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विकास भागा जा रहा है

अर्विना गहलोत

विकास उँची गर्दन किए गाँव से शहर की ओर भागा जा रहा था।
विकास रुको ! गाँव की सुन तो लो, पहले तुमने आत्मनिर्भरता छीनी। शुद्ध तेल, घी, कपड़ा बुनने-रंगने से लेकर सभी काम करने में गाँव सक्षम था। बिना पैसे अनाज से ट्राँजेक्शन करता था। गाँव को किसी कार्ड की जरूरत नहीं थी। आज तुम ने आकर सब कुछ छीन लिया हमारा, हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है।
गाँव, मैंने तुम्हें कितनी सुख-सुविधा दी, फिर भी तुम नाशुक्रे हो, अभी जिस सड़क पर तुम दौड़ रहे हो, वहां कच्ची पगडंडी हुआ करती थी। बिजली दूरसंचार की सुविधा मिली।
विकास ! सुविधा मिली, मैं मानता हूँ, लेकिन बदले में खोया भी बहुत, तुमने हमारे खेतों को लील लिया। उसकी जगह बिल्डिंग बनी, पर वातावरण की शुद्धता चली गई। सस्ती दालें अनाज सब विकास के नाम पर बने इन मोलों में चैगुनी कीमत पर गाँव को खरीदनी पड़ रही है।
वहीं गाँव… जो अन्नदाता था, लेकिन विकास के आने से पलायन कर शहर आ गया, विकास को भोगने।
पुल पर चलने का टैक्स, सड़क टैक्स, घर का टैक्स, कुछ भी खरीदे तो टैक्स, खाएं तो टैक्स, पानी पीये तो… बिजली पर टैक्स लगता है।
गाँव को तो लगता शहर आकर सिर्फ टैक्स देने, फोन को रिचार्ज करने, माॅलों से खरीदारी के लिए ही कमाते-कमाते वो दोहरा हो रहा है।
विकास आगे-आगे बेतहाशा दौड़ रहा और गाँव हाँफ्ता हुआ उसे पकड़ने के लिए भाग रहा है।

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