए सुजाता बोली, ”आर्य, अपनी धारणाओं में, ईश्वर की जो अनुकृति मैंने बनाई हुई थी, आप साक्षात उसका स्वरूप हैं। आज आपने मुझे कृतार्थ किया।“
यह सुनकर उस धीर-गंभीर तेजस्वी के चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट आई और वह मधुर आवाज में बोला, ”मैं तृप्त हुआ देवी। एक दिन अवश्य मैं आपके पास आऊंगा।“ यह कहकर उसने अपने कमलनयन फिर से बंद कर लिए।
सुजाता ने उसको पुनः प्रणाम किया और बोली, ”जैसे मेरी मनोकामना पूर्ण हुई, आपकी भी पूर्ण हो, आर्य।“
तत्पश्चात, वह मेरे पास लौट आई और वापस चलने का इशारा किया। सुजाता का चेहरा भी दीप्त हो रहा था। उसके भाव समझ से बाहर थे। वह विकल, प्रफुल्लित, अधीर और चंचल नजर आ रही थी। हम दोनों ने गांव की ओर चलना शुरू कर दिया। चलते-चलते अनायास वह रूकी और एक पारिजात के वृक्ष के नीचे बैठ गई। श्वेत वस्त्रों एवं स्वर्ण आभूषणों में आज वह स्वर्ग की अप्सरा जैसी प्रतीत हो रही थी। उसका मुख इतना दीप्तिमान कभी न लगा था मुझे। सुजाता को मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
“पूर्णा, एक सत्य को स्वीकार किए बिना छुटकारा नहीं।“
“कौन सा सत्य सखी ?”
“उस संन्यासी को देख मेरे अंदर कुछ बिखरता गया, कुछ जुड़ता गया। मैंने कुछ खो दिया, कुछ संचित कर लिया। मेरे अंदर समर्पण की सरिता फूट पड़ी है, जो अपने सरित्पति को मिलने के लिए आतुर है। वह तेजस्वी एक ऐसा संगीत दे गया है कि मेरे थके हुए आहत पांव गतिशील हो गए हैं। उसके दिव्य आभा-मंडल में स्नान कर मैं रोशनी से भर गई हूं। मैंने पथ पा लिया है। वह एक इंद्रधनुष था और मैंने सातों रंग पा लिए हैं, केवल उसके दर्शन मात्र से ही।”
वह अविरल बोले जा रही थी।
“सुजाता, लेकिन वह विरक्त साधु…”
मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि वह बीच में टोककर बोली, ”स्त्री पुरुष का प्रेम केवल लौकिक नहीं, अलौकिक स्तर का भी तो हो सकता है। ब्रह्म-दर्शन, नियामक धर्म की रचना इसी आकर्षण की स्वीकृति के आधार पर हुई है।“
मैंने मुस्कुराकर उसको देखा।
फिर वह बोली, ”मेरे नीरस जीवन ने उसके नेत्रों की भव्य कक्षा में अमृत पा लिया है। तुमने सुना ? वह जीवन में कभी मेरे पास आएगा। अब तो यह जीवन उसी की प्रतीक्षा में कटेगा।“
तत्पश्चात, सुजाता ने खीर का जूठा पात्र उठाया और किनारों पर लगी बची हुई खीर को ग्रहण किया। मैं कुछ भी समझने की चेष्टा ना करके केवल इन क्षणों की साक्षी हो रही थी। सत्य ही तो है, अनुराग की मधुरता, सौम्यता एवं मृदुता जब अंतः करण से प्रवाहित होती है, तो सुप्त भावनाएं अंगड़ाइयां लेने लगती हैं, आंखों में स्वप्न जाग जाते हैं और दमित इच्छाएं पंख लगाकर आकाश में विचरण करने लगती हैं।

– – –
बाहर से कोयल के बोलने की आवाज आई, तो मेरी तंद्रा भंग हुई। बादल छंट चुके थे। अरुणोदय होने वाला था। पंछी कलरव कर रहे थे। पचास वर्ष पहले का वह दिन आज भी स्मृति में कितना स्पष्ट था। कालांतर में पता चला, उसी रात उस तेजस्वी को अनंत का ज्ञान प्राप्त हो गया था। अस्तित्व ने उसे बुद्धत्व का रसायन दे दिया था। महाआनंद घटा था उसको और उसने पूर्णता प्राप्त कर ली थी। सुजाता की खीर ने उसको अस्तित्व से एक कर दिया था। केवल इतना ही नही, अपने दिए वचन को पूर्ण करने वह सुजाता से मिलने भी आया था, अपने शिष्यों के साथ। इसके बाद सुजाता ने जीवन के उत्तरार्ध में साकेत के एक मठ में उससे दीक्षा ली और समस्त ऐश्वर्य का त्याग करके तपस्विनी बन गई। संसार के लिए वह तपस्वी “गौतम बुद्ध” थे, लेकिन मेरे लिए “सुजाता के बुद्ध”।

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